गुरु की महिमा गाने से उनका ईश्वरत्व हमारे हृदय में स्वयं प्रकट हो जाता है क्योंकि गुरु का स्वभाव स्वयं ईश्वर का स्वभाव होता है उसी स्वभाव के प्राप्ति हेतु ही मनीषियों ने ईश्वरोपासना का विधान किया है परन्तु वे लोग मेरे मत में अभागे ही रह जाते है जो साक्षात ईश्वर के चलते-फिरते स्वरूप सद्गुरु को छोड़कर मूर्तियों से कुछ अपेक्षा का भाव रखते है।मुझे तो उनकी मूर्खता पर हँसी आती है कि कैसी मूढ़ता की पराकाष्ठा है? मैं बता दूँ इस्लाम जिसे अल्लाह कहता है, ईसाईयत जिसे गॉड कहता है, हिंदुत्व जिसे भगवान कहता है,बुद्धिस्ट जिसे बोध कहता है वह साक्षात सद्गुरु ही है इसमें तनिक भी संदेह नहीं यही सत्य है और यही परम सत्य भी है। सभी धर्म ग्रन्थों में सभी उपदेशो में चाहे कोई भी मत पंथ क्यों न हो सद्गुरु के महिमा के गुणगान बिना वह सद्ग्रन्थ में साधारण ग्रन्थ परिणित नहीं हो सकता जिस ग्रन्थ में सद्गुरु की महिमा नहीं वह सद्ग्रन्थ ही नहीं उसे उठाकर रद्दी में डाल दो क्योंकि जितने भी सद्ग्रन्थ है,पूजनीय ग्रन्थ है वे महापुरुषों के द्वारा ही बने है और महापुरुष बिना सद्गुरु की अनुकम्पा बिना कोई हो ही नहीं सकता यही अटल सत्य है जिनके पास वर्तमान में सद्गुरु है मैं तो उन्हें ही धन्य-धन्य मानता हूं और सबसे अधिक भाग्यशाली मानता हूँ वो व्यक्ति भाग्यशाली तो है ही जिसके सिर पर सद्गुरु की प्रत्यक्ष छाया है परन्तु उसे भी मैं भाग्यशाली तब तक नहीं मानता जब तक उस व्यक्ति को सद्गुरु में प्रत्यक्ष ईश्वर बुद्धि नहीं है सदगुरु की प्रत्यक्ष छाया होते हुए भी यदि लेशमात्र भी उसमे ईश्वरत्व बुद्धि से कम भाव है तो वह मेरे मत में परम अभागा है उसे धिक्कार है और वह मूर्खो में परम शिरोमणि है। हे सनातन मार्ग के राही! तेरी साधना सद्गुरु है तेरा साधन सद्गुरु है और तेरी मंजिल भी सद्गुरु है, तू खुद देख तू कहा खड़ा है।
एक गहमागहमी भरी मंडी में चारों ओर व्यापार हो रहा था एक कोने में सन्त सिवली बिल्कुल बेपरवाह मस्त मलंग हुए बैठे थे उन्हें ढूंढता हुआ एक जिज्ञासु उनके पास आया कदमों को चूमते हुए उसने अरदास की कि महाराज! मैं आपसे रूहानी दौलत चाहता हूँ।
सन्त सिवली ने बिना किसी लाग लपेट के सीधा प्रश्न दाग दिया कि- क्या सोचकर आया है मेरे पास,क्या समझता है तू मुझे कि कौन हूं मैं?
जिज्ञासु हिचकिचाया और फिर बोला- जी! आप दुनिया से अलग बैरागी फकीर है,जी आप लोभ,मोह, घमंड से दूर सच्चे दरवेश है,जी आप ईश्वर के नाम मे मस्त रहने वाले सच्चे उपासक है जी आप…… ।
बस-बस मैने तुझे अपने नाम पर काव्य रचने को नही कहा था तो। जा यहाँ से चला जा क्योंकि तू किसी सच्चे इंसान या साधक को तलाश रहा है रूहानी मुर्शिद को नहीं तेरी मंजिल कोई और ही है।
वह जिज्ञासु मुँह लटकाकर चला गया।
थोड़ी देर बाद एक अन्य जिज्ञासु आया आंखों में प्यास लिए बोला- महाराज!मुझे आपकी रूहानी नियायत को दरकार है करम करे।
सन्त सिवली ने पुनः अपना वही सवाल दुहराया- क्या समझता है तू मुझे कौन हूं मैं?
जिज्ञासु हाथ जोड़कर बोला- साक्षात खुदा! इंसान के चोले में जो खुदा से इतना इकमिक हो गया है कि खुदा ही बन गया है।
सन्त सिवली यह सुनते ही प्रसन्न हो गए कहा कि- सच्चा जिज्ञासु आज आया। सिवली ने बिना कुछ कहे जिज्ञासु के सिर पर हाथ रख दिया और उसे इलाही राह पर बढ़ा दिया।