महाभारत के उद्योग पर्व (37.55) में आता हैः
यद् बलानां बलं श्रेष्ठं तत् प्रज्ञाबलमच्यते ।।
‘जो सब बलों में श्रेष्ठ बल है वह प्रज्ञा (बुद्धि का शुद्ध किया हुआ, सुविकसित और सुसंस्कृत रूप, ज्ञानदृष्टि, अंतर्दृष्टि, आत्मिक ज्ञान से सुसम्पन्न मति) का बल कहलाता है ।
विश्व में सबसे बड़ा बल है बुद्धि का बल । आध्यात्मिक उन्नति के अथवा बुद्धिबल के विकास के कुछ लक्षण हैं-
पहला- संसार के ऐश-आराम, प्रलोभन होने के बाद भी मनुष्य उनमें आसक्त न हो तो समझना कि बुद्धि का बल विकसित हो रहा है ।
दूसरा- भगवान के प्रति, सत्शास्त्रों और सत्पुरुषों के प्रति प्रीति का विकास हो तो समझो बुद्धि ठीक विकसित होने के रास्ते है ।
तीसरा लक्षण है, धीरता-वीरता आयेगी, अति भावुकता नहीं होगी । अति भुखमरी अथवा अति आहार नहीं करेगा ।
चौथा है, मानसिक अशांति नहीं रहेगी ।
पाँचवाँ लक्षण है, गहरे ध्यान में कभी-कभी कुछ दिव्य अनुभूतियाँ होने लगेंगी चित्त में और समता बढ़ती जायेगी । विचार साकार होने लगेंगे, संकल्प फलने लगेंगे । अपनी इच्छापूर्ति हो जाय और दूसरे के ऊपर कृपादृष्टि हो तो उसकी भी इच्छापूर्ति हो जाय ऐसा इच्छापूर्ति का सामर्थ्य आ जायेगा । ईश्वर के बारे में, शास्त्र के बारे में, किसी घटना के बारे में संदेह हो तो शुद्ध हृदयवाले ध्यानस्थ होकर इसका समाधान पा लेते हैं ।
छठी बात, प्रार्थना में बैठोगे तो आपकी प्रार्थना इष्ट तक, सद्गुरु तक बिल्कुल पहुँची हुई आपको महसूस होगी ।
धारणाशक्ति बढ़ने से आपके शरीर में हलकापन लगेगा । वाणी मधुर और आकर्षक हो जायेगी । चित्त शांत रहेगा । सुख-दुःख सपना है और चैतन्यस्वरूप, ब्रह्मस्वभाव अपना है ऐसा मानोगे । भविष्य की घटनायें आपके आगे प्रगट होने लगेंगी, व्यक्तित्व में निखार आयेगा तथा व्यक्तित्व का अहंकार विसर्जित होने लगेगा । सारी सफलताओं का मूलमंत्र है बुद्धि का विकास !
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।।
पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।। (महाभारत, उद्योग पर्वः 35.61.62)
बार-बार पाप करने से बुद्धि दब्बू हो जाती है, नष्ट हो जाती है तथा बार-बार पुण्यकर्म करने से प्रज्ञा का विकास होता है और बुद्धि विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होती है । मनुष्य की बुद्धि जितनी ऊँची होती है उतना वह महान होता है और बुद्धि जितनी छोटी होती है उतना वह छोटा होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 4 अंक 327
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