कल हमने सुना था कि महाराष्ट्र के प्रसिद्ध चार आत्मज्ञानी, ब्रम्हवेत्ता नन्हे भाई बहन श्री निवृत्तिनाथ, श्री ज्ञानदेव, श्री सोपान और मुक्ता बाई। बचपन में ही अनाथ हो गए थे और गांव आलंदी से बाहर निर्जन सिद्ध दीप मे रहते थे, श्री निवृत्तिनाथ आध्यात्मिक गुरु भी थे श्री ज्ञानेश्वर महाराज के।
एक दिन उन्होंने माढ़े खाने की दिव्य इच्छा प्रकट की। दिव्य कैसे? यह आज हम जानेंगे अपने गुरु व बड़े भ्राता की प्रसन्नता के लिए ज्ञानदेव व सोपान दोनों भाई आलंदी गए, वहा मधुकरी मे भरपूर आटा मिल गया, कुम्हारिन कमला माढ़े सेकने हेतु खपरा भी देने वाली थी तभी विसोबचाट्टी विध्वंसक भूचाल बनकर आया। आटा, खपरा आदिक सब कुछ छीनकर मिट्टी मे मिला गया ऐसा विनाशकारी तांडव देखकर दोनों बालक प्रबल मानसिक संताप लिए खाली हाथ वापस सिद्ध दीप आ गए। दोनों अपने आंगन तक पहुंच गए, निवृत्ति और मुक्ता उत्सुक क़दमों से उनकी तरफ बढ़े।
ज्ञानेशा कुछ नहीं बोला, कुटिया मे प्रवेश कर उसने किवाड़ बंद कर दी भीतर से सांकल भी जड़ दी, बाहर आंगन मे सोपान ने रोते रोते सारा प्रसंग कह सुनाया। अब हम जरा साधारण स्तर पर विचार करे, सामान्यतः ऐसी स्थिति मे क्या प्रतिक्रिया होती है? भयंकर विलाप, तीव्र उफान, प्रचंड प्रतिशोध का धधकना, मुख से अपशब्दों के अंगारे उगलना और यदि ये सब ना भी हो तो घोर मानसिक हिंसा होना।
अक्सर हम और आप अपमानित होने पर ऐसी ही प्रतिक्रिया करते है लेकिन इन प्रगतिशील साधकों का क्या व्यवहार रहा? वैसे तो शस्त्रमत है श्री ज्ञानदेव जी महाराज साक्षात भगवान विष्णु के ही अवतार थे परन्तु यहां इस प्रसंग मे उन्होंने अपने भाई बहनों के संघर्ष शील साधक कैसे होते है? उसकी अभिव्यक्ति की है, सारी बात सुनते ही श्री निवृत्ति तुरंत सक्रिय हुए सोपान के मस्तक पर हाथ रखा और कहा धैर्य… धैर्य धरो सोपान, मुक्ता जा इसके लिए शीतल जल ले आ, मुक्ता मिट्टी के कुल्हड़ मे से जल ले आयी, सोपान गटागट पी गए परन्तु तब भी उसकी हिचकियां बंद नहीं हुई, आवाज़ सूबकियो के फंदे मे अब भी फंसी थी सोपान ने अपनी विवशता व्यक्त की। निवृत्ति दादा, धैर्य नहीं बंध रहा क्या करू? श्री निवृत्ति तुरंत बोले ध्यान करो, परम चेतना का चिंतन करो, साधना मे लीन हो जाओ।
सोपान ने एक पल का भी विलंब नहीं किया, वह एक कदम उठा और श्री निवृत्ति को प्रणाम कर बरगद पर बनी छांव शीला पर जा बैठा और पद्मासन लगाया और उच्च स्वर मे उच्चारण करने लगा ॐॐॐॐ……… ॐ धुन धीरे धीरे मध्यम हुई और फिर मौन हो गई, सोपान अन्तर्जगत की गहराइयों मे पेठता चला गया ॐॐॐ……. ऐसी गहराई जहां परम चेतन्यमई माँ का ममतामई प्यार भी था। परम पिता का सांत्वना भरा दुलार भी था, इधर बाहर मुक्ता ने धीमे से स्वर मे लगभग फुस फुसाते हुए श्री निवृत्ति से कहा दादा क्या हमें सोपान को तनिक समझाना नहीं चाहिए था? उसे सांत्वना भरे दो शब्द ही कह देते तो उसे सहारा मिल जाता।
श्री निवृत्ति ने गहरी सांस भरी मानो आत्मज्ञान के सागर मे डुबकी लगाकर अमूल्य मोती निकाला हो, नही मुक्ता अभी कोई भी बात करना उचित नहीं था, सोपान से कुछ भी कहते तो वह व्यावहारिकता से ओतप्रोत होता, व्यावहारिक गणित के पास इस स्थति का कोई हल ही नही है, साधक के साधन मे कुछ भी गड़बड़ होती है तो साधक उसका चिंतन करने लगता है तभी फंस जाता है इसलिए बातचीत करने से अगर कुछ हाथ आता तो सिर्फ नकारात्मकता हाथ लगती, हम अपने मन पर द्वेष का बोझ चढा लेते मुक्ता।
मस्तिष्क की गलियों मे उस दृश्य को और गहरा रमा लेते। अपना आत्मपतन कर डालते परन्तु अब ऐसा नही होगा, पतन नही उत्थान होगा, सोपान की ओर देखते हुए वह देख मुक्ता सोपान सीढ़ियां चढ़ रहा है वह मन, बुद्धि और व्यावहारिकता के गणित के पार जा रहा है, मुक्ता एक टक सोपान को देखती रही, उसकी सुबकिया गुम हो गई थी।
वह आत्मलीन था, उसके चेहरे पर सौम्यता बिखर आई थी, माथे की सिलवटें भी गायब हो चुकी थी, वह ठहर गया था, ठीक जैसे किसी घड़ी की चलायमान सुईया प्रगाढ़ चुम्बकिया क्षेत्र मे पहुंचकर थम जाती है। वह समर्पित सा ही दिख रहा था, जैसे कोई उत्पाती बालक थक हारकर अपनी माँ के सामने आत्मसमर्पण कर देता हैं तू जो करे जैसा करे तेरी इच्छा मैं समर्पित हूं।
हे सतगुरु के प्यारों यह तर्को से परे की स्थति होती है यहां पहुंचकर साधक का मस्तिष्क जमा घटा करना छोड़ देता है उस परम सत्ता को अर्पित हो जाता है गुरु सत्ता को अर्पित हो जाता है सोपान इसी अवस्था मे स्थित हो गया था, उसकी इस सूक्ष्म अवस्था को मुक्ता देख रही थी, समझ पा रही थी क्यों कि उसके पास भी आत्मज्ञान की दृष्टि थी वह खुश हो गई, श्री निवृत्ति उसके पास आए और कान मे धीरे से बोले क्या तेरे और मेरे असहाय शब्दों से उसे इतनी सहायता मिल पाती मुक्ता? देख उसे अब हमारी जरूरत ही नही उसे जो चाहिए था वह भीतर मिल रहा है।
मुक्ता ने झूमते हुए हल्की सी ताली बजाई सच आप ठीक कह रहे हैं। सोपान भैया तो ब्रह्मलोक की सैर पर निकल गए है, अब उनकी कोई चिंता नहीं पर भैया मुक्ता के चेहरे पर काली घटाएं घिर आई, वह बरबस इस कुटिया की ओर घूम गई, द्वार अब भी बंद था मुक्ता ने निरही नजर से ही श्री निवृत्ति की ओर देखा उसकी आंखों मे बड़ा सा प्रश्न चिन्ह था, जो उनसे मार्ग दर्शन मांग रहा था, श्री निवृत्ति गंभीर वाणी मे बोले मुक्ता यह जो हमारा ज्ञानदेव है यह संसार मे रहकर भी संसार मे बहुत उपर रहता है, शायद विसोबाचाट्टी के व्यवहार से थोड़ा क्षुब्ध हो गया है, ऐसे मे हमें उसकी आत्मस्थती का उसे फिर से बोध कराना होगा और वह तुम ही कर सकती हो मुक्ता जाओ, मुक्ता की पीठ थपथपाकर श्री निवृत्ति स्वयं ध्यानस्त हो गए, मुक्ता आगे बढ़ी द्वार खटखटाया बोली ज्ञानेशा भैया किसी से रूठे हो क्या?
दरवाजा खोलो ना मुक्ता के स्वर मे मनुहार थी, परन्तु फ़िर भी दूसरी ओर से कोई उत्तर ना मिला, सन्नाटा छाया हुआ था ऐसा लगता था मानो ज्ञानदेव गुमसुम हो गए है, मुक्ता ने पुनः सरस पुकार लगाई ज्ञानू भैया एक बार बाहर तो आओ देखो ना आपकी छोटी सी प्यारी सी बहन आपसे कुछ कहना चाहती है, प्रतिउत्तर अब भी मौन ही थी इतिहास बताता है कि यह नन्ही सी साधिका मुक्ता ज्ञान वृद्धा थी
जब उसने अपने बड़े भाई ज्ञानदेव को मुक पाया तो उसकी साधक्ता प्रखर हो उठी,उसके अन्तःकरण से ऐसे अभंग प्रकट हुए, जिनमें गीता जैसा भाव था आत्मज्ञान था, इनका लक्ष्य था ज्ञानदेव आनंदकंद होकर दरवाजा खोल दे और कुटिया के बाहर आ जाए इन अभंगो की हर अन्तिम पंक्ति मे मुक्ता कहती है कि ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा। द्वार खोलो भैया ज्ञानेश्वरा। मराठी मे द्वार को ताटी कहते है इसलिए मुक्ता के ये जागृति अभंग मराठी इतिहास मे “ताटी के अभंग” नाम से प्रसिद्ध हुए हैं, मुक्ता ने तीसरी बार
दरवाजा खटखटाया और गा उठी।
चिंता, क्रोध मागे सारा,
ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा।
ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा।।
योगी पावन मनाचा,
साही अपराध जनाचा,
शब्द शस्त्र झाले क्लेष,
सन्ती मानवा उपदेश
विश्वपटृ ब्रम्हद्ररा..
विश्वपटृ बृहमधारा,ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा,
ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा।।
हे ज्ञानेशा भैया आप तो महान योगी है, आपका मन परम पावन है, जन साधारण के अपराधों पर मन मैंला मत करो, जब विश्व मे कभी भी आग लगती है तो संत ज्ञानी बनकर अग्नि को बुझाते हैं, मैं जानती हूं भैया आप पर विसोबचाटी ने बड़ी निरदयता से शब्दों के शस्त्र चलाए है उनसे आपके अंतर्मन मे बहुत क्लेश हुआ है पर भैया इन शब्द शस्त्र के आगे आप ज्ञान शस्त्र छोड़ दो संतो के उपदेशों को याद करो सब संतो ने कहा है यह संपूर्ण विश्व एक विराट वस्त्र है जो एक ही धागे से बना हुआ हैं वह धागा है परब्रह्म परमेश्वर वहीं एक वास्तविकता है अन्य कुछ नहीं।
इसलिए भैया उस परब्रह्म पर चित लगाओ, आनंदित होकर किवाड़ खोलो और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आओ। अब मुक्ता ने चौथी बार द्वार खटखटाया।
*ब्रह्म जैसी तेशापरी, वड़ीलभुते सारी,*
*अहो क्रोधे आवा कोठे,* *अवधि आपणी घोठे, जीभदाता नी चावली,कौड़े बत्ती शितोड़ली,*
*मन मारो नी उन मन करा,ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा,*
*ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा।।*
सोचो भैया जब कभी अपने ही हाथों से हमें चोट लग जाती है तब क्या हम उस हाथ को काट डालते है? जब अपने ही दांत जीभ को आहत करते है तो क्या हम अपने ही दांत पंक्ति तोड़ देते है क्या ? नहीं न इसीतरह हम उस पर ब्रह्म पिता की विराट देह के अंग है, कोई अपना कोई पराया नही… हम सभी उसी की अभिव्यक्ति है ऐसे में अगर एक अंग अज्ञानता के कारण दूसरे अंग को कष्ट दे बैठता है तो आहत हुए अंग को कभी रोष नहीं करना चाहिए क्यों कि इससे अंततः दुख तो परम पिता को ही होगा । भैया ! हम याद रखे चाहे सुख है या दुख सब परमपिता के ही प्रसाद है। हमारे निर्माण के लिए ही वह इन्हे हम तक भेज रहा है इसलिए जब जो आये जैसा आए सब सहते जाए यही सोचकर कि हमारा लक्ष्य तो परमपिता को प्रसन्न करना है प्रभु को पाना है इसलिए आनंदित होकर किवाड़ खोलो और अपनी छोटी बहन के लिए बाहर आओ।
शुद्ध जाचा भाव झाला,
दुरी नाही देव त्याला,
तुम्ही तरुण विश्व तारा,
ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा,
ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा।।
जिसका भाव अशुद्ध नहीं है ईश्वर उसके पास वहीं है स्वयं शुभ में रमिये, सबका शुद्ध करते रहिए, मुझ बच्ची में क्या शक्ति है आपको क्या समझा सकती है आपमें सतगुरु की दृढ़ भक्ति है वहीं आपका संरक्षण करती है, आपकी लाडली मुक्ताई बुला रही है सब छोड़ भव तरने का यत्न करो खोलो किवाड़ भैया मेरे मुझ पर थोड़ी कृपा करो ।
ज्ञानेश्वर भैया इस साधना पथ पर हमारा एक ही तो संघर्ष है अपने मनोभाव को शुद्ध और पावन रखनें के लिए ही तो हम जुझते रहते हैं क्योंकि हम जानतें हैं कि यदि मन सुन्दर है तो हरि दूर नहीं। इसलिए भैया अपने मन को शुभ और सकारात्मक विचारों मे ही रमाइए और दूसरो को भी रमना सिखाइए वैसे मै तो एक नादान बच्ची हूं मैं आपको क्या समझाऊं आपकी तो सतगुरु मे निरंतर भक्ति है वे ही आपको सूक्ष्म रूप से हर पल समझाते रहते है आपकी प्यारी और लाड़ली मुक्ताई।
(वैसे महाराष्ट्र मे बड़ी बहन को ताई कहते है लेकिन ज्ञानेश्वर जी प्यार से मुक्ता को ताई कहते थे)
आपकी प्यारी और लाड़ली ताई तो बस इतना चाहती है कि आप तो बस छोटे मोटे चिंतन छोड़िए केवल आत्मकल्याण पर चित लगाइए भैया ! आनंदित होकर किवाड़ खोलिए और अपनी छोटी
बहन के लिए बाहर आइए, अब की बार मुक्ता को द्वार नहीं खटखटाना पड़ा वह स्वयं ही खुल गया ज्ञानेशा आनंदित होकर ही बाहर निकल आया उसके नेत्रों मे झमझम आंसू बरस रहे थे भावातिरेक मे उसने छोटी बहन मुक्ता को ताई कहकर कंठ से लगा लिया, मुक्ता के भी आंखो से अश्रु मोती ढुलक आए, ज्ञानेशा ने उन्हे पोछा और कहा नही ताई नहीं.. रो मत बहन, तू तो साक्षात परब्रह्म की चित्तकला है, तू ब्रह्मवादिनी है ताई तेरे मुख मे वाग देवी का वास है, मैं धन्य हुआ ऐसी बहन को पाकर, ताई आज तक तो मैं तुम्हे अन्नपूर्णा कहता था जो हमारे उदर को पोषित करती थी, मुझे भोजन कराती थी परन्तु आज से ताई तुम्हे आत्मपुर्णा भी कहूंगा जो हमारी आत्मा को भी अपने ब्रह्मविचारो से पोषित कर सकती है, हां आज तो हमारी मुक्ताई ने ताटी के अभंगो का महाभोज कराया है, श्री निवृत्तिनाथ कह उठे सोपान भी नेत्र खोल चुका था।
उसने भी अपने स्वर जोड़े सच अब अगली बार ताटी के अभंग कब सुनाओगी? ताई, चारो भाई बहन खिलखिलाकर हंस दिए, सिद्ध दीप पर छाए उदासी के काले बादल छट गए, इतने में ही साधो साधो पर केवल अभंगो और आत्मविचारो से उदर की अग्नि तो शांत नहीं होती बालको, आंगन के बाहर से स्वर उभरा । चारो ओर दृष्टि घुमाई और श्रोत की ओर लगाई सामने सोमेश्वर शास्त्री खड़े थे, उनके हाथ मे आटे की पोटली थी, वे यह कहकर भीतर प्रवेश कर रहे थे, मुझे थोड़ी देर पहले ही पता चला कि विसोबाचाटी का दुर्व्यवहार कैसा रहा इसलिए यहा आटा लाया हूं, भोजन पकाओ और फिर हरी के गुण भी गाओ,
श्री निवृत्ति ने आगे बढ़कर फिर सोमेश्वर शास्त्री को प्रणाम किया, आप धन्य है शास्त्री जी ! आप हरी के ही दूत है, ज्ञानेशा का अंतःकरण आंदोलित सा हो उठा कुछ सोचते हुए उसने कहा दादा ! ऐसा क्यों होता है कि जैसे ही हम अशुभ विचारों से संघर्ष करके शुभ्रता की ओर बढ़ने लगते है तो कोई शक्ति झट से आकर हमें थाम लेती है, हमारी हर जरूरत पूरी कर देती है, पराजय को जय मे बदल डालती है मानो उस शक्ति ने ही पहले दूर बैठकर हमारी परीक्षा के लिए सारा खेल रचा हो और हमे उसे परीक्षा मे उतीर्ण हुआ देख फिर वही शक्ति पुरस्कार स्वरूप अपनी प्रसन्नता का प्रसाद भेज देती है सब कुछ अच्छा और बढ़िया कर देती है, बताओ भैया ? श्री निवृत्तिनाथ पुनः रहस्यमई रूप से मुस्करा दिए, हरी ॐ……….
तुम दिव्य बालको की दिव्य बाते तुम्हीं जानो मे तो चला इतना कहकर सोमेश्वर शास्त्री जी वहा से चले गए, उनके जाते ही सोपान बोला।
अब हमारे पास दो विकल्प है कि हम इस आटे की सीधी सादी रोटी बनाकर खाले या फिर मुक्ता की बनाई हुई कंदमूल की सब्जी और चटनी से माड़े खाए, वैसे मेरी दृष्टि मे दूसरा विकल्प श्रेयस्कर है और प्रियस्कर भी, मुक्ता हसते हुए बोली पर सोपान भैया आपका श्रेय-प्रेय का मार्ग खपरेले के बिना बड़ा दुर्गम है दोनों भाई बहन हसने लगे परन्तु निवृत्ति ने ज्ञानदेव कि ओर देखा, ज्ञानदेव आत्मलिन था, कुछ सोचकर वह बोला कोई बात नहीं मुक्ता तुम आटा गुथो। आज हम माड़े ही खाएंगे, पराजय को पूर्ण विजय बनाएंगे पर कैसे भैया? ज्ञानेशा ने कहा साधक की योग साधना के बल पर। जाओ तुम सारी तैयारी करके आटा मेरे पास ले आओ, गुरु ने आज्ञा की है तो माड़े खुद ब
खुद बनेंगे। गुरु की कृपा से मुक्ता ने वैसा ही किया अब ज्ञानेशा पालथी मारकर बैठ गया थोड़ा सा झुककर ओंधा हुआ और योगबल से गुरुदेव को प्रणाम किया और योगबल से उसने देह मे उष्णता पैदा की। देखते ही देखते उसकी पीठ तप्त हो गई ज्ञानेशा ने आव्हान किया मुक्ता त्वरित कर सारे माड़े सेंक लो,माड़े बनाने का क्रम आरंभ हुआ मुक्ता बेल बेल कर माड़े ज्ञानेशा की पीठ पर डाल देती है तुरंत ही योगाग्नि से सिक कर करारे हो जाते फिर मुक्ता उन्हें गुरुदेव को श्री निवृत्ति और सोपान की थाली मे परोस देती।
यह दृश्य आलौकिक था और साथ ही सांकेतिक भी। की साधक चाहे गुरु आज्ञा को पूर्ण करना तो प्रकती पूर्ण सहायता मे लग जाती है सब कुछ संभव हो सकता है यदि शिष्य गुरु आज्ञा की तत्परता मे लग जाय, अब तक विसोबाचाटी के गुप्तचर ने उन तक सूचना पहुंचा दी थी
विसोबाचाटी सिद्ध दीप की एक झाड़ी के पीछे बैठकर सारा दृश्य देख रहा था बालको को रोते बिलखते देखने का उनका अरमान धूमिल हो गया था पहले तो उनकी आंखे आश्चर्य से विस्वरित हुई फिर घोर पश्चाताप से नम। जो बात उन्हें बड़े बड़े शास्त्र नहीं समझा सकते थे वह इन साधकों की साधना ने समझा दिया, कुछ पलो बाद विसोबाचाटी
धराशाई थे, इन बालको की चरणधूलि मे लोट रहे थे यह साधकों की विजय दशमी थी जिसमे अहम, ईर्ष्या, द्वेष, भेदभाव आदि शत्रु पराजित हो गए थे उसे भी इन साधकों ने जीत लिया था यह होती है गुरु की कृपा और यह होती है साधक की साधना।