भक्ति में गलती हो तो आदमी पागल बन जाता है, योग में गलती हो तो आदमी रोगी हो जाता है और ज्ञान में गलती हो तो आदमी विलासी बन जाता है। और ज्ञान के रास्ते कभी चलते-चलते थोडासा झलक मिल और वाहवाही हो तो मनुष्य को तुष्टि …हाँ मेरे को बहुत कुछ मिल गया, मेरे पास बहुत कुछ है… जैसे चूहे को हल्दी का टुकड़ा मिल जाए और अपने को गाँधी मान लेवे ऐसे भी आता है…एकांत है,भजन करता हूँ तो इसको बोलते है तुष्टि। ये मन धोखा देता है, छोटी मोटा कुछ मिल गया उसमें तुष्ट हो जाते है, संतुष्ट हो जाते है
लेकिन जबतक परमात्मा का साक्षात्कार नही होता तबतक सद्गुरुओं का सहयोग बहुत जरूरी है। और परमात्मा का साक्षात्कार हो जाए तो जो मिला है उसे याद करते करते वो वफादार बना रहेगा।
विवेकानंद अपने गुरु के लिए आजीवन वफादार थे। ऐसा कोई महापुरुष नही हुआ जिसने अपने सद्गुरु के लिए कभी कुछ गलत कहा या सोचा हो , अगर कहा या सोचा है तो वो महापुरुष भी नही बना है। जय रामजी की! वो फिसल गया है! नरक का अधिकारी हो गया वो!
तो वो माई थी तो सज्जन लेकिन उसको थोडासा साधन भजन करते करते कोई अनुभव नही हो रहा था तो एकदम मन उसका नास्तिक जैसा हो गया। और गाँव में संत आए और उसके चेलियों ने कहा कि महाराज आए है,बोली “हमने देख लिए सब महाराज। जिसने जो साधन कहा हमने सब करके देख लिया। कोई भगवान-वगवान का अनुभव नही हुआ, साक्षात्कार का अनुभव नही हुआ।” ऐसा करके वो नही जाना चाहती थी। फिर भी पहले का किया हुआ पुण्य उसको महापुरुष का दर्शन करने ले गए। और महापुरुष ने देखा कि अधिकारी जीव है…अपना सामर्थ्य बरसाया, तो वही उसकी चित्त शक्ति जागृत हो गई।
जिनकी आत्म शक्ति जगी होती है वो जो टोपी पहनते है उस टोपी में भी वेव्ज आते है, वो जो करमंडल पकड़ते है उसमें भी! और जिस वस्तू पर देखते है वो आध्यात्मिक वेव्ज वहाँ भी बरसते है। जैसे सूरज की किरण है धरती पर पड़ते है, लेकिन जहाँ बीज जैसा है वही बीज वैसा ही फल और पत्ते फूल बना लेता है सूरज की कृपा से। सूरज उसे छूता नही फिर भी सूरज उसे छूता है! सूरज हजारों लाखों माईल दूर होते हुए भी उसके साथ है, उसके साथ होते हुए भी वो निराला है! ऐसे ही ज्ञानी के हृदय में सूर्यों का सूर्य जो परमात्मा प्रगट हुआ है! तो ज्ञानी की दृष्टि से…जैसे सूरज वहाँ है और सूरज की दृष्टि कहो, किरण कहो पेड़ पौधों को पोषते है और पेड़ पौधों में जैसी जैसी बीज में संस्कार और क्षमताएँ होती है ऐसे ऐसे बीज कोई छोटा पौधा, छोटे गमलों का बीज होता है तो कोई बड़े पेड़ों का बीज होता है ,तो कोई गुलाबी फूल का होता है तो कोई और किसी रंगरूप आकृति के होते है। लेकिन सत्ता तो सूरज के किरणों से मिलती है उनको पनपने की,खिलने की,महकने की! ऐसे ही जिसके जैसे संस्कार है..जबतक ज्ञानवान महापुरुष सूर्य की कृपादृष्टि नही पड़ी तबतक उसका अंतःकरण उस साधन में उतना खिलता नही!
माई ने तप तो किया, व्रत भी किया, सब साधन किए लेकिन किताब पढ़-पढ़के बताने वाले गुरुओं के द्वारा उसने किए। सद्गुरु अभी उसको मिला नही था तो कर-करके बेचारी थक गई थी। थक गई थी तो एकदम नास्तिक जैसी हो गई। और जब समर्थ संत आए तो उसकी चेलियाँ समर्थ संत के सत्संग सुनने को गई और आकर कहा अपनी सत्संग सुनाने वाली बाई को , तो उसने डाँट दिया कि कोई साधु -वाधु नही है , साधुने जो बताया सब किया कोई अनुभव नही हुआ! भगवान -वगवान नही है।
फिर भी उसका मन उस संत के दर्शन के लिए छुप के जाने का हो गया। और छुप के जब गई तो उस संत की दृष्टि पड़ी और उसका छुपा हुआ जो चैतन्य… जैसे बीज को खाद-पानी है फिर भी कई ऐसे बीज है जो फूटते नही क्योंकि उनपर कोई कंकड़ है या कोई ठीकरा पड़ा है, इसको बोलते है प्रतिबंधक प्रारब्ध! तो महाराज! वो हट गया उसका प्रतिबंध हट गया! तो माई को अनुभव हुआ थोड़ा बहुत। बाद में तो संत चले गए और वो बाई पैदल पैदल उनके यहाँ गई, वर्षों तक उनके आश्रम में रही, दिन-रात आए हुए अतिथियों को भोजन बनाके खिलाती थी। सुबह ४ बजे से लेकर रात्रि पंगत…कार्यभार सँभालती थी।उसकी वही सेवा थी। और अंत में सद्गुरु की कृपा से उसको ऐसे पद की प्राप्ति हुई कि महाराज ! जिस पद को योगी पाकर मुक्त हो जाते है, ज्ञानी पाकर ब्रह्मवेत्ता हो जाते है उस पद को वो पा ली!
कहने का तात्पर्य ये है कि ईश्वर है और ईश्वर को पाने की योग्यता भी है लेकिन उस दोनों का…योग्यता का और ईश्वर की प्राप्ति इन दो के बीच का जो मिडिया है वो सद्गुरु का सानिध्य जबतक नही होता तबतक काम नही बनता! बीज भी है, सूरज भी है लेकिन किसान जबतक सेटिंग नही करता है तबतक काम नही बनता है!
दूसरी बात… साधक के जीवन में एक खास होना चाहिए, हर मनुष्य के जीवन में ये गुण होना चाहिए- तत्परता! अपने लक्ष्य की स्मृति और तत्परता!
एक कहानी बता दूँ… दो किसान थे। दोनों की जमीन बराबर थी पास-पास में। एक किसान ने उस जमीन को खेडा , क्यारियाँ बनाई , बीज बोए। दूसरे ने भी खेडा अपने ढँग से..बीज इधर उधर डले, फिर कभी बगीचे में आता था कभी नही, कभी कुछ।लेकिन जो पहला किसान था उसने विधिवत बीज बोए, अमुक अंतर पर बीज बोए और अमुक दिन पर पानी दिया, उसका बगीचा तो कुछ ही समय में लहलहाने लगा, फूल खिलने लगे, पक्षियों की किलहोल और महाराज! फल फूल से लदा भरा उसका बाग दूर-दूर से लोग देखने को आने लगे । उसके बाग को देखकर लोगों को होता कि “हाश!कितना सुंदर बगीचा!वाह!ईश्वर की क्या लीला है!बंजर जमीन था और उस बंजर में देखो प्रभु का क्या खेल है!वाह!इसने अपनी महनत से देखो कैसा प्रभु की सृष्टि में सौंदर्य भर दिया” व्ज बोलता था “प्रभु की सृष्टि में सौंदर्य भरने वाला मैं कौन होता हूँ?सौंदर्य भी उसीका है और भरने की सत्ता भी उसीकी है! ये हाथ-पैर भी उसीके दिए हुए हैं!हमको तो आप यश दे रहे है, बाकी यश तो उसी प्यारे का गाईए!” जय रामजी की!
वो माली क्यारी-क्यारी की खबर लेता!पौधे-पौधे की निगरानी रखता, हर फूल को सुबह-श्याम निहारता देखता,कही कटाई हो, कही छटाई हो, कही सिंचाई हो, कही खाद पानी बराबर देता। और उसको अपने कार्य करने में इतना आनंद आता! कोई पौधा सूखने न पाए और कोई पेड़ बूढा होकर व्यर्थ न जाए। जहाँ कटाई करना है वो कटाई कर लेता,जहाँ बुआई करना है बुआई कर लेता , बड़ा खयाल रखता।उसने उस बगीचे में प्राण भर दिए! वो बगीचा विश्रांति स्थल हो गया! माली को आय भी अच्छी होती थी,यश भी अच्छा हुआ और उसको कार्य में तत्पर होने का रस भी मिला और उसकी काम करने की क्षमताएँ भी बढ़ गई। दूसरे माली ने बगीचा लगाया , कही कोई पेड़ पौधा हुआ है तो कही सूखा पड़ा है, कही थोड़े फल लगे है तो पकने के पहले ही गिरे हुए है ,कही पक्षियों को कभी भगाया तो कभी पक्षियों ने चट कर दिया!
उसकी जमीन उजाड़ जैसी लग रही थी, एकदम उजाड़ न पूरा हराभरा। जहाँ कहीं छोटा मोटा पेड़ पौधा खिला है उसको देखकर वो फूलता था कि देखो मैने कितना बढ़िया किया। लेकिन आसपास का कचरा और सूखे पेड़ और पौधे उस खिले हुए पौधे की शोभा को नष्ट कर देते थे। वो अपना भाग्य कूटता था “क्या करें!मेरा भाग्य ही ऐसा है!पड़ोसी का बगीचा भगवान ने ऐसा कर दिया और मेरे बगीचे का ठिकाना नही! ” हकीकत में तो भगवान ने सूर्य किरण दोनों को बराबर दिए, भगवान ने वृष्टि तो दोनों को बराबर की, भगवान ने धरती में रस तो दोनों के लिए एक जैसा भरा। लेकिन जो तत्पर था अपने काम में, जो बारीकी से एक एक पौधे की खबर रखता था, बारीकी से एक एक पेड़ की, खाद पानी की व्यवस्था रखता था उसका
तत्पर होना, ख्याल रखना ही उसके कार्य की सफलता थी। और वो जो लापरवाही है वोही उसकी विफलता का कारण था और दोष देता है भगवान को। और यश मिलता है तो बुद्धिमान कहता है भगवान की लीला है। तो कौनसा आदमी दुनिया में जीने के काबिल हुआ? जो तत्परता से काम करता है और सफल होता है तब भी ईश्वर की स्मृति कर देता है और तत्परता से कार्य करनेवाला व्यक्ति विफल नही होता है! और विफल कभी कबार कभी हो भी जाता है तो खोजता है विफलता का कारण क्या है?विफलता का कारण ईश्वर नही है,
विफलता का कारण प्रकृति नही है, विफलता का कारण अपनी बेवकूफी है। जय रामजी की! तो कहाँ हमारी बेवकूफी हुई जानकारों की सलाह लेकर वो अपनी बेवकूफी मिटाते है और कार्य तत्परता से करते है। आज तो जरा-जरा बात में गलती हो गई, भूल गए, ये हो गए इसको बोलते है
लापरवाही,प्रमाद…एक होता है आलस्य दूसरा होता है प्रमाद। पति ने कहा अथवा साथी ने कहा ये कर लेना, याद भी है… अच्छा! होगा..देखते है, देखते हैं, देखते है- देखते हैं करके कहाँ भटक गया ये है आलस्य। तो आलस्य और प्रमाद मनुष्य का शत्रु है, मनुष्य की योग्यताओं का शत्रु है। तीसरा शत्रु है ईर्षा.. मैं इतना काम करता हूँ वो तो कुछ नही करता। तो अपनी योग्यता विकसित करने के लिए भी अपने को तत्परता से कार्य करना चाहिए। कम से कम समय और अधिक से अधिक सुंदर कार्य करने की जसकी कला विकसित है वो आध्यात्मिक रस्ते जाता है तो आध्यात्मिक जगत में भी सफल हो जाए, लेकिन ज्यादा समय बरबाद करे और कम से कम कार्य हो और वो भी सड़ा गला बगीचे वाला जैसा वो आदमी व्यवहार में भी विफल रहता है और परमार्थ में भी पलायन वादी हो जाता है। जय रामजी की! वो परमार्थ में पलायनवादी हो जाएगा, जितना सुख सुविधा मिला तो हाँ! अच्छा है एकांत है भजन होता है और जहाँ थोड़ी प्रतिकूलता आई तो वहाँ से भाग जाएगा। तो – अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट
तो, पलायनवादी लोग जिनको सुख सुविधाएँ मिल जाती है लेकिन तत्परता नही है काम करने की ,ईश्वर में प्रीति नही है…जप में प्रीति नही है, ध्यान में प्रीति नही है ऐसे व्यक्ति को ब्रह्मा जी आकर भी सुखी करना चाहे तब भी वो नही हो सकता है, दुःखी रहेगा, दुःख बना लेगा। कभी कबार दैव योग से सुख मिला तो आसक्त हो जाएगा, फूल जाएगा और दुःख मिला तो बोलेगा “क्या करें भगवान की सृष्टि ऐसी है, जमाना ऐसा है , ये ऐसा है, वो ऐसा है।