पूज्य बापू जी एकादशी के बारे में एक वैज्ञानिक रहस्य बताते हुए कहते हैं- “संत डोंगरेजी महाराज बोलते थे कि एकादशी के दिन चावल नहीं खाने चाहिए । जो खाता है समझो वह एक-एक चावल का दाना खाते समय एक-एक कीड़ा खाने का पाप करता है । संत की वाणी में हमारी मति-गति नहीं हो तब भी कुछ सच्चाई तो होगी । मेरे मन मे हुआ कि ‘इस प्रकार कैसे हानि होती होगी ? क्या होता होगा ?’
तो शास्त्रों से इस संशय का समाधान मेरे को मिला कि प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक वातावरण में से, हमारे शरीर में से जलीय अंश का शोषण होता है, भूख ज्यादा लगती है और अष्टमी से लेकर पूनम या अमावस्या तक जलीय अंश शरीर में बढ़ता है, भूख कम होने लगती है । चावल पैदा होने और चावल बनाने में खूब पानी लगता है । चावल खाने के बाद भी जलीय अंश उपयोग में आता है । जल से बने रक्त व प्राण की गति पर चन्द्रमा की गति का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है क्योंकि सभी जल तथा जलीय पदार्थों पर चन्द्रमा का अधिक प्रभाव पड़ता है । अतः यदि एकादशी को जलीय अंश की अधिकतावाले पदार्थ जैसे चावल आदि खायेंगे तो चन्द्रमा के कुप्रभाव से हमारे स्वास्थ्य और सुव्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ता है । जैसे कीड़े मरे या अशुद्ध खाया तो मन विक्षिप्त होता है, ऐसे ही चावल खाने से भी मन का विक्षेप बढ़ता है । तो अब वह वैज्ञानिक समाधान मिला कि अष्टमी के बाद जलीय अंश आंदोलित होता है और इतना आंदोलित होता है कि आप समुद्र के नजदीक डेढ़-दौ सौ किलोमीटर तक के क्षेत्र के पेड़-पौधों को अगर उन दिनों में काटते हो तो उनको रोग लग जाता है ।
अभी विज्ञानी बोलते हैं कि मनुष्य को हफ्ते में एक बार लंघन करना (उपवास रखना) चाहिए लेकिन भारतीय संस्कृति कहती हैः लाचारी का नाम लंघन नहीं… भगवान की प्रीति हो और उपवास भी हो । ‘उप’ माने समीप और ‘वास’ माने रहना-भगवद्-भक्ति, भगवद्-ध्यान, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-स्मृति के नजदीक आने का भारतीय संस्कृति ने अवसर बना लिया ।
उपवास कैसे खोलें ?
आप जब एकादशी का व्रत खोलें तो हलका फुलका नाश्ता या हलका फुलका भोजन चबा-चबा के करें । एकदम खाली पेट हो गये तो ठाँस के नहीं खाना चाहिए और फलों से पेट नहीं भरना चाहिए अन्यथा कफ बन जायेगा । मूँग, चने, मुरमुरा आदि उपवास खोलने के लिए अच्छे हैं । लड्डू खा के जो उपवास खोलते हैं वे अजीर्ण की बीमारी को बुलायेंगे । एकदम गाड़ी बंद हुई और फिर चालू करके गेयर टॉप में डाल दिया तो डबुक-डबुक…. करके बंद हो जायेगी ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 22 अंक 328-329
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