वामनपुराण में एक रहस्यमय एवं ज्ञानवर्धक कथा आती हैः
एक बार प्रह्लाद नैमिषारण्य में गये । वहाँ उन्होंने सरस्वती नदी के पास धनुष बाण लिये तपस्यारत दो मुनियों – नर व नारायण को देखा और दम्भयुक्त समझकर कहाः “आप दोनों यह धर्मविनाशक दम्भपूर्ण कार्य क्यों कर रहे हैं ? कहाँ तो आपकी यह तपस्या और जटाभार, कहाँ ये दोनों श्रेष्ठ अस्त्र ?”
मुनि नर ने कहाः “दैत्येश्वर ! तुम इसकी चिंता क्यों कर रहे हो ? सामर्थ्य रहने पर कोई भी व्यक्ति जो कर्म करता है, उसे वही शोभा देता है । हमने पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर ली है । हम दोनों से कोई भी युद्ध नहीं कर सकता ।”
प्रह्लाद ने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा कीः “मैं युद्ध में जिस किसी भी प्रकार आप दोनों को जीतूँगा ।’ प्रह्लाद न पहले नर के साथ युद्ध किया । जब उन्होंने ब्रह्मास्त्र चलाया तब ऋषि नर ने माहेश्वरास्त्र का प्रयोग किया । वे दोनों अस्त्र एक दूसरे से टक्कर खाकर गिर गये । यह देख प्रह्लाद गदा लेकर रथ से कूद पड़े । तब ऋषि नारायण ने स्वयं युद्ध करने की इच्छा से नर को पीछे हटा दिया । नारायण और दैत्यराज प्रह्लाद का घमासान युद्ध होने लगा । संध्या के समय युद्ध विराम हो जाता एवं दूसरे दिन पुनः युद्ध शुरु होता ।
दीर्घकाल तक युद्ध करने पर भी प्रह्लाद मुनि नारायण को जीत न पाये तब इसका कारण जानने वे वैकुंठ गये ।
वहाँ भगवान विष्णु बोलेः “प्रह्लाद ! नारायण तुम्हारे द्वारा दुर्जेय हैं । वे परम ज्ञानी हैं । वे सभी देवताओं एवं असुरों से भी युद्ध में नहीं जीते जा सकते ।”
प्रह्लाद अपनी प्रतिज्ञा को अब पूरा होना असम्भव जानकर प्राण त्याग करने के लिए प्राणों को सहस्रार चक्र में स्थिर करके सनातन ब्रह्म की स्तुति करने लगे । तब भगवान विष्णु ने कहाः “तुम उन्हें भक्ति से जीत सकोगे, युद्ध से कदापि नहीं । वस्तुतः नारायण के रूप में वहाँ मैं ही हूँ । मैं ही जगत की भलाई की इच्छा से धर्म-प्रवर्तन के लिए उस रूप में तप कर रहा हूँ । इसलिए यदि तुम विजय चाहते हो तो मेरे उस रूप की आराधना करो ।”
हिरण्याक्ष के पुत्र अंधक को राज्य देकर प्रह्लाद बदरिकाश्रम पहुँचे और मुनि नारायण व नर के चरणों में प्रणाम किया ।
मुनि नारायणः “प्रह्लाद ! मुझे बिना जीते ही अब तुम क्यों प्रणाम कर रहे हो ?”
प्रह्लादः “आपको भला कौन जीत सकता है ? विद्वान पुरुष आपकी ही पूजा करते हैं । वेदज्ञ आपके नाम का जप करते हैं तथा याज्ञिकजन आपका यजन करते हैं । आप ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण और वायु हैं । आप सूर्य, चन्द्र तथा स्थावर (स्थिर) और जंगम (चलने-फिरने वाले प्राणी, जंतु) के आदि हैं । पृथ्वी, अग्नि, आकाश और जल आप ही हैं । सहस्रों रूपों से आपने समस्त जगत को व्याप्त किया है । जगदगुरो ! आप भक्ति से ही संतुष्ट हो सकते हैं ।”
मुनि नारायणः “अनन्य भक्ति से तुमने मुझे जीत लिया है । तुम इच्छित वर माँगो ।”
प्रह्लाद ने तीन वर माँगेः ” 1 आपके साथ युद्ध करने से मेरे शरीर, मन और वाणी से जो भी पाप हुआ हो वह सब नष्ट हो जाय ।
2 मेरी बुद्धि आपके ही ध्यान और चिंतन में लगी रहे ।
3 मैं आपके भक्त के रूप में चर्चित होऊँ ।”
मुनिवर नारायणः “ऐसा ही होगा । इसके अतिरिक्त मेरे प्रसाद से तुम अक्षय, अविनाशी, अजर और अमर होओगे । अब तुम अपने घर जाओ और सदा धर्मकार्य में रत रहो । मुझमें मन लगाये रखने से तुम्हें कर्मबंधन नहीं होगा । इन दैत्यों पर शासन करते हुए तुम शाश्वत राज्य का पालन करो । दैत्यों एवं दानवों का कल्याणकारी बातों का उपदेश करो ।”
प्रह्लाद प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक अपने निवास स्थान को चले गये । प्रह्लाद अपने उपदेशों से दानवश्रेष्ठों को शुभ मार्ग में नियोजित करने लगे तथा भगवद् ध्यान व स्मरण करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे ।
श्रीमद्भागवत (9.4.63) में भगवान श्री हरि महर्षि दुर्वासा जी से कहते हैं-
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ।।
‘ मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है । मेरे सीधे सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे ।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 320
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