‘यह’, ‘वह’ के द्रष्टा ‘मैं’ की असलियत जानो तो पार…. पूज्य बापू जी

‘यह’, ‘वह’ के द्रष्टा ‘मैं’ की असलियत जानो तो पार…. पूज्य बापू जी


दुनिया का व्यवहार तीन ढंग से देखा गया है । एक तो ‘यह’ – जो रू बरू है, यह वस्तु यह व्यक्ति…. दूसरा ‘वह’ – वह वस्तु, वह व्यक्ति, वह भगवान… तीसरा ‘मैं’ । ‘यह’, ‘वह’ और ‘मैं’ – इन तीन से ही सारा  व्यवहार सम्पन्न होता है । ‘यह’ को जानने में ‘मैं’ की जरूरत है, ‘वह’ को जानने में भी ‘मैं’ की जरूरत है लेकिन ‘मैं’ को जानने में न ‘यह’ की जरूरत है न ‘वह’ की जरूरत है, ‘मैं’ स्वयंप्रकाश है । ‘मैं’ सदा रहता है । ‘यह’ और ‘वह’ पहले नहीं थे, अभी दिख रहे हैं और बाद में नहीं रहेंगे ।

तो संसारी बोलते हैं, हमारे लिए उपनिषद् कहती है कि यह जो दुनिया है इसमें त्याग से जियो । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा….. ‘यह’ का ठीक उपयोग करो तो भगवान मिलेंगे । लोभ, लालच छोड़ो, काम विकार छोड़ो, यह छोड़ो, वह छोड़ो…..।

उपासक बोलते हैं कि जब वह (भगवान) राज़ी होगा तब मिलेगा ।

सोई जानइ जेहि देहु जनाई ।

जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 126.2)

वह अपने को जतायेगा तब मिलेगा ।

कर्मी बोलता है कि ‘यह’ का  उपयोग करो । कर्मयोग करो, सेवा करो, यह करो, वह करो… लेकिन वेदांत को जानने वाले बोलते हैं कि ‘यह’ और ‘वह’ की सिद्धि ‘मैं’ के बिना हो सकती है क्या ? नहीं हो सकती ।

तो जो ‘वह’ में ईश्वर खोजता है अथवा ‘यह’ में ईश्वर खोजता है उसको बहुत श्रम पड़ता है । कुछ चमत्कार दिखते हैं और उसमें उलझ भी जाता है । ‘मैं सिद्ध हूँ, मैं लंकापति रावण…. मैं हिरण्यकशिपु….’ हिरण्यकशिपु ने ‘यह’ में और ‘वह’ में 11500 वर्ष तपस्या की और आधिदैविक जगत की शक्तियाँ हस्तगत कीं । फिर भी हिरण्यकशिपु और उसकी प्रजा सुखी नहीं रही भगवान के रस के बिना, मैं की खोज के बिना ।

‘यह’ में, ‘वह’ में खोज-खोजकर कुछ चमत्कार देखते हैं, कुछ संतुष्टि रहती है, कुछ असंतुष्टि रहती है लेकिन ‘मैं’ में आते ही जैसे तरंग अपने असली स्वरूप पानी को खोजे तो तरंग सागर है, ऐसे ही यह ‘मैं’ अपनी असलियत को खोजे तो परमात्मा की सत्ता से ही यह स्फुरित होता है ।

संत ज्ञानेश्वर जी ने कहा कि ‘उपासक अपनी भावना के  बल से भगवान को प्रकट कर लेता है लेकिन द्वैत बना रहता है कि यह भगवान है अथवा वह भगवान है ।’ तो ‘यह’ और ‘वह’ जिससे सिद्ध होता है उस मैं को भगवानरूप में जानो । ‘यह’ को देखना हो तो ‘मैं’ चाहिए, ‘वह’ को देखना हो तो ‘मैं’ चाहिए, लेकिन ‘मैं’ की असलियत को जानो तो भगवान तुम्हारा आत्मा ! विश्रांति योग हो जायेगा । विभुर्व्याप्य सर्वत्र….. सर्वगत, सर्वव्यापक मैं चैतन्यस्वरूप…. जैसे घड़ा अपने को घड़ा न जानकर घटाकाश, महाकाश जाने ऐसे ही जीव अपने को परमेश्वर का, परमेश्वर को अपना जाने तो उसके बंधन छूट जाते हैं ।

कर्मी ‘यह’ को शुद्ध करके भगवान को खोज रहा है । उपासक ‘वह’ में भावना, कल्पना करके उसको खोज रहा है लेकिन सच्चे संत का शिष्य ‘मैं’ में आकर ‘मैं’ की शुद्धरूपता जान लेता है । मैं शरीर हूँ ? नहीं । मैं इन्द्रियाँ हूँ ? नहीं । मैं मन हूँ ? नहीं, मन को जानता हूँ । बुद्धि को भी जानता हूँ । अहं को भी जानता हूँ । सबको जो जानता है वह कौन है ? उसमें विश्रांति पाकर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर लेता है ।

भगवान प्रेमस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं…. अपने ‘मैं’ में छुपे हैं भगवान ! शरीर में नहीं, मन में नहीं, इन्द्रियों में नहीं, जहाँ से ‘मैं’ उठता है…. अहंकार में नहीं, अहंकार की गहराई में परमात्मा छुपे हैं । ‘यह’ में भगवान मिलना कठिन है । ‘वह’ में भगवान खोजना कल्पना है लेकिन ‘मैं’ में भगवान हाजरा-हुजूर है ।

मौन, एकांत में रहकर, सात्तविक आहार पर रह के ध्यान व जप करें तो आत्म-ईश्वर तो हैं ही । जहाँ बैठे हों वहाँ पानी है लेकिन कंकड़-पत्थर हटाओ, कुआँ खोदो, बोरिंग करो तो पानी ही पानी है । ऐसे ही अपने अंतरात्मा म  आओ तो ईश्वर ही ईश्वर है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 319

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