सेवा तो सेवा ही है !

सेवा तो सेवा ही है !


● सेवक को जो मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों को भी नहीं मिलता। हिरण्यकशिपु तपस्वी था, सोने का हिरण्यपुर मिला लेकिन सेविका शबरी को जो साकार राम का दर्शन और निराकार राम का सुख मिला वह हिरण्यकशिपु ने कहाँ देखा, रावण ने कहाँ पाया ! मुझे मेरे गुरुदेव और उनके दैवी कार्य की सेवा से जो मिला है, वह ऐसों को कहाँ था ! सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवक तो कई आये, कई गये। सेवा में बड़ी सावधानी चाहिए। जो प्रेमी होता है, जिसके जीवन में सद्गुरुओं का सत्संग होता है, मंत्रदीक्षा होती है। जो भगवान का और मनुष्य-जीवन का महत्व समझता है वही सेवा से लाभ उठाता है।

● जिसमें जितनी वाहवाही का स्वार्थ होता है उतना ही वह विफल होता है और जितना दूसरे की भलाई का उद्देश्य होता है उतना ही वह सफल होता है। अपनी चाह छोड़ दे और दूसरों की भलाई में ईमानदारी लग जाय तो उसके दोनों हाथों में लड्डू ! यहाँ भी मौज, वहाँ भी मौज (लोक परलोक दोनों आनंदमय) ! माँ की, पति, पत्नी की, समाज की सेवा करे लेकिन बदला न चाहे तो उसका कर्मयोग हो जायेगा, उसकी भक्ति में योग आ जायेगा, उसके ज्ञान में भगवान का योग आ जायेगा। उसके जीवन में सभी क्षेत्रों में आनंद है।

● सेवा तो शबरी की है, सेवा तो राम जी की है, सेवा तो श्रीकृष्ण की है, सेवा तो कबीर जी की है और सेवा तो ऋषि प्रसाद वालों की है, अन्य सेवकों की है। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है। सारे पद सच्चे सेवक के आगे-पीछे घूमते हैं। सेवा में जो अधिकार चाहता है, वाहवाही चाहता है वह वासनावान होकर जगत का मोही हो जायेगा। लेकिन सेवा में जो अपना अहं मिटाकर तन से, मन से, विचारों से दूसरों की भलाई, दूसरों का मंगल करता है और मान मिले चाहे अपमान मिले, उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमानजी जैसे सेवक की हनुमान जयंती मनायी जाती है। हनुमान जी को देखो तो जहाँ छोटा बनना है वहाँ छोटे और जहाँ बड़ा बनना है वहाँ बड़े बन जाते हैं। सेवक अपने स्वामी का, गुरु का, संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता का अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्व क्या है !

– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

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