योगी की अजब अनोखी आज्ञा(जरूर पढ़े )

योगी की अजब अनोखी आज्ञा(जरूर पढ़े )


गुरू के प्रति सच्चे भक्तिभाव की कसौटी, आंतरिक शांति और उनके आदेशों का पालन करने की तत्परता में निहित है । गुरुकृपा से जिनको विवेक और वैराग्य प्राप्त हुआ है, उनको धन्यवाद है । वे सर्वोत्तम शांति और सनातन सुख का भोग करेंगे । यह चबूतरे ठीक नहीं बने, इसलिए इनको गिराकर दोबारा बनाओ ।

श्री गुरू अमरदास जी ने यह आज्ञा तीसरी बार दी, शिष्यों ने यह आज्ञा शिरोधार्य की । चबूतरे गिराए गए और एक बार फिर से बनाने आरम्भ कर दिए । इस प्रकार कई दिनों तक चबूतरे बनाने और गिराने का सिलसिला चलता रहा । हर बार गुरू महाराज जी आते और चबूतरों को नापसंद करके पुनः बनाने की आज्ञा दे जाते ।

पर आखिर कब तक, धीरे-2 सभी शिष्यों का धैर्य टूटने लगा । मन और बुद्धि गुरू आज्ञा के विरूद्ध तर्क-वितर्क बुनने लगे । ठीक तो बने हैं क्या खराबी है इनमें, ना जाने गुरुदेव को क्या हो गया है । व्यर्थ ही हमसे इतनी मेहनत करवा रहे हैं, सभी की भावना मंद पड़ने लगी । लेकिन इतने पर भी चबूतरे बनवाने, गिरवाने का क्रम नहीं रुका ।

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श्री गुरू अमरदास जी ने तो मानो परीक्षा रूपी छलनी लगा ही दी थी । जो कंकड़ थे वे सभी अपने आप छंटते चले गए, एक-2 करके इस सेवा से पीछे हटते चले गए । अंत में केवल एक ही खरा शिष्य रह गया, यह शिष्य थे श्री रामदास जी, सभी के जाने के बाद भी वे अकेले ही प्राणपन से सेवा कार्य में संलग्न रहे ।

पूरे उत्साह और लगन के साथ गुरू आज्ञा के अनुसार चबूतरे बनाते और गिराते रहे । ग्रंथाकार बताते हैं कि यह क्रम अनेकों बार चला, फिर भी रामदास जी तनिक भी विचलित नहीं हुए । अंततः श्री गुरू अमरदास जी ने उनसे पूछ ही लिया, रामदास ! सब यह काम छोड़ कर चले गए फिर तुम क्यूं अब तक इस कार्य में जुटे हुए हो ।

.श्री रामदास जी ने करबद्ध होकर विनय किया हे सच्चे बादशाह सेवक का धर्म है सेवा करना, अपने मालिक की आज्ञा का पालन करना फिर चाहे आप चबूतरे बनवाएं, चाहें गिरवाएं मेरे लिए तो दोनों ही सेवाएं हैं । शिष्य के इन भावों ने गुरू को इतना प्रसन्न किया कि उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया । अध्यात्मिक संपदा से माला-माल कर दिया, समय आने पर गुरू पद पर भी आसीन किया ।

केवल सिख इतिहास ही नहीं, हम चाहे गुरू-शिष्य परम्परा के किसी भी इतिहास को पलट कर देख लें, हमें असंख्य ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां गुरुओं ने अपने शिष्यों की बहुत प्रकार से परीक्षाएं ली । कभी-2 कबीरदास जी हाथ में मदिरा की बोतल लेकर बीच चौराहे मदमस्त झूमे, कभी निजामुद्दीन औलिया अपने शिष्यों को नीचे खड़ा कर स्वयं वैश्या के कोठे पर जा चढ़े ।

कभी स्वामी विरजानन्द जी ने दयानन्द जी को अकारण ही खूब डांटा फटकारा, यह सब क्या था । गुरुओं द्वारा अपने शिष्यों की ली गई परीक्षाएं ही थी, परंतु इन परीक्षाओं को लेने से पूर्व इन सभी गुरुओं ने अपने पूरे होने का प्रमाण शिष्यों को पहले ही दे दिया था । एक पूर्ण गुरू पहले अपने शिष्य को यह पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं कि वह उनकी गुरूता की परख करे ।

शास्त्र ग्रंथों में वर्णित कसौटी के आधार पर उनका परीक्षण करें और जब वे इस कसौटी पर खरे उतर जाएं तभी उन्हें गुरुरूप में स्वीकार करें । कहने का भाव है कि पहले गुरू अपने पूर्ण होने की परीक्षा देते हैं, तभी शिष्य की परीक्षा लेते हैं । इस क्रम में वे अपने शिष्य को अनेक परीक्षाओं के दौर से गुजारते हैं ।

कारण एक नहीं अनेक हैं सर्वप्रथम

*खरी कसौटी राम की कांचा टिके ना कोए* ।

गुरू खरी कसौटी के आधार पर शिष्य को परखते हैं कि कहीं मेरे शिष्य का शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है ठीक एक कुम्हार की तरह । जब कुम्हार कोई घड़ा बनाता है तो उसे बार-2 बजाकर भी देखता है टन-2 वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया, इसमें कोई खोट तो नहीं है ।

.ठीक इसी प्रकार गुरू भी अपने शिष्य को परीक्षाओं के द्वारा ठोक बजाकर देखते हैं । शिष्य के विश्वास,प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग को परखते हैं, वे देखते हैं कि शिष्य के इन भूषणों में कहीं कोई दूषण तो नहीं, कहीं अहम की हल्की सी भी कालिमा तो इसके चित्त पर नहीं छायी हुई । यह अपनी मनमति को विसार कर पूर्णतः समर्पित हो चुका है या नहीं ।

क्यूंकि जब तक सुवर्ण में मिट्टी का अंश मात्र भी है उससे आभूषण नहीं गढ़े जा सकते । मैले, दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता, उसी तरह जब तक शिष्यों में जरा सा भी अहम, स्वार्थ, अविश्वास या अन्य कोई दुर्गुण है तब तक वह अध्यात्म के शिखरों को नहीं छू सकता । उसकी जीवन रूपी सरिता परमात्म रूपी सागर में नहीं समा सकती ।

यही कारण है कि गुरू समय-2 पर शिष्यों की परीक्षाएं लेते हैं । कठोर ना होते हुए भी कठोर दिखने की लीलाएं करते हैं । कभी हमें कठिन आज्ञाएं देते हैं तो कभी हमारे आस पास प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा करते हैं क्यूंकि अनुकूल परिस्थितियों में तो हर कोई शिष्य होने का दावा करता है ।

.जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है,तो हर कोई गुरू चरणों में श्रद्धा और विश्वास के फूल अर्पित करता है । सभी शिष्यों को लगता है कि उन्हें गुरू से विशेष स्नेह है ।

*झंडा गडियो प्रेम का चहुं दिश पीयू-2 होय

ना जाने इस झुंड में कोन सुहागिन होय* ।

प्रत्येक शिष्य अपने प्रेम का झंडा गाड़ता है, पर किसे पता है प्रेमियों के इस काफिले में कौन मंजिल तक पहुंच पाएगा ।

कौन सच्चा प्रेमी है इसकी पहचान तो विकट परिस्थितियों में ही होती है क्यूंकि जरा सी विरोधी व प्रतिकूल परिस्थितियां अाई नहीं कि हमारा सारा स्नेह, श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है, शिष्यत्व डगमगाने लगता है जब श्री गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी पर कसा तो हजारों के झुंड में से पांच प्यारे ही निकले ।

जब लैला के देश में मजनू को मुफ्त में चीजें मिलने लगी थी तो एक लैला के कई मजनू पैदा हो गए थे, परन्तु जब लैला ने मजनू के जिगर का एक प्याला खून मांगा तो सभी नाम के मजनू फरार हो गए, केवल असली मजनू रह गया ।

स्वामी जी यदि आप खबर कर देते तो हम अवश्य ही आपकी सेवा में हाजिर हो गए होते फिर मजाल है कि आपको आनंदपुर छोड़ना पड़ जाता ।

आप एक बार हमें याद करते तो सही, यह गर्वीले शब्द थे भाई डल्ला के । श्री गुरू गोबिंदसिंह जी ने भाई डल्ला को नजर भर कर देखा, मुस्कुराए और कहा अच्छा भाई डल्ला जरा अपने किसी सिपाही को सामने तो खड़ा करना । आज ही नई बंदूक अाई है इसे मैं आजमाना चाहता हूं, गुरू ने बन्दूक को क्या आजमाना था, आजमाना तो था भाई डल्ला को ।

डल्ला ने यह सुना नहीं कि उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई, तभी श्री गुरुगोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को बुलावा भेजा, दोनों सरपट दौड़ते आए । इन्हें भी वही आज्ञा सुनाई गई, दोनों एक दूसरे को पीछे करते हुए कहने लगे महाराज निशाना मुझ पर आजमाइए । दूसरा कहता नहीं महाराज मुझ पर आजमाइए ।

श्रीगुरू गोविंद सिंह जी ने दोनों को आगे पीछे खड़ा करके बन्दूक की गोली उनके सिर के पीछे उपर से निकाल दी । गुरू को मारना किसे था केवल परीक्षा लेनी थी इसलिए सच्चा शिष्य तो वही है जो गुरू की कठिन से कठिन आज्ञा को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है चाहे कोई भी परिस्थिति हो, उसका विश्वास व प्रीति गुरू चरणों में अडिग रहती है ।

सच, शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए । वह विश्वास, विश्वास नहीं जो जरा से विरोध की आंधियों में डगमगा जाए । गुरू की परिस्थितियों को देखकर वह उन्हें त्याग जाए । गुरू की परीक्षाओं के साथ एक और महत्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है वह यह है कि परीक्षाएं शिष्य को केवल परखने के लिए नहीं होती हैं, निखारने के लिए होती हैं ।

तभी कबीर दास जी ने कहा कि जहां यहां

*खरी कसौटी राम की, कांचा टिके ना कोय ।*

वहीं एक अन्य साखी में यह भी कह दिया

*खरी कसौटी तौलता,* *निकसी गई सब खोंट।*

अर्थात गुरू की परीक्षा एक ऐसी कसनी कसौटी है जो साधक के सभी दोष, दुर्गुणों को दूर कर देती है । परीक्षाओं की अग्नि में तप कर ही एक शिष्य कुंदन बन पाता है ।

बुल्लेशाह इसी अग्नि में तपकर साईं बुल्लेशाह बने, उनके गुरू शाह इनायत ने उन्हें इतने इम्तिहानों के दौर से गुजारा । एक समय तो ऐसा भी आया जब उन्हें प्रताड़ित कर आश्रम तक से बाहर निकाल दिया गया, उनके प्रति नितांत रूखे व हृदय हीन हो गए । बहुत समय तक उन्हें अपने दर्शन से भी वंचित रखा,

परन्तु यहां हम सब यह याद रखें कि बाहर से गुरू चाहे कितने भी कठोर प्रतीत होते हैं किन्तु भीतर से उनके समान प्रेम करने वाला दुनिया में और कोई कहीं नहीं मिलेगा । उनके जैसा शिष्य का हित चाहने वाला और कोई नहीं । वे यदि हमें डांटते, ताड़ते भी हैं तो हमारे ही कल्याण के लिए, चोट भी मारते हैं तो हमें निखारने के लिए ।

यही उद्देश्य छिपा था शाह इनायत के रूखेपन में, वे अपने शिष्य का निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने बुल्लेशाह को वियोग वेदना की प्रचंड अग्नि में तपाया । जब देखा कि इस अग्नि परीक्षा में तपकर शिष्य कुंदन बन चुका है तब वे उस पर पुनः प्रसन्न हो गए, ममतामय, प्रेम भरे स्वर में उसे बुल्ला कह कर पुकारा ।

बुल्ला भी गुरू चरणों में गिर कर खूब रोया और बोला हे मुर्शीद ! मैं बुल्ला नहीं भुल्ला हूं । मुझसे भूल हुई थी जो मैं आपकी नज़रें इनायत के काबिल ना रहा । साईं इनायत ने उसे गले से लगाकर कहा नहीं बुल्ले तुझसे कोई भूल नहीं हुई । यह तो मैं तेरी परीक्षा ले रहा था, तुझे इन कटु अनुभवों से गुजारना आवश्यक था ताकि तुझमें कहीं कोई खोट ना रह जाए,

कल को कोई विकार या सैयद होने का अहम तुझे भक्ति-पथ से डिगा ना दे और तू खुदा के साथ ईकमिक हो पाए । स्वामी रामतीर्थ जी प्रायः फ़रमाया करते थे कि यदि प्यारे के केशों को छूने की इच्छा हो तो पहले अपने को लकड़ी की भांति उसके आरे के नीचे रख दो जिससे चीर-2 कर वह तुमको कंघी बना दे ।

कहने का भाव है कि गुरू की परीक्षाएं शिष्य के हित के लिए ही होती हैं । परीक्षाओं के कठिन दौर बहुत कुछ सीखा जाते हैं, याद रखें सबसे तेज़ आंच में तपने वाला लोहा ही सबसे बढ़िया इस्पात बनता है । इसलिए एक शिष्य के हृदय में सदैव यही प्रार्थना के स्वर गूंजने चाहिए कि हे गुरुदेव ! मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि आपकी कसौटियों पर खरा उतर सकूं, आपकी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो सकूं परन्तु आप अपनी कृपा का हाथ सदैव मेरे मस्तक पर रखना,

मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति में इस मार्ग पर अडिग होकर चल पाऊं । मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञायों को भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य कर सकूं । आपके चरणों में मेरा यह विश्वास अटल रहे कि आपकी हर करनी मेरे परम हित के लिए ही है,

मैं गुरू का गुरू मेरे रक्षक यह भरोसा नहीं जाए कभी जो करिहे हैं सो मेरे हित्त यह निश्चय नहीं जाए कभी ।

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