प्रत्येक विद्यार्थी के अंदर गुरू के प्रति अपनी विचित्र ही धारणा होती है । जब कोई किसी संत के पास जाता है तब वह उसके वास्तविक स्वरूप को देखने को तैयार नहीं होता । जब संत से आपकी आशाएं पूरी नहीं हो पाती तो आप निर्णय लेते हैं कि यह अच्छे संत नहीं हैं ।
संत के पास पहुंचने का यह अच्छा उपाय नहीं है, संत के पास दृढ़ संकल्प एवम् कुछ सीखने की प्रवृति, प्रबल इच्छा के साथ जाइये । तब वहां कोई भी समस्या नहीं होगी, आप सच्चे गुरु को कैसे प्राप्त कर सकते हैं । शास्त्रों में कहावत है कि जब शिष्य तैयार होता है तो गुरू स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।
यदि आप स्वयं तैयार नहीं हैं, परिपक्वता को नहीं प्राप्त हैं तो गुरू आपके पास खड़े भी रहेंगे तो भी आप उन्हें पहचान नहीं पाएंगे । यदि आपको हीरे का ज्ञान ना हो और हीरा वहां प्रस्तुत हो तो आप उसे शीशे का टुकड़ा समझ कर उसकी अवहेलना करते हुए वहां से चले जायेंगे ।
साधना की प्रथम अवस्था में साधक या तो सहज भाव की उपेक्षा करता हुआ अति बौद्धिक बन जाता है या तर्क एवम् बुद्धि की उपेक्षा करता हुआ अत्याधिक भावुक बन जाता है । अति भावुकता या बुद्धि-बाधिता दोनों ही साधक के लिए उपयोगी नहीं क्यूंकि दोनों से ही अहंकार का विकास होता है ।
जो लोग अनुशासन में विश्वास ना करते हों उन्हें ज्ञान या मोक्ष की आशा नहीं करनी चाहिए । केवल कहने मात्र से कोई भी गुरू ज्ञान नहीं देते, वह शिष्य में कुछ लक्षणों को देखने का प्रयास करते हैं । वह जानना चाहते हैं कि कौन कितना तैयार है, कोई शिष्य गुरू की आंख में धूल नहीं झोंक सकता ।
गुरू बड़ी ही सरलता से यह देख लेते हैं कौन सा शिष्य कितना योग्य एवम् प्रौढ़ है । जब गुरू देखते हैं कि शिष्य अब पर्याप्त प्रौढ़ हो गया है तो वे उसे उच्च शिक्षाओं के लिए क्रमशः तैयार करना शुरू कर देते हैं ।
जब बत्ती और तेल दोनों तैयार हो जाते हैं तब गुरू इस दीप को जला देते हैं यही गुरू का काम है और दिव्य प्रकाश ही, आत्म प्रकाश ही इन सभी प्रयासों का परिणाम है । गुरू के पास शिक्षा देने की अनोखी विधियां होती हैं और कभी कभी बहुत रहस्यमय भी होती हैं ।
वे अपनी वाणी तथा कर्म से शिक्षा देते हैं किन्तु कुछ विशिष्ट प्रसंगों में बिना मौखिक वार्तालाप के भी बहुत सी शिक्षाएं दे सकते हैं क्यूंकि अनेकों महत्वपूर्ण शिक्षाएं जिनका मूल बुद्धि से परे प्रतिभा एवम् प्रज्ञा के साम्राज्य में है उन्हें वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता ।
एक बार किसी साधक ने अपने गुरू से कहा कि वे उनको अच्छा नहीं पढ़ा रहे । गुरू ने कहा यहां आओ कुछ देर के लिए मैं तुम्हारा शिष्य बन जाता हूं और तुम मेरे गुरू बन जाओ और वैसा ही व्यवहार करो जैसा मैं तुम्हारे साथ करता हूं ।
शिष्य ने कहा किन्तु मुझे यही ज्ञात नहीं है कि क्या करूं । गुरू ने कहा कि चिंता मत करो तुम सब जान जाओगे, इसके बाद गुरू अपनी आंखें बंद किए हुए हाथ में छिद्रयुक्त जल पात्र लेकर आए और बोले गुरुजी मुझे कुछ दीजिए ।
शिष्य ने कहा मैं कैसे कुछ दे सकता हूं, आपके पात्र में एक बड़ा सा छिद्र है । तब गुरू ने कहा अपना नेत्र खोलकर कि तुम्हारे अंतः कर्ण में भी तो छिद्र है और मुझसे कुछ प्राप्त करना चाहते हो । जब स्वयं में छिद्र होता है तब अन्य में हम दोष दर्शन करते हैं ।
स्वयं का पात्र दुरुस्त करो, गुरू से कुछ अपेक्षा रखने की आवश्यकता नहीं, गुरू स्वयं तुम्हें देने के लिए ही बैठे हैं । तुम अपेक्षा ना भी रखो तो भी वे तुम्हारी झोली भरने के लिए ही बैठे हैं । स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि संसार सागर से उस पार जाने के लिए सचमुच गुरू ही एकमात्र आधार हैं ।
सत्य के कंटकमय मार्ग में आपको गुरू के सिवा और कोई उचित मार्ग दर्शन नहीं दे सकता । गुरुकृपा के परिणाम अदभुत होते हैं, ये दैनिक जीवन के संग्राम में गुरू आपको मार्गदर्शन देंगे और आपका रक्षण करेंगे ।
गुरू ही ज्ञान के पथ प्रदर्शक हैं, गुरू, ब्रह्म, ईश्वर, आचार्य, उपदेशक, दैवीय गुरू आदि सब समानार्थी शब्द हैं इसलिए ईश्वर को प्रणाम करने से पहले अपने गुरू को प्रणाम करो क्यूंकि वे आपको ईश्वर के पास ले जाते हैं ।