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सदगुरु तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं


● ब्रह्मवेत्ता गुरु ने अपने सत्शिष्य पर कृपा बरसाते हुए कहाः “वत्स ! “तेरा मेरा मिलन हुआ है (तूने मंत्रदीक्षा ली है) तब से तू अकेला नहीं और तेरे मेरे बीच दूरी भी नहीं है। दूरी तेरे-मेरे शरीरों में हो सकती है, आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में देश-काल की कोई विघ्न बाधाएँ नहीं आ सकतीं, देश काल की दूरी नहीं हो सकती। तू अब आत्मराज्य में आ रहा है, इसलिए जहाँ तूने आँखें मूँदीं, गोता मारा वहीं तू कुछ-न-कुछ पा लेगा।”

● करतारपुर में सत्संगियों की भारी दौड़ में गुरु नानक जी सत्संग कर रहे थे। किसी भक्त ने ताँबे के पैसे रख दिये। आज तक कभी भी नानक जी ने पैसे उठाये नहीं थे परंतु आज चालू सत्संग में उन पैसों को उठाकर दायीं हथेली से बायीं ओर और बायीं हथेली से दायीं हथेली पर रखे जा रहे हैं। नानक जी के शिष्य बाला और मरदाना चकित से रह गये। ताँबे के वे 4 पैसे, जो कोई 10-10 ग्राम का एक पैसा होता होगा, करीब 40 ग्राम होंगे।

● नानकजी बड़ी गम्भीर मुद्रा में बैठे हुए, सत्संग करते हुए पैसों को हथेलियों पर अदल-बदल रहे हैं। वे उसी समय उछाल रहे हैं, जिस समय हजारों मील दूर उनका भक्त जो किराने का धंधा करता था, वह वजीर के लड़के को शक्कर तौलकर देता है। शक्कर किसी असावधानी से रास्ते में थैले से ढुल गयी। वजीर ने शक्कर तौली तो 4 रानी छाप पैसे के वजन की शक्कर कम थी। वजीर ने राजा से शिकायत की। उस गुरुमुख को सिपाही पकड़कर राजदरबार में लाये।

● वह गुरुमुख अपने गुरु को ध्याता है ʹनानकजी ! मैं तुम्हारे द्वार तो नहीं पहुँच सकता हूँ परंतु तुम मेरे दिल के द्वार पर हो, मेरी रक्षा करो। मैंने तो व्यवहार ईमानदारी से किया है लेकिन अब शक्कर रास्ते में ही ढुल गई या कैसे क्या हुआ यह मुझे पता नहीं। जैसे, जो भी हुआ हो, कर्म का फल तो भोगना ही है परंतु हे दीनदयालु ! मैंने यह कर्म नहीं किया है। मुझ पर राजा की, सिपाहियों की, वजीर की कड़ी नजर है किंतु गुरुदेव ! तुम्हारी तो सदा मीठी नजर रहती है।ʹ

● व्यापारी ने सच्चे हृदय से अपने सदगुरु को पुकारा। नानकजी 4 पैसे ज्यों दायीं हथेली पर रखते हैं त्यों जो शक्कर कम थी वह पूरी हो जाती है। वजीर, तौलने वाले तथा राजा चकित हैं। पलड़ा बदला गया। जब दायें पलड़े पर शक्कर का थैला था वह उठाकर बायें पलड़े पर रखते हैं तो नानक जी भी अपने दायें पलड़े (हथेली) से पैसे उठाकर बायें पलड़े (हथेली) में रखते हैं और वहाँ शक्कर पूरी हुई जा रही है। ऐसा कई बार होने पर ʹखुदा की लीला है, नियति हैʹ, ऐसा समझकर राजा ने उस दुकानदार को छोड़ दिया।

● बाला, मरदाना ने सत्संग के बाद नानकजी से पूछाः “गुरुदेव ! आप पैसे छूते नहीं हैं फिर आज क्यों पैसे उठाकर हथेली बदलते जा रहे थे ?”

● नानकजी बोलेः “बाला और मरदाना ! मेरा वह सोभसिंह जो था, उसके ऊपर आपत्ति आयी थी। वह था बेगुनाह। अगर गुनहगार भी होता और सच्चे हृदय से पुकारता तब भी मुझे ऐसा कुछ करना ही पड़ता क्योंकि वह मेरा हो चुका है, मैं उसका हूँ। अब मैं उन दिनों का इंतजार करता हूँ कि वह मुझसे दूर नहीं, मैं उससे दूर नहीं, ऐसे सत् अकाल पुरुष को वह पा ले। जब तक वह काल में है तब तक प्रतीति में उसकी सत्-बुद्धि होती है, उसको अपमान सच्चा लगेगा, दुःखी होगा। मान सच्चा लगेगा, सुखी होगा, आसक्त होगा। मैं चाहता हूँ कि उसकी रक्षा करते-करते उसको सुख-दुःख दोनों से पार करके मैं अपने स्वरूप का उसको दान कर दूँ। यह तो मैंने कुछ नहीं उसकी सेवा की, मैं तो अपने-आपको दे डालने की सेवा का भी इंतजार करता हूँ।”

● शिष्य जब जान जाता है कि गुरु लोग इतने उदार होते हैं, इतना देना चाहते हैं, शिष्य का हृदय और भी भावना से, गुरु के सत्संग से पावन होता है। साधक की अनुभूतियाँ, साधक की श्रद्धा, तत्परता और साधक की फिसलाहट, साधक का प्रेम और साधक की पुकार गुरुदेव जानते हैं।

गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)….


मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ मांगो तुम मुझसे कोई एक वर मांग लो यदि आपको अपने गुरु से ऐसे वचन सुनने को मिले तो आप वरस्वरूप उनसे क्या मांगेंगे? यह प्रस्ताव कितना लुभावना सा है हमे सोचने को मजबूर कर ही देता है। भोगी से योगी तक सभी इस पर विचार करते है फ़र्क बस इतना ही है कि इसका जवाब गढ़ने के लिए एक सांसारिक अपनी बुद्धि की चतुराई लड़ाता है और एक साधक गुरुभक्त मन की भक्ताई लगाता है अर्थात भक्तिभावना लगाता है।

भागवत के एक ही प्रसंग में जब हिरण्यकश्यपु को मांगने का अवसर मिला तो उसने भरपूर बुद्धि भिड़ाई और बहुत ही टेढ़ी अंदाज में अमरता मांग ली मैं न पृथ्वी में मरु न आकाश में न भीतर मरु न बाहर मरु आदि आदि.. परन्तु हिरण्यकश्यपु वध के बाद जब भगवान नरसिंह ने भक्त प्रह्लाद को वर मांगने को कहा तो वह सजल आंखे लिए बोला- मेरी कोई कामना न रहे मेरी यही कामना है। मतलब की सांसारिक व्यक्ति की मांग मैं मेरे के स्वार्थी दायरों के बाहर नही आ पाती बड़ी छिछली सी होती है मगर एक शिष्य की एक गुरुभक्त की सोच व्यापकता को उपलब्ध होती है क्योंकि उसका प्रेम व्यापक से है व्यापकस्वरूप गुरुदेव से है।

कई भक्तो ने ऐसे अवसर पर अपने भक्तिभाव से सराबोर सुंदर और भक्ति वर्धिनी उदगार व्यक्त किये है इस अवसर पर कि तुम मुझसे कुछ वर मांगो।

पहला गुरुभक्त कहता है कि-

ऐसे में मैं गुरुजी से गुरुजी को मांग लूंगा। गुरुजी को मांगने का मतलब क्या है? यही कि गुरुदेव हमारे भीतर ऐसे समा जाए कि हमारे हर विचार हर व्यवहार हर कर्म पर वे झलके ताकि जब समाज हमे देखे तो समाज को गुरुमहाराज की ही याद आये उनकी ऊंचाई का भान हो और वह गदगद होकर कह उठे जब शिष्य ऐसे है तो साक्षात इनके गुरु कैसे होंगे।

इस अवसर पर दूसरा गुरुभक्त कहता है कि- जब भी श्री गुरुमहाराज इस धरा पर आए मैं भी उनके साथ ही आऊ और मैं उनकी आयु का ही होऊ और मेरी चेतना को यह ज्ञान हो कि मेरे गुरुवर साक्षात भगवान है और फिर मैं जी भर के उनकी सेवा करूँ और उनसे प्यार करूँ। तो भाई उनकी आयु के होने के पीछे क्या रहस्य है? गुरुदेव की आयु के होने से यह लाभ होगा कि मैं उनके अवतरण काल मे ज्यादा से ज्यादा जीवन बिता पाऊंगा और उनके सानिध्य का आनंद लाभ उठा पाऊंगा उनसे पहले आया तो हो सकता है कि उन्हें छोड़कर मुझे इस धरती से जाना पड़े, उनके अवतरण के काफी बाद में मेरा जन्म हुआ तो हो सकता है कि वे मुझे इस संसार मे अकेले छोड़कर चले जाएं।

तीसरा गुरुभक्त कहता है इस अवसर पर कि अगर गुरुमहाराज जी मुझसे वरदान मांगने को कहेंगे तो मैं यही मांगूंगा कि- वे मुझे एक ईंट के समान बनाये और वह ईंट उनके आश्रम के नींव में लगाई जाए इसके पीछे मेरी भावना बस यही है कि जबतक मै जियूँ छिप के..प्रदर्शन, नाम, बड़ाई से अछूता रहकर गुरुदेव की सेवा करता रहूं और जैसे एक ईंट मिट कर मिट्टी हो जाता है अंततः मैं भी गुरुदरबार की मिट्टी बनू, गुरुचरणों की रज बन जाऊं अर्थात सदा-सदा निमाणी भाव से उनका होकर रहूं।

इस अवसर पर चौथा गुरुभक्त कहता है कि-हे गुरुदेव! वर देना तो एक ऐसा दास बनाना जिसका अपना कोई मन मौजी सोच विचार न हो इस दास की बुद्धि में सिर्फ उन्ही विचारों को प्रवेश मिले जो गुरुदेव को पसंद हो जब विचार गुरुदेव के होंगे तो कार्य भी गुरुदेव के होंगे, कार्य गुरुदेव के होंगे तो जीवन भी गुरुदेव का होकर रह जायेगा इस दास को यह पता होगा कि मेरे मालिक अब क्या चाहते है जैसे महाराज जी हमारे कहने से पहले ही हमारे मन की बात जान जाते है वैसे ही दास को गुरुवर के कहने से पहले ही गुरुवर के मन की बात पता होगी। बात पता चलते ही वह सक्रिय होकर उन्हें पूरा करने लगेगा यदि मैं संक्षेप में कहूँ तो मुझे ऐसा दास बनने की चाह है जैसा गुरुदेव का हाथ जिसकी अपनी कोई मति नही, सोचते गुरुमहाराज जी है वही सोच हाथ तक पहुंच जाती है और बस हाथ उसे पूरा कर देता है। जो महाराज जी सोचे मैं भी अन्तर्वश उसे पूरा करता जाऊँ।

पांचवा भक्त इस अवसर पर कहता है कि- अगर गुरुमहाराज जी से मुझे कुछ मांगने का अवसर मिलेगा तो शायद मैं उस समय कुछ बोल ही नही पाऊंगा मेरी आँखों से बहते अश्रु गुरुदेव से अपनी इच्छा जरूर व्यक्त कर देंगे परन्तु मेरी वाणी मौन रहेगी।

इस अवसर पर छठा भक्त कहता है- जब आखिरी श्वास निकले तो गुरुदेव के श्री चरणों मे मेरा मस्तक हो उनका मुस्कुराता हुआ प्रसन्न चेहरा मेरी आँखों के सामने.. और वे गर्वोक्त स्वर में

मुझसे कहें कि बेटे तुझे जो कार्य मैने सौंपा था वह पूर्ण हुआ चल अब यहां से लौट चले।

इस अवसर पर सातवां गुरुभक्त कहता है कि- हे गुरुदेव! सुंदर भावों से युक्त मन मुझे दे दो क्योंकि मेरे पास भाव का ही अभाव रहता है और गुरुदेव की दृष्टि अगर हमसे कुछ खोजती है तो भावों को ही खोजती है वैभव सौंदर्य, वाक पटुता अन्य कुछ नही यदि हम भावों द्वारा उनसे जुड़े है तो वे हमेशा हमसे हमारे लिए उपलब्ध है इसलिए हे गुरुदेव! मैं तो वरदान स्वरूप में भावों की ही सौगात माँगूंगा।

गुरु का प्रसाद….


जिज्ञासु ने कहा कि महात्मा जी गुरू से जो प्रसाद मिले, वह अगर अपने व्रत या दशा के विरुद्ध जाता हो तो उसे खाना चाहिए या नहीं । महात्मा जी ने कहा इसी बात को लेकर एक दिन बड़ी प्रश्नोत्तरी हो गई । एकादशी का दिन था, कोई सज्जन विद्वान पंडित हमारे गुरुदेव के पास गये और गुरुदेव ने उन्हें कुछ खाने को दे दिया प्रसाद रूप में । सबको बांटा गया तो उन्हें भी मिला, वे थे उपवासी वैष्णव ब्राह्मण ।

प्रसाद की अवहेलना करना बड़ा पाप माना जाता है फिर भी उन्हें संदेह हो गया । उन्होंने हमसे पूछा कि आज एकादशी है खाना या नहीं खाना, मैंने पूछा यह क्या है ? तो सज्जन ने कहा प्रसाद है । मैंने कहा कि गुरू ने जो प्रसाद दिया यदि उसमें प्रसादबुद्धि सच में है तो यह प्रसाद गुरू जैसा, ईश्वर जैसा परम पवित्र है इसे ग्रहण कर सकते हो । हां अन्न मत खाना, शिष्य को श्रद्धा, धैर्य और समझ के अनुरूप उसका उपयोग करना चाहिए ।

सर्वसाधारणतः उसकी अपनी भावना पर है, भावना के अनुसार प्रसाद अपना प्रभाव दिखलाता है । रामकृष्ण परमहंस के गले में कैंसर हुआ था, उनके आस-पास बहुत से शिष्य भी थे, सब कपड़े डाले हुये मुंह को ढके हुए थे, आंखें भी ढकी हुई थी, कहीं कोई जंतु अंदर ना घुस जाये ।

ऑपरेशन हो गया था उनके घाव का, निकाला हुआ सब द्रव्य एक कटोरे में रखा हुआ था, उन शिष्यों के भय और संशय को दूर कर विवेकानंद के मन में बड़ा क्षोभ और दुख हो गया ।

उन्होंने वह कटोरा उठाया और पूरा पी गये, विवेकानंद जी बोले तुम लोग डरो मत । तुम्हारे लिए यह रोग है और मेरे लिए यह गुरू का अमृत प्रसाद है और वह उनके लिए अमृत ही हुआ, रोग नहीं । अतंर्श्रृद्धा में एक महान शक्ति है, वह अमृत को जहर और जहर को अमृत भी बना सकती है । प्रसाद को प्रसाद ही समझना चाहिए, उसे अन्न आदि नहीं समझना चाहिए, उसको डॉक्टरी दृष्टि से नहीं देखना चाहिए ।

अब इस विषय में थोड़ा विमर्श करेंगे, क्या दिया बाबा ने ? कि लड्डू दिया । इसमें क्या है, इसमें डालडा है जिससे चर्बी बढ़ती है बेसन भी बहुत भारी और वायुकारक है । शक्कर के मिलने से इसमें और भी भारी बन जाता है पचने के लिए पूरा कठिन है, अच्छा आदमी भी खाये तो पेचिश होगा ही फिर भी थोड़ा खा सकते हो । यह लड्डू विज्ञान किधर होना चाहिए कि बंबई के होटल में, गुरू के पास नहीं ।

दूसरी दृष्टि यह है कि बाबा ने क्या दिया ? प्रसाद दिया । उसके लिए प्रसाद महाप्रसाद के सिवाय और कुछ नहीं । उसमें फिर विज्ञान नहीं, महाविज्ञान नहीं अनुकूल हो या प्रतिकूल यह भी प्रश्न नहीं । यह प्रसाद तो ठीक है बाह्य है लेकिन जो गुरू अमृत प्रसाद देते हैं अपने श्रीवचनो के रूप में उसे तो रोज ग्रहण करना ही चाहिए । बाहर का प्रसाद तो आपके शरीर से मन तक फिर मन से आत्मा तक पहुंचेगा परन्तु गुरुवचनामृत प्रसाद तो सीधे आपके सुषुप्त आत्मा तक जाकर उसे झंकृत, उसे जागृत कर देगा, परन्तु लोग इस प्रसाद को तो यूहीं समझ कर इसे ग्रहण ही नहीं करते । अब तुम कहो महात्मा जी हम तो रोज सत्संग श्रवण करते ही हैं आपका । तो भैया इस प्रसादी को तुमने कितना खाया और कितना पचाया या यूहीं ले जाकर कहीं रख कर भूल गये । सच्ची गुरू की प्रसादी तो सेब, संतरे या मैंगो नहीं है, गुरू की प्रसादी जो पचा लिया वो तो प्रसाद बनाने वाला बन जायेगा । इसमें कोई शंका नहीं है परन्तु तुम्हे तो प्रसाद ग्रहण ही नहीं करना है ।

गुरुदेव का तो काम ही है प्रसाद देना और तुम्हारा काम ही है गुरुदेव का कुछ ना लेना । क्यूं जी, सत्य कहा ना ? अरे भाई मैं तो कहता हूं कि यदि यह गुरुप्रसादी थोड़ी सी भी अपने साथ ले जाओ तो कोई विकार तुम्हें लूट नहीं सकता । तो महात्मा जी कैसे पता चले कि हमने प्रसादी पचायी है या नहीं *महाप्रसादे गोविंदे नामनी ब्रह्माणी वैष्णवी स्वलप-पुन्यवताम राजन विश्वासो नैव जायते* ।

प्रसाद वह है जो सर्व दुखों का, सर्व अनिष्ठों का नाश करता है । गुरू की प्रसादी पचाने पर भगवान में रुचि बढ़ेगी और वह साधक सिद्घता की ओर अग्रसर होगा और गुरू की प्रसादी तख्त पर रख छोड़ने से बद्धता में ही घूमते रहोगे फिर उसका चित्त राग-द्वेष से उपर उठ ही नहीं सकता, छिद्रान्वेषण से उपर नहीं उठ सकता । दूसरों को देखकर अपने चित्त को मलिन करेगा, दूसरों में दोष दर्शन करेगा, इधर-उधर की गप ही करेगा तो समझो उसने अपने गुरू की प्रसादी का अनादर किया ।

दूसरों के गुण-दोष देखकर जो इंस्पेक्टर बन जाता है, दूसरों की उन्नति देखकर जो बंदर बन जाता है वो क्या पायेगा गुरू की प्रसादी को, ऐसे लोगों से तो हम बड़े ही कठोर होते हैं बाबा क्यूंकि यहां आकर भी कोई उन्नत ना हो, सेवा करके भी उन्नत ना हो तो कहीं और की तो आस ही क्या । अभी कुछ दिन पहले ही हमारे पास कोई आया दौड़ते हुए, कहने लगा महात्मा जी ! फलाना आपका बहुत पुराना चेला है और मैंने उसे ऐसे -2 करते देखा ।

मैंने कहा खुद देखा या सुना, महात्मा जी लोगों के द्वारा सुना । हमने तुरन्त उसे डांटते हुये कहा कि लोगों की इतनी ही फिक्र है कि कौन क्या कर रहा है किसमे क्या दोष है तो तू एक काम कर मैं इस व्यासगद्दी से उत्तर जाता हूं तू ही ऊपर बैठ जा । इतना सुनकर वो थोड़ा शर्मिंदा सा हुआ, मैंने कहा अब चुप हो जा और बैठकर जप कर ।

कुछ देर बाद पता चला कि फिर उसने वही बात दूसरे आश्रम में रहने वालों से भी कही । हम कहते हैं कि अरे भाई आप मेरे यहां दूसरों के दोषों का मुआयना करने आये हो क्या, जरा बता दो । यहां तो गुरू के पास रहकर अपने दोषों को मिटाना होता है परन्तु आप करते हैं इससे बिल्कुल विपरीत तो यह गुरू की प्रसादी का अनादर ही तो हुआ ।