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शीघ्र उन्नति के लिए…. पूज्य बापू जी


कर्म में जब ईश्वर आने लग जाय, ईश्वर के निमित्त कर्म होने लगे तो वह कर्म धर्म हो जाता है । ईश्वर के निमित्त आप चलते हैं, ईश्वर को पाने के निमित्त आप स्वस्थ रहते हैं और भोजन करते हैं तो धर्म हो जाता है । ईश्वर की प्राप्ति के लिए आप रोते हैं, ईश्वर को प्यार करते-करते आप हँसते हैं, ईश्वर में विश्रांति पाने के लिए आँखें मूँद के आप बैठ जाते हैं तो धर्म हो जाता है । ईश्वरप्राप्ति के लिए गुरु से मंत्र लेते हैं, जपते हैं, दूसरे को मंत्र दिलाते हैं तो धर्म हो जाता है । दूसरे की ईश्वरप्राप्ति के रास्ते श्रद्धा को बढ़ाते हैं तो धर्म हो जाता है और श्रद्धा तोड़ते हैं तो अधर्म हो जाता है ।

कबिरा निंदक ना मिलो पापी मिलो हजार ।

एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार ।।

निंदक बोलता है तो कर्म तो है लेकिन लाख पापियों का बोझा चढ़ता है उस पर । और साधक, सत्शिष्य या संत बोलते हैं तो लाखों पाप-तों को निवृत्त करने वाली वाणी हो जाती है, उनका वह कर्म धर्म हो जाता है । ऐसा ही बोलो जिस बोलने से भगवद्-तत्त्व का ज्ञान बिखरे, भगवान में प्रीति जगह, भगवान को जानने के लिए आपके मन में एक तूफान उठे । संत कबीर जी, भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराम जी, मेरे सद्गुरु साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज बोलते हैं तो ऐसा ही बोलते हैं ।

धर्म-पालन के प्रति लापरवाही करते हैं इसलिए उन्नति नहीं होती । शीघ्र उन्नति के लिए धर्म का पालन करो । विश्वात्मा परमेश्वर को अपने हृदय में धारण करना और कष्ट सहकर भी अपना कर्तव्य पालना-इसी का नाम धर्म है । हम भाग्यशाली हैं कि जिस परम्परा में हमारा जन्म हुआ है वहाँ धर्म व्यवहार में भी प्रत्यक्ष दर्शन दे रहा है । सनातन संस्कृति की व्याख्या हित की प्रधानता से होती है । यह मनुष्यमात्र की संस्कृति है । मनुष्य जिस-किसी वर्ग में हो, समाज में हो, देश में हो, व्यवसाय में हो, इसका अनुसरण करने से उसकी वासना नियंत्रित होगी । वैदिक धर्म वासना को नियंत्रित करके उपासना में चार चाँद लगा देता है और उपासना अपने अंदर छुपे हुए परम सत्य को प्रकट कर देती है ।

वैशेषिक दर्शन के अनुसारः यतोऽभ्युद्यनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः । ‘जिससे अभ्युदय (उत्थान) कल्याण (मोक्ष) की सिद्धि हो वही धर्म है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 2 अंक 324

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समर्थ गुरु व चतुर शिष्य की कथा आपको विवेकी बना देगी


अज्ञान का नाश करने वाले तथा ज्ञान देने वाले सतगुरु के चरण कमलों मे कोटि कोटि प्रणाम। समदर्शी संत महात्मा और गुरु के सत्संग का एक भी मौका चूकना नहीं। अपने स्थूल मन के कहे अनुसार कभी चलना नहीं। अपने गुरु के वचनों का अनुसरण कर उच्च आत्माओं एवम् गुरु के स्मरण मात्र से सांसारिक मनुष्य की नास्तिक वृत्तियों का नाश होता है और अंतिम मुक्ति हेतु प्रयास करने के लिए प्रेरणा मिलती है तो फिर गुरु सेवा की महिमा का तो पूछना ही क्या।

अहम भाव का नाश करने से शिष्यत्व की शुरुवात होती है।शिष्यत्व की कुंजी है ब्रह्मचर्य और गुरु सेवा। गुरु ज्ञान देने से पहले कभी कभी शिष्य की परीक्षा लेते है ताकि यह पता चले की उसकी पात्रता कितनी है, शिष्य को अपने गुरु की कसौटी पर खरा उतरना ही पड़ता है। तभी वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

एक दिन अचानक एक शिष्य अपनी मनोकामना लेकर अपने गुरुदेव के पास पहुंचा, उसने नतमस्तक होकर गुरुदेव को प्रणाम किया और उनसे प्रार्थना करने लगा भगवन मेरी प्रार्थना स्वीकर कीजिए। गुरु ने कहा क्या चाहते हो? प्रभु मैं चाहता हूं कि मेरे सभी प्रियजन हमेशा प्रसन्न और स्वस्थ रहे। शिष्य की प्रार्थना सुनकर गुरुदेव मन ही मन मुस्कराए। उन्होंने सोचा कि शिष्य की प्रार्थना पूरी करने के लिए पहले इसे थोड़ा परखा जाए। तुम्हारे सभी प्रियजन हमेशा स्वस्थ और खुश रहे यह संभव नहीं तुम कोई भी चार दिन चुन लो और मुझे बताओ उस समय वे स्वस्थ और खुश रहेंगे। शिष्य ने थोड़ा सोचा और कहा अगर ऐसा है तो बसंत, ग्रीष्म, शिशिर और हेमंत इन चारो ऋतुओं मे वे खुश रहे।

गुरुदेव शिष्य की समझदारी से खुश हुए। उन्होंने आगे कहा कि यदि तुम्हे तीन दिन चुनने हो तो तुम कौन से तीन दिन चुनोगे? इस बार शिष्य ने फिर चतुराई से जवाब दिया। मैं आज, कल और अगला दिन चुनूँगा । गुरुदेव उसकी चतुराई पर हँसते हुए बोले तब तो तुम केवल दो दिन को ही चुनो और बताओ। अब शिष्य अधिक सतर्क होकर बोला यदि ऐसा ही है तो मे शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष का चुनाव करना चाहूंगा। गुरु सवाल पूछ पूछ कर उसकी समझ और सजगता की परीक्षा लिए जा रहे थे और शिष्य भी अधिक सतर्कता से जवाब दिए जा रहा था अबकी बार गुरुदेव ने कहा यदि तुम्हे एक ही दिन का चुनाव करना हो तो कौन सा दिन चुनोगे? शिष्य ने तुरंत ही जवाब दिया गुरुदेव वर्तमान दिन। शिष्य की सतर्कता देखकर गुरुदेव प्रसन्न हुए, मुस्कराए और उसे कहा कि अपने सभी प्रियजनों को कह दो कि वे सत्संग नित्य करे रोज करे इससे इनका वर्तमान सुधर जाएगा और वर्तमान सुधर गया तो भविष्य भी सुधर जाएगा वे भविष्य मे सुखी और सदैव प्रसन्न रहेंगे, स्वस्थ रहेंगे। वर्तमान मे ही आनंद है भूत और भविष्य मे गोते लगाकर वर्तमान के क्षण भी खो देता है हर इंसान वर्तमान मे जी सकता है लेकिन जीता नहीं है आधे लोग तो अतीत को याद करते रहते है कि हमारे साथ ऐसा हुआ उसने हमारे साथ ऐसा किया, उनका पूरा जीवन या तो अतीत की सुनहरी यादों मे खोया रहता है या फिर अतीत की बूरी बातो पर अफसोस करता है। पश्चाताप और ग्लानि, अफसोस मे वे अपने सारे वर्तमान, अमूल्य वर्तमान पल बरबाद कर लेते है। लोग अपने दुखो का उपाय भविष्य मे ढूंढ़ते है उसे इस बात का ज्ञान नहीं कि सुंदर भविष्य का निर्माण वर्तमान मे हो सकता है कुछ लोग शेख चिल्ली की तरह भविष्य की कल्पनाओं मे लोट पलोट लगाते रहते है जिससे उनके वर्तमान का समय भी निकल जाता है जिस काम को आज करना था वह छूट जाता है।

इस तरह ये लोग बड़ी मुसीबत, निराशा और तनाव मे फंस जाते है। साधक को भूतकाल और भविष्य काल दोनों से मुक्त होना है, साधना ऐसी हो जो अतीत है वह भी कभी वर्तमान पल था, और जो भविष्य है वह भी कभी वर्तमान पल ही होगा । इस तरह हे साधक देखो ! न तो कोई अतीत है और न कोई भविष्य है सेवा, साधना, सत्संग, सुमिरन से वर्तमान पल को संवारो। उज्ज्वल भविष्य वर्तमान के क्षणो मे है। वर्तमान मे जो भी हो रहा है अच्छा,बुरा जो भी लग रहा है वह वर्तमान की सच्चाई है।उसका दृष्टा बन जाओ। वर्तमान जिंदा है, अभी है, यही है और चैतन्य है। इसमे जीना सीखो,वर्तमान मे जीने से बेहोशी टूट जाएगी,वर्तमान स्वीकार करो। समस्याओ से ना घबराओ, वर्तमान सुधरा तो भविष्य सुनहरा है ।

प्रसंग काफी पुराना है जब बापूजी लाडोल गांव गए थे


गुरू कृपा से ही मनुष्य को जीवन का सच्चा उद्देश्य समझ में आता है और आत्म-साक्षात्कार करने की प्रबल अकांक्षा उत्पन्न होती है । शिष्य के हृदय के तमाम दुर्गुण रूपी रोग पर गुरू कृपा सबसे अधिक असर-कारक, प्रतिरोधक एवम् सार्वात्रिक औषध है ।

यदि कोई मनुष्य गुरू के साथ अखंड और अच्छिन्न संबंध बांध ले तो जितनी सरलता से एक घट में से दूसरे घट में पानी बहता है उतनी ही सरलता से गुरू कृपा बहने लगती है । पूज्य बापूजी के जीवन के प्रेरक प्रसंग गुजरात के महसाना जिले के लाड़ोल गांव की कमला बहन पटेल सन 1978 से पूज्य बापूजी का सत्संग, सानिध्य पाती रहीं हैं।

उनके द्वारा बताये गए बापूजी के कुछ मधुमय प्रसंग………………. कमला बहन कहती हैं कि मैं उंझा में शासकीय शिक्षिका थी, मेरी सहेली बापूजी से दीक्षित थी, उसने मुझे आश्रम की पुस्तिका दी, उसे पढ़कर मुझे बहुत शांति व आनंद मिला और बापूजी के दर्शन की इच्छा हुई ।

सन 1978 में मैं पहली बार बापूजी का सत्संग सुनने अहमदाबाद आश्रम अाई फिर तो ऐसा रंग लगा कि मैं हर रविवार को आने लगी और 1979 के उत्तरायण शिविर में मुझे मंत्रदीक्षा लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।

1980 के चेटीचंड शिविर में गांव के कई लोगों के साथ मैं अपने पिता जी को भी लेकर मंत्रदीक्षा दिलाने के लिए अहमदाबाद आश्रम अाई थी । लोगों ने बताया कि बापू जी सत्संग मंडप में हैं तो हम लोग सीधे वहीं पहुंचे । उस समय सत्संग मंडप में कूलर लगाने की व्यवस्था हो रही थी,

बापूजी बाहर आये, सबको नजदीक से दर्शन देते हुए मेरे पिताजी के पास आये तो उनको कुछ तेज आवाज में बोले काका दूर खिसको ! तुम लोगों के लिए ही सब व्यवस्था हो रही है । बापूजी ने अपनी मौज में ऐसा कहा परन्तु मेरे पिताजी को बुरा लग गया ।

मेरे पास आकर बोले नदी में नहाने जाना है तौलिया दो, दोपहर के दो ढाई बजे थे मैंने मना किया परन्तु वे नहीं माने । मन ही मन मैंने प्रार्थना की बापूजी मेरे पिताजी मंत्रदीक्षा के लिए आये हैं कितने जन्मों के बाद यह घड़ी अाई है इसलिए कृपा करना ।

करुणा-वत्सल गुरुदेव ने मेरी प्रार्थना सुन ली, नदी में स्नान करके पिताजी आये तो बहुत आंनद में थे उन्होंने बताया कि बापूजी नदी में आये थे । हमने कहा बापूजी तो इधर ही मंडप में थे, नदी में तो गये ही नहीं ! नहीं बापूजी आये थे, मैं स्नान करने के लिए नदी में गया तो मेरे सामने बापूजी आ गये ।

बापूजी ने कहा तुम्हारे मगज में जो कचरा भरा है वह नदी में डाल दो, तो मैंने कहा बापूजी मुझ पर दया करना फिर पूज्य श्री वहां से चले आये तो इस प्रकार से बापूजी भक्तों का भला करने के लिए क्या-क्या लीलायें करते हैं । बापूजी एक बार लाडोल गांव में आये तो मेरे पिताजी को जंगल घूमने साथ में ले गये ।

मेरे पिताजी बीड़ी पीते थे तो बापूजी ने पूछा काका बीड़ी पीते हो, पिताजी ने कहा हां बापूजी ! तो अब बंद कर दो, जी बापूजी अब नहीं पीऊंगा । बीड़ी बंद करने के कुछ दिनों बाद ठंड का समय था खेत में जाते समय पिताजी दो बीड़ी साथ में ले गये, परन्तु उनके मन में खटक थी,

कि बापूजी ने मना किया है फिर भी मैं बीड़ी पी रहा हूं । पीने के लिए जैसे ही बीड़ी मुंह पर रखी तो वैसे ही बापूजी के वचन गूंजने लगे, उन्हें बड़ी गलानि हुई और उन्होंने वह बीड़ी फेंक दी, साथ ही दूसरी भी फेंक दी । मन में विचार करने लगे कि आज तो मैं पुनः बीड़ी की लत में फंसने जा रहा था, परंतु बापूजी की प्रेरणा से बच गया । वे बापूजी के प्रति अहोभाव से भर गए और आंखों में आसूं भरकर बापूजी से मन ही मन प्रार्थना करने लगे । बापूजी मेरी बीड़ी छुड़ाने के लिए आपको कितना ख्याल रखना पड़ा और मैं कितना मूर्ख हूं कि आज्ञा पालन करने में इतना ढीला हो गया ।

फिर कभी भी उन्होंने बीड़ी नहीं पी, उसके बाद उनकी तबीयत भी बहुत अच्छी रही । हम पहली बार बापूजी के दर्शन करने आश्रम आये थे तो बापूजी ने कहा था कि हम तुम्हारे गांव आयेंगे । बापूजी ने हमारे लाडोल गांव में पहला सत्संग एक दिन का दिया था,

दूसरी बार शिविर था तो आस-पास के कई घरों में अपने श्रीचरण घुमाये । मेरे घर में पधारे तो पानी की मटकी उठाकर पानी छिड़कने लगे, बाद में मैंने लोटे में पानी दिया तो बापूजी ने अपने करकमलों से पानी छिड़का, सबको प्रसाद दिया और अपने श्रीचरणों से मेरे घर को पावन किया ।

फिर घर के बाहर एक स्कूटर खड़ा था तो बापूजी उस पर बैठ गये और जैसे कृष्ण भगवान गली-गली में घूमते थे वैसे दो मोहल्लों में स्कूटर लेकर घूमने लगे । रास्ते में स्कूटर कहीं पर भी खड़ा कर देते और किसी के भी घर में बिना बुलाये पहुंच जाते ।

कोई बुलाये तो उनके घर नहीं जाते, उनको प्रसाद देकर दूसरे के घर चले जाते और उन्हें भी प्रसाद देते । बापूजी की इस लीला ने मोहल्ले के सारे लोगों को आनंदित व आलहादित कर दिया । कृष्ण भाई चौधरी जो गुजरात सरकार में मंत्री थे, उनके गांव में बापूजी सत्संग करने कई बार जाते थे ।

एक बार वहां गए तो जंगल में घूमने गए, वहां एक वृद्ध माताजी थी । उनका बापूजी के प्रति बहुत प्रेम था परन्तु वह बहुत गरीब थी और झोंपड़ी में रहती थी । वे बापूजी के पास ना आ सकीं तो बापूजी स्वयं उनकी झोंपड़ी में पहुंच गये ।

वे माता जी पूज्य श्री को देखते ही चहक उठीं और बापू-बापू करते हुए भाव विभोर हो गईं । बापूजी ने कहा माताजी मुझे खाने को दो, माताजी ने बाजरे की मोटी-मोटी रोटी और गंवार फली की सब्जी बनाई थी । जैसे शबरी ने बड़े प्रेम से रामजी को जूठे बेर खिलाए थे,  उसी प्रकार बड़े प्रेम से व प्रसन्नता से उन्होंने बापूजी को बाजरे की रोटी व गंवार की सब्जी दी । बापूजी को बोरे का आसन दिया, उनकी झोंपड़ी में और कुछ तो था नहीं, उनका प्रेम शबरी जैसा था । बाजरे की रोटी और गंवार की सब्जी खाकर बापूजी ने कहा आज भोजन में बहुत आंनद आया, खाने के लिए इतना अच्छा जो मिला । माताजी की आंखों से प्रेमाश्रु की धारा बहने लगी, वे गदगद हो गईं । बाद में कृष्ण भाई चौधरी पूज्य श्री के आगे रोने लगे, बापूजी ने पूछा ऐसे क्यूं करते हो । बापूजी हम आपके लिए घर से कितने टिफिन लाते हैं, मगर आप कभी नहीं खाते और माताजी का आपने खाया तो हमारे प्यार में कमी होगी इसलिए हमारा कभी नहीं लिया । पूज्य श्री ने कहा कि हम तो सभी जीवों का कल्याण चाहते हैं वे तो माताजी थीं दूसरे किसी जीव का भी यदि कल्याण होने वाला हो तो वह हो जाता है, मैं कुछ नहीं करता ।