◆ हम लोगों के जीवन में दो तरह के रोग होते हैं- बहिरंग और अन्तरंग। बहिरंग रोगों की चिकित्सा तो डॉक्टर लोग करते हैं और वे इतने दुःखदायी भी नहीं होते हैं जितने कि अन्तरोग होते हैं।
◆ हमारे अन्तरंग रोग हैं काम, क्रोध, लोभ और मोह.भागवत में इस एक-एक रोग की निवृत्ति के लिए एक-एक औषधि बतायी है। जैसे काम के लिए असंकल्प, क्रोध के लिए निष्कामता, लोभ के लिए अर्थानर्थ का दर्शन, भय के लिए तत्त्वादर्शन आदि।
◆ औषति दोषान् धत्ते गुणान् इति औषधिः।
◆ जो दोष को जला दे और गुणों का आधान कर दे उसका नाम है औषधि। फिर, अलग-अलग रोग की अलग-अलग औषधि न बताकर एक औषधि बतायी और वह है अपने गुरु के प्रति भक्ति। एतद् सर्व गुरोर्भक्तया।
◆ यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, बेटा ! तुम गलत रास्तें से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो, उससे मत चिपको, अपनी ‘कम्पनी’ अच्छी रखो, आदि।
◆ जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायगा तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चहिए, बेईमानी नहीं। बेईमानी सम्पूर्ण दोषों की व दुःखों की जड़ है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु की सेवा करना।
◆ साक्षात् भगवान तुम्हारे कल्याण के लिए गुरु के रूप में पधारे हुए हैं और ज्ञान की मशाल जलाकर तुमको दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं, तुम्हारे हाथ में दे रहे हैं। तुम देखते हुए चले जाओ आगे…. आगे… आगे…।
◆ इसलिए, भागवत के प्रथम स्कंध में ही भगवान के गुणों से भी अधिक गुण महात्मा में बताये गये हैं, तो वह कोई बड़ी बात नहीं है। ग्यारहवें स्कंध में तो भगवान ने यहाँ तक कह दिया है किःमद्भक्तापूजाभ्यधिका।’मेरी पूजा से बड़ी है महात्मा की पूजा’।