अध्यात्मिक मार्ग तीक्ष्ण धार वाली तलवार का मार्ग है जिनको इस मार्ग का अनुभव है, ऐसे गुरू की अनिवार्य आवश्यकता है । अपने सब अहम भाव का त्याग करो और गुरू के चरण-कमलों में अपने आप को सौंप दो ।
गुरू आपको मार्ग दिखाएंगे और प्रेरणा देंगे, मार्ग में आपको स्वयं ही चलना होगा । जीवन अल्प है, समय जल्दी से सरक रहा है उठो, जागो ! आचार्य के पावन चरणों में पहुंच जाओ ।
रामकृष्ण परमहंस के साथ हुई पहली मुलाकात के बाद नरेंद्र उनसे दोबारा मिलने दक्षिणेश्वर पहुंचे । पहली मुलाकात में नरेंद्र उनसे बातचीत नहीं कर पाए थे, केवल उनके दर्शन हुए थे, इसलिए उनके मन में रामकृष्ण परमहंस से फिर एक बार मिलने की इच्छा जगी । वे अपना सवालाखी सवाल लेकर ठाकुर से मिलने गए, इस दूसरी मुलाकात में नरेंद्र ने फौरन अपना सवाल ठाकुर से पूछ लिया । क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है ?
ठाकुर ने कहा हां, बिल्कुल देखा है, जैसे इस समय मैं तुम्हें देख रहा हूं,बिल्कुल वैसे ही ईश्वर को भी देखा है और बातचीत भी की है । अगर तुम्हें भी ईश्वर को देखना है तो देख सकते हो ।
आज के युग में लोग ईश्वर को जानने के बारे में नहीं सोचते, हां ! अगर किसी का पति मर गया हो, पत्नी मर गई हो या बेटा मर गया हो तो वे खूब रोते हैं । लेकिन इस बात पर कोई नहीं रोता कि अब तक ईश्वर का दर्शन नहीं हुआ ।जबकि वास्तविकता यह है कि जो भक्ति में रोयेंगे वे ईश्वर दर्शन को भी प्राप्त होंगे, तो आखिरकार नरेन्द्र को अपने सवाल के जवाब की झलक मिल ही गई । ठाकुर ने दावा किया कि मैंने ईश्वर को देखा है और तुम्हें भी उसका दर्शन करवा सकता हूं ।
हालांकि नरेंद्र को उनकी बात पर विश्वास ना हुआ क्यूंकि उस समय हर मामले में उनकी बुद्धि ही प्रधान रहती थी । ठाकुर के साथ नरेंद्र की यह दूसरी मुलाकात यादगार रही । आगे ऐसी कई मुलाकातें होने वाली थी, यह तो केवल शुरुआत थी । वहां रामकृष्ण परमहंस का अतार्किक व्यवहार देखकर उन्हें लगा जैसे वे नरेंद्र को लंबे समय से जानते हों । उस दिन ठाकुर ने नरेंद्र को अपने पास बिठाया और फिर भजन गाने के लिए कहा । जब नरेंद्र ने भजन गाया तो वह भाव दशा में चले गए, भजन खत्म होते ही ठाकुर ने नरेंद्र का हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर बरामदे में ले गए और बोले तुमने आने में इतने दिन क्यूं लगा दिए ? इतने दिन तक तुम मुझसे अलग कैसे रह पाए नरेंद्र ? यह कहते हुए वह भावुक हो गए और उनकी आंखें भर अाई ।
उन्होंने आगे कहा कि मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं लोगों की निरर्थक बातें सुन-सुनकर मेरे कान पक गए हैं । अब तुम आ गए हो तो एक सच्चे खोजी से बात करने का आनंद आयेगा । तुम नर के रूप में नारायण हो और इस दुनिया का कल्याण करने के लिए मनुष्य का रूप लेकर अाए हो ।
दरअसल ठाकुर के पास जो भी लोग आया करते थे उनमें से अधिकतर सिर्फ इसी तरह की बातें करते थे कि मेरे घर में फलां परेशानी है, फलां दुख है । यदि काली माता का आशीर्वाद मिल जाए तो सब सुख मिल जाएं । आमतौर पर मंदिर के पुजारी के पास लोग ऐसी ही बातें लेकर आते हैं । ऐसे लोग बहुत ही कम थे जो सिर्फ ज्ञान में रुचि रखते हों । नरेंद्र ने कोई विशेष कार्य नहीं किया था उन्होंने तो ठाकुर के समक्ष सिर्फ वे ही भजन गाए जो उन्होंने ब्रह्म समाज में सीखे थे लेकिन वे भजन सुनकर रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र के शुद्ध हृदय को पहचान लिया था ।
ठाकुर की बातें सुनकर नरेंद्र हैरान थे वे मन ही मन बड़बड़ाने लगे कि मैं यहां किसके दर्शन करने चला आया । मैं तो विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूं, साधारण-सा इंसान हूं और ठाकुर मुझसे ऐसे बातचीत कर रहे हैं जैसे मैं अभी-2 आकाश से उतरा कोई देव हूं । नरेंद्र जब इन विचारों में खोए हुए थे तब अचानक से रामकृष्ण ने आकर उनका हाथ पकड़ा । ठाकुर के हाथ में मक्खन, मिश्री तथा मिठाई थी, वे स्वयं अपने हाथ से नरेंद्र को मिठाई खिलाने की चेष्टा करने लगे और कहने लगे ले खा ।
नरेंद्र ने उनका हाथ थामते हुए यह कहा ! आप यह मिठाई मुझे दे दीजिए, मैं अपने मित्रों के साथ बांटकर खाऊंगा । ठाकुर ने हाथ बढ़ाते हुए कहा वे लोग भी खाएंगे पहले तू खा ले । इस तरह वे नरेंद्र को मिठाई खिलाते रहे और उनके आग्रह से असहाय होकर नरेंद्र मिठाई खाते रहे । इसके बाद वह नरेंद्र को अपने साथ भीतर ले गए और उसकी प्रशंसा करते हुए सभी से बोले देखो नरेंद्र अपने ज्ञान के प्रकाश से किस प्रकार दीप्तिमान है । सारे लोग चकित होकर नरेंद्र की तरफ देखने लगे ।
एक तरफ तो ठाकुर नरेंद्र की प्रशंसा कर रहे थे लेकिन दूसरी तरफ नरेंद्र के तर्कशील मन में कुछ और ही चल रहा था । दरअसल नरेंद्र को तो लगा था कि ठाकुर कोई खास संदेश देंगे, कोई उपदेश देंगे । मगर उन्होंने तो नरेंद्र से जो बातें करी वे नरेंद्र को निरर्थक ही लगीं । नरेंद्र उन्हें देखते रहे कि अभी-2 तो वे कितनी अतार्किक बातें कर रहे थे और अब अंदर जाकर अलग-2 लोगों से मिल रहे हैं जैसे ऐसी कोई बात हुई ही ना हो । वो ठाकुर के इस व्यवहार को देखकर दुविधा में पड़ गए और सोचने लगे यह वाकई एक संत हैं या फिर कोई पागल हैं ।
जब नरेंद्र वहां से लौटने लगे तो ठाकुर ने उन्हें इसी शर्त पर जाने दिया कि वह जल्द ही वापिस लौटेंगे । नरेंद्र वहां पर बिना किसी से कुछ कहे यह सोचकर लौटे कि उनकी मुलाकात एक पागल से हुई है । इसके बाद कई दिनों तक नरेंद्र इसी बारे में सोचते रहे । उनका दिमाग ठाकुर की अजीब बातों और व्यवहार का विश्लेषण करते-2 थक गया । फिर उन्होंने सब कुछ भूलने की कोशिश करते हुए सोच लिया कि अब वे उनके पास वापिस नहीं जाएंगे लेकिन यह संभव ना हो सका ।
नरेंद्र ब्रह्म समाज से जुड़े रहे और साथ ही बार -2 दक्षिणेश्वर भी जाते रहे । धीरे-2 ठाकुर के बच्चों के जैसे भोले-भाले व्यक्तित्व, मीठी वाणी और प्रेम के प्रति निष्कपट, नरेंद्र का आकर्षण बढ़ता गया । गुरू और शिष्य में ऐसा ही आकर्षण होता है जब दो चीजें पूर्ण रूप से विपरीत होती हैं तब सबसे बड़ा आकर्षण पैदा होता है । विज्ञान की भाषा में भी देख लिया जाए तो नेगेटिव और पॉजिटिव दोनों विपरीत है लेकिन आकर्षण सबसे बड़ा है । जब सबसे बड़ी मांग करने वाला कोई हो और दुनिया का सबसे बड़ा दानी आ जाए तब उनके बीच कैसा रिश्ता होगा, कैसा आकर्षण होगा । हालांकि हर विपरीत रिश्तों में ऐसा नहीं होता, गुरू-शिष्य के रिश्ते में सत्य देने वाला और सत्य मांगने वाला दोनों ही तरफ समान आकर्षण तैयार होता है इसलिए इस रिश्ते को सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता, तेज़ रिश्ता कहा गया है । ऐसा रिश्ता जो हर रिश्ते के परे है, इस रिश्ते को समझने के लिए काफी समय लगता है । जब समय के साथ गुरू-शिष्य का रिश्ता समझ में आता है तब इंसान सभी दुखों व माया से बाहर आ जाता है ।
नरेंद्र पर सत्य जानने की जिद्द सवार थी, जब उन्हें सबसे बड़े दानी और ज्ञानी सदगुरु परमहंस मिले तब उनके जीवन में सत्य प्रकट होना शुरू हुआ । ठाकुर को नरेंद्र में हमेशा नारायण ही दिखाई देते थे इसलिए वे उनसे बेहद प्रेम करते थे उन्होंने उस समय जिस परम आंनद का अनुभव किया था, वही वे अपने शिष्य को करवाना चाहते थे । दरअसल वे नरेंद्र की दो नावों की सवारी को तोड़ना चाहते थे । कोई टिप्पणी सदगुरु अपने भक्त को किसी नेता की भांति वोट पाने के लिए खुश नहीं करते और ना ही गुरू को भक्त से किसी लाभ की उम्मीद होती है,क्यूंकि गुरू लाभ-हानि से उपर उठ चुके होते हैं ।
शुरुआत में गुरू अथवा गुरू से मिले ज्ञान के प्रति शिष्य के मन में संदेह होना स्वभाविक है । सत्य को शब्दों में बताना कठिन होता है फिर भी गुरू हमारे लिए यह सत्य बहुत आसान शब्दों में बताते हैं । इसके लिए गुरू को कभी-2 अतार्किक बातें या अतार्किक व्यवहार करना पड़ता है । इससे शिष्य भ्रांति में पड़ जाता है क्यूंकि गुरू का व्यवहार और बातें समझ में नहीं आती । गुरू बैठे हैं बुद्धि के बाहर और शिष्य होता है बुद्धि की माया में, लेकिन यह विश्वास रखें कि गुरू के इस व्यवहार के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होता है । समय आने पर गुरू शिष्य के सामने हर रहस्य खोल देते हैं । आपको गुरू द्वार हंसते-2 कहे गए या लापरवाही से कहे गए शब्दों को भी महत्व देना चाहिए । क्यूंकि गुरू बिना कारण कोई बात नहीं कहते फिर चाहे वह लापरवाही से ही क्यूं ना कही गई हो वरना शिष्य उलझन में पड़कर अपनी ही हानि कर बैठता है ।
अपने मन की सुनने और गुरू की ना सुनने की गलती कभी ना करें । गुरुवाणी आकाशवाणी होती है, गुरुवाक्य महावाक्य होते हैं । सच्चा शिष्य गुरू की सीख का मूल्य और महत्व समझता है । वह जानता है कि गुरू के शब्द केवल शब्द नहीं होते, इसलिए वह गुरू के शब्दों को ब्रह्मवाणी की तरह सुनता है । वह यह जानता है कि गुरू जो कहते हैं, उस पर ध्यान और मनन करना महत्वपूर्ण है । इसी मनन के जरिए सत्य का सफर शुरू होता है, गुरू अक्सर यह जांचते हैं कि उन पर शिष्य का पूरा विश्वास है या नहीं । शिष्य की पूरी पहचान होने के बाद ही गुरू उस परम सत्य या अंतिम सत्य का ज्ञान कराते हैं और माया से मुक्ति दिलाते हैं । गुरू ही शिष्य को जाग्रत अवस्था तक ले जाते हैं । जब शिष्य को गुरू की कार्यपद्धति समझ में आ जाती है तो उसके सारे संदेह मिट जाते हैं और उसे इस बात का अहसास हो जाता है कि सच्चा गुरू तत्व क्या है । हम वास्तव में जो हैं गुरू हमें वही समझकर बातें करते हैं । वे केवल हमें खुश करने के लिए नहीं बोलते, वे तो हमें प्रेम और प्रज्ञा के माध्यम से जाग्रत करते हैं, गुरू अपने शिष्य को हैड से हार्ट यानि बुद्धि से हृदय तक ले आते हैं । पहले शिष्य हर बात बुद्धि से सोचता है लेकिन गुरू से मिलते रहने के बाद वह यानि तेज़ स्थान पर रहना सीख जाता है । जब उसे प्राप्त हो जाती है तो फिर उसका हर निर्णय हृदय से ही होता है । ठाकुर के संपर्क में आने के बाद नरेंद्र को भी बुद्धि से तेज़ स्थान तक की यात्रा करने का मौका मिला ।