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सेवा कैसी हो ?


श्री जयदयाल गोयंदकाजी अपने प्रवचन में एक कथा बताते थेः

एक स्त्री अपनी पड़ोसन के यहाँ गयी तो उस समय वह धान कूट रही थी । इसी बीच उसके पति ने बाहर से आवाज दीः “दरवाजा खोलो ।”

वह तुरंत मूसल को हाथ से ऊपर ही छोड़कर दरवाजा खोलने दौड़ी । मूसल ऊपर निराधार ही स्थिर हो गया । इस स्त्री ने देखा कि “यह तो बड़ा चमत्कार है, जादू है !”

उसने पूछाः “बहन ! बता तो सही, मूसल ऊपर कैसे टिका ।”

“यह पति सेवा (पातिव्रत्य) का फल है ।”

“अच्छा, मुझे भी बताओ कि तुम सेवा किस प्रकार करती हो ?”

“सुबह पतिदेव के उठने के पूर्व उठती हूँ । फिर उन्हें जगाती हूँ । वे शौच जाते हैं तो मैं उनके स्नान का प्रबंध करती हूँ । पूजा के कक्ष में उनके आने से पहले साफ-सफाई करके धूप-दीप जलाती हूँ, सुगंधित फूल रखती हूँ । उनके लिए भोजन तैयार करती हूँ । जब वे कुछ खाकर बाहर जाते हैं तब मैं मन-ही-मन भगवन्नाम जप करते हुए धान कूटती हूँ । इसी प्रकार अन्य-अन्य सेवाओं में भी लगी रहती हूँ ।”

पड़ोसन की दिनचर्या समझकर वह स्त्री अपने पति की सेवा करने का निश्चय करके घर आ गयी । उसके पति को दमे की बीमारी थी । पति के मना करने पर भी उसने पति को सुबह जल्दी उठाकर शौच के लिए भेजा व ठंडे पानी से स्नान कराया । बिना भूख के ही उन्हें भोजन कराया । पति के खूब मना करने पर भी उसने उनकी एक न सुनी ।

फिर जबरन पति को बाहर भेजा और खुद धान कूटने बैठ गयी । कुछ देर बाद पति ने वापस आकर आवाज दी । वह हाथ का मूसल उसी स्थिति में छोड़कर जाने लगी तो मूसल उसके हाथ पर गिरा और हाथ टूट गया ।

अब वह चीखती, चिल्लाती हुई पड़ोसन के घर पहुँची और बोलीः “जैसा तूने कहा वैसा सब मैंने किया पर मेरे हाथ का मूसल छोड़ने पर वह स्थिर नहीं रहा, उलटा मेरे दूसरे हाथ पर गिरा और हाथ टूट गया !”

पड़ोसन ने समझायाः “बहन ! क्या यह सेवा हुई ? तुम्हारे पति जिस बात से प्रसन्न हों, जो कार्य धर्म-सम्मत हो, जिसमें उनका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक हित हो वह कार्य सेवा है ।”

पूज्य बापू जी के सत्संग में आत हैः “रूचिपूर्ति सेवा नहीं है, तुम्हारी वासना है । जो तुमको अच्छा लगता है वह तुम करते हो तो इसका नाम  सेवा नहीं है, इसका नाम कपट है । ईश्वर की प्राप्ति में जो सहायक है, वह करते हो तो सेवा है । अपनी वासना मिटाने के लिए जो करते हो, वह सेवा है ।

पतिव्रता स्त्री का सामर्थ्य क्यों बढ़ता है ? क्योंकि उसकी अपनी कोई इच्छ नहीं होती । पति की इच्छा में उसने अपनी इच्छा मिला दी । सत्शिष्य का सामर्थ्य क्यों बढ़ता है ? सत्शिष्य को ज्ञान क्यों अपने-आप स्फुरित हो जाता है ? क्योंकि सद्गुरु की इच्छा में वह अपनी इच्छा मिला देता है । अगर पति अहोभाव में है तो पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिलायी जाती है और भगवान तथा गुरु अहोभाव में है तो अपनी इच्छा और वासना भगवान और गुरु के चरणों में अर्पित कर दी जाती है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 20, अंक 324

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सुख-दुःख ईश्वर ने बनाया कि जीव ने ? – पूज्य बापू जी


हम सुख के निमित्त विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हैं परंतु देवी और देवता परमात्म-तत्त्व की सत्ता से ही शक्ति लेकर हमको वरदान देते हैं और वह तत्त्व तो हम स्वयं हैं । दूसरों का सहारा हम क्यों लेते हैं ? उस आत्मतत्त्व का हम साक्षात्कार करें । यदि हम बहिर्मुखी बनकर प्रकृति की चीजों में सुख ढूँढेंगे तो हमारी स्थिति उस हिरण की तरह हो जायेगी जिसकी नाभि में ही कस्तूरी होती है और वह उसकी सुगंध के लिए बाहर भागदौड़ करता रहता है-

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढे बन माहिं ।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं ।।

ईश्वर सृष्टि में सुख-दुःख नहीं है । जीव-सृष्टि ही सुख-दुःख का निर्माण करती है । प्रकृति की घटनाओं में जैसा आपका भाव होगा, जैसी आप वृत्ति बनायेंगे, जैसा आप संकल्प करेंगे वैसा ही आपको सुख-दुःख या शुभ-अशुभ महसूस होगा ।

समझो, दो लड़के विदेश में कहीं कमाने जाते हैं । एक की कुछ दिन बाद मृत्यु हो जाती है और दूसरा धन कमाता है । अब कोई विदेश से उन लड़कों के पिताओं को दो अलग-अलग पत्र लिखे कि ‘आपका लड़का मर गया है’ और ‘आपका लड़का खूब धन कमा रहा है ।’ संयोग से यदि वे पत्र बदलकर दोनों पिताओं को मिलें तो कल्पना करो क्या होगा । जिसका पुत्र मर गया है वह तो समझेगा कि ‘मेरा पुत्र खूब कमा रहा है’ और बहुत प्रसन्न होगा । वास्तव में उसे दुःखी होना चाहिए क्योंकि उसका तो पुत्र मर चुका है । दूसरी ओर जिसका पुत्र वास्तव में नहीं मरा वह पिता पत्र बदलने के कारण अपने पुत्र को मरा जानकर रोने-पीटने लग जायेगा । उसे बहुत दुःख होगा जबकि उसे बहुत प्रसन्न होना चाहिए । यानि सुख अथवा दुःख पुत्रों के मरने या न मरने या कमाने से नहीं हुआ अपितु उन पिताओं के भावों के कारण हआ । जैसी उनको अपने पुत्रों सूचना मिली उसके अनुसार हो गया सुख-दुःख ।

यानी सुख-दुःख मरने की घटना में निहित नहीं है । अपने पुत्रौं के प्रति पिताओं ने जो अपना कल्पित संसार बनाया है, उसमें जब वे चोट महसूस करते हैं तब उनको दुःख होता है । अतः मुक्त होकर संसार में रहना चाहिए । हम आत्मा हैं । हम साक्षीस्वरूप हैं । प्रकृति की घटनाओं से अपने अंतर को मत चलित होने दो । व्यवहार करो पर निर्लेप होकर । जो कुछ दिख रहा है सब मिथ्या है । यह सब गुजर जायेगा । पहले जो कुछ हुआ वह सपना बन गया । वर्तमान में जो हो रहा है वह भी सपना बन जायेगा । भविष्य में जो होगा वह भी सपना बन जायेगा । सपने में कितने ही महल बने, कितने ही हाथी-घोड़े बने, कितने ही नगर व बाजार बने परंतु जब सपना टूटा तो सब बेकार । वैसे ही इस जगत को स्वप्नवत् जानो । फिर इसकी घटनाओं से अपने को हम सुखी-दुःखी क्यों करें ? तटस्थ रहकर हर्ष-शोक से ऊपर रह के व्यवहार करते रहें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 4, अंक 324

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तुलसी से ढेरों लाभ उठायें, ‘तुलसी पूजन दिवस’ मनायें


(तुलसी पूजन दिवस – 25 दिसम्बर)

तुलसी मानव-जीवन की रक्षक व पोषक है । यह स्वास्थ्य, लौकिक, अलौकिक व आध्यात्मिक – सभी दृष्टियों से उपयोगी है । तुलसी जी का पूजन, सेवन व रोपण करने से अनेक प्रकार के लाभ मिलते हैं । दैवी भागवत में भगवान विष्णु ने तुलसी को सर्वपूज्या होने का वरदान दिया है ।

तुलसी गंदी वायु को शुद्ध कर पर्यावरण-सुरक्षा में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इसीलिए कहा गया हैः

पवित्र पौधा तुलसी का, अगणित गुण इसमें भरे ।

रोगों का करता उपचार, वायु-प्रदूषण दूर करे ।।

तुलसी पूजन का शास्त्रोक्त कारण

‘जो मनुष्य तुलसी के पौधे को भक्तिपूर्वक रोपता है वह मरने के बाद परम मोक्ष को प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है । जो तुलसी वृक्ष को भक्तिसहित प्रणाम करता है उसके आयु, बल, यश, धन और संतान की वृद्धि होती है । जो मनुष्य तुलसी की दूर्वा, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य से पूजा करता है वह विष्णु पूजन का फल पाता है ।’

(पद्म पुराण, क्रिया खंडः 24.22,24,29)

‘तुलसी का वृक्ष लगाने, पालन करने, सींचने तथा उसका ध्यान, स्पर्श और गुणगान करने से मनुष्यं के पूर्वजन्मार्जित पाप जलकर विनष्ट हो जाते हैं ।

(गरुड़ पुराण, धर्म कांड-प्रेत कल्पः 38.11)

भगवान नारायण देवर्षि नारद जी को कहते हैं-

श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा’ ।

जो इस कल्पवृक्षरूपी मंत्रराज से विधिपूर्वक तुलसी की पूजा करता है, वह निश्चित रूप से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है ।’

(श्रीमद् देवी भागवतः (9.25. 10-11)

तुलसी की महिमा को समझो !

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता है कि ‘जिस घर में बीमारियों का भय हो वहाँ तुलसी के पौधे लगा दो । सुबह तुलसी के दर्शन करो, तुलसी के सूर्योदय के समय प्राणायाम करो तो दमा-वमा दूर रहेगा, निरोगता आ जायेगी ।

जो व्यक्ति तुलसी के 5-7 पत्ते सुबह चबाकर पानी पीता है उसकी यादशक्ति बढ़ती है, ब्रह्मचर्य मजबूत होता है और जलोदर, भगंदर कभी नहीं होता है । 800 बीमारियाँ जिनका उपचार हम नहीं जानते उन पर भी तुलसी का बहुत असर होता है, जैसे – पेट की खराबी, कैंसर या कोई अन्य खतरनाक बीमारी आदि ।

आप लोग इस पवित्र पौधे का आदर नहीं करते हैं । तुलसी तो माता है । एक-एक घर में तुलसी के 1-2 पौधे तो होने ही चाहिए । अभी विज्ञानियों ने प्रयोग किया कि एक मुर्दे के इर्द-गिर्द तुलसी के गमले रख दिये गये, 4 दिन तक मुर्दे में कोई फर्क नहीं पड़ा । नहीं तो मुर्दा तो बिल्कुल फूल जाता है । दूसरी दवाएँ कीटाणु नष्ट करती हैं लेकिन तुलसी की हवा तो कीटाणु पैदा ही नहीं होने देती है ।”

रोज पायें एक लाख अश्वमेध यज्ञों का पुण्य

तुलसी के पत्तों को जल में डालने से जल सुगंधित व तुलसी के समान गुणकारी हो जाता है । यदि पानी में उचित मात्रा में तुलसी पत्ते डालकर शुद्ध किया जाय तो उसके सारे दोष समाप्त हो जाते हैं । यह पानी शरीर को पुष्ट बनाता है तथा मुख का तेज, शरीर का बल एवं मेधा व स्मरण शक्ति बढ़ाता है ।

श्रीमद् देवी भागवत (9.24.43) में आता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिपूर्वक तुलसी का जल ग्रहण करता है वह एक लाख अश्वमेध यज्ञों से होने वाला पुण्य प्राप्त कर लेता है ।’

तुलसी पूजन दिवस व विश्वगुरु भारत कार्यक्रम

तुलसी पूजन बुद्धिबल, मनोबल, चारित्र्यबल व आरोग्यबल बढ़ाने वाला तथा मानसिक अवसाद, आत्महत्या आदि से रक्षा करने वाला है । विश्वमानव तुलसी के अदभुत गुणों का लाभ लेकर अपना जीवन उन्नत करे और सभी के अन्दर एक परमात्म-सत्ता को देखने के सनातन संस्कृति के महान दृष्टिकोण को अपना कर समाज में शांति-सोहार्द स्थापित हो – इस मंगलकारी उद्देश्य से पूज्य बापू जी की पावन प्रेरणा से 25 दिसम्बर का दिन ‘तुलसी पूजन दिवस’ के रूप में मनाना शुरु हुआ । 2014 से शुरु हुआ यह पर्व कुछ ही वर्षों में विश्वव्यापी रूप ले चुका है ।

पूज्य बापू जी पावन प्रेरणा से 2014 से विश्वगुरु भारत कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी । इसका उद्देश्य बताते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक धनुर्मास के इन पवित्र दिनों में लोग मांस-दारू खाते पीते हैं, गुनाह करते हैं तो 25 दिसम्बर को तुलसी पूजन और 1 जनवरी तक दूसरे पर्व मनाने से समाज की प्रवृत्ति थोड़ी सात्त्विक हो जाय इसलिए यह कार्यक्रम मैंने शुरु कराया ।”

(कार्यक्रम की रूपरेखा व तुलसी पूजन की विधि आदि हेतु पढ़ें आश्रम की समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध पुस्तक तुलसी रहस्य)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ 6,7 अंक 324

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