जो जवाबदारियो से भागते रहते हैं वे अपनी योग्यता कुंठित कर देते हैं और जो निष्काम कर्मयोग की जगह पर एक-दूसरे की टाँग खींचते हैं वे अपने आपको खींच के नाले में ले जाते हैं । मूर्ख लोग काम टालते हैं…. वह उस पर टालेगा, वह उस पर टालेगा । जब यश और सफलता होगी तो छाती फुला के आगे आयेंगे और विफलता होगी तो कहेंगेः ‘मैं तो कहता था कि ऐसा नहीं करना चाहिए । इसने ऐसा किया, उसने वैसा किया’ अथवा तो काम बढ़िया हो गया तो बोलेंगे, ‘हमने किया, हमने किया……’ और बिगड़ गया तो बोलेंगे कि ‘ईश्वर की मर्जी !’ इसका मतलब बिगाड़ने के सब काम ईश्वर करता है और बढ़िया काम तुम ही कर रहे हो ! स्वार्थ से मति ऐसी अंध हो जाती है और सेवा से मति शुद्ध हो जाती है ।

बढ़िया काम होता है तो बोलना चाहिएः ‘ईश्वर की कृपा थी, महापुरुषों का, शास्त्रों का प्रसाद था ।’ कार्य में सफलता मिलने पर गांधी जी कहते थेः “मेरे कार्य के पीछे ईश्वर का हाथ था ।”

मेरे गुरु जी कहा करते थेः “जुदा-जुदा जगह पर काम करने वाली कोई महान शक्ति है । हम लोग तो निमित्तमात्र हैं । लोग बोलते हैं, ‘लीला (लीलाशाहजी) ने किया, लीला ने किया…. लीला कुछ नहीं करता है ।” और कहीं गलती हो गयी तो तो बोलतेतः “भाई ! क्या करूँ, हम तो पढ़े लिखे नहीं हैं । हमारी गलती हो तो आप क्षमा कर देना ।” कितनी नम्रता है उन महापुरुषों की !

ऐसे ही सुख की, मान की अभिलाषा सच्चा सेवक नहीं करता । जब साधक सुख और मान की अभिलाषा हटाने के लिए सेवा करता है तो सुख और मान उसे सहज, स्वाभाविक प्राप्त होने लगते हैं, अंदर से ही उसका सुख और सम्मानित जीवन प्रकट होने लगता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद नवम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 16 अंक 323