उधर कई दिन बीत गए जब बुल्लेशाह हवेली नहीं लौटा तो उसके परिवार वाले चिंतित हो उठे। किसी को नहीं पता था कि वह कहाँ और क्यों गया है।इसलिए गहरी खोजबीन शुरू हो गई। हर मुमकिन ठौर-ठिकानें पर उसे ढूँढा जाने लगा। खोज की इस दौर में वे जा पहुँचे बुल्लेशाह के उसी दोस्त के घर जिसके सलाह पर वह लाहौर के लिए रवाना हुआ था। इस दोस्त ने उन्हें बताया कि बुल्लेशाह रब की खोज में लाहौरी फ़क़ीर इनायत शाह के आश्रम पर गया है।कुटुम्बी पहले ही बुल्लेशाह के वैरागी रंग-ढंग देखकर दहशत में रहते थे। सय्यद खानदान के छोटे नवाब कहीं फ़कीर की राह ना चुन बैठे, यह डर उनके दिल के किसी कोने में हरपल बना ही रहता था।अब जब बुल्लेशाह के किसी फ़कीर के आश्रम पर जाने की बात सुनी तो एक पल के लिए तो उनकी साँसे ही अटक गई। उन्होंने उसी क्षण बुल्लेशाह को लीवा लाने के लिए उसके मित्र को लाहौर भेज दिया।मित्र भी पूछता-2 आखिर आश्रम पहुँच ही गया, परन्तु जैसे ही उसने भीतर प्रवेश किया उसके कदम रुक गए। क्योंकि आँखो देखी पर उसे विश्वास नहीं हुआ। क्या सामने देहाती लिबास में खड़ा नौजवान बुल्लेशाह ही है? नहीं-2 ,लेकिन शक्ल तो हुबहू बुल्ले से ही मिल रही है। परन्तु ये साहबजादे क्या कर रहे है- भैंसों की मालिश? छी-छी! समीप जाकर धीरे से बोला, “बुल्ले ,वाह बुल्ले! यहाँ तो काफी ठाट-बाठ से रह रहे हो!”मित्र का स्वर कटाक्षपूर्ण था, परन्तु बुल्लेशाह को होश ही कहां था। वह तो अपनी मस्ती में, सेवा में मग्न था। आनंदरस में लबालब डूबा था। इसलिये बस अपनी ही धुन में कह उठा,”हाँ यार , क्या बताऊँ? मुझे यहाँ कौन से ठाट-बाठ मिले हैं ,कैसा सुकून मिला है, लब्जों में तो ताकत ही नहीं है, कैसे बयाँ करूँ?”मित्र उत्साहित होते हुए बोला कि, “सब छोड़ ,पहले बता इनायत मिले या नहीं? क्या तेरा काम बना? जो नूरानी दीद के लिए तू मारा-2 फिरता था? वह हासिल हुआ या नहीं?”बुल्लेशाह बोले, *इनायत का मैं मोहताज़ हुआ**महाराज मिले मेरा काज हुआ**दर्शन पियादा मेरा इलाज हुआ**आप में आप समाया है**मेरे सद्गुरु अलख लखाया है।*हाँ, यहाँ महाराज इनायत भी मिल गए और उनका रहमों-करम भी।उन्होंने मेहरबान होकर मेरी बेकरार रूह को क़रार दे दिया।ख़ुदा का नूरानी दीद करा दिया।जो रूहानी नज़ारे आजतलक नहीं लखे थे उन्हें लखा दिया। जो अन्तःकरण सूखकर कुम्हला चुका था वह अमृतसुधा से सराबोर हो गया है। जहाँ विकारों की दुर्गंध बसी थी वहाँ सुमिरन की सुगन्ध बिखर गई है। आनन्द की कमल खिल उठे हैं। अब तो हर ओर आनन्द ही आनन्द है, रूहानी सुरूर है।मित्र बुल्लेशाह के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला ,”बस, बस बुल्ले!सचमें आज बरसों बाद मैने तुझेे यूँ ख़ुशदिल देखा है। पर पता है? हवेली में तेरे वालिद, अम्मी, भाईजान सब कितने परेशान हैं?उन्होंने ने ही तुझे लौटा लाने को मुझे यहाँ भेजा है।””लौटूँगा तो मैं हरगिज़ नहीं और लौटूँ भी क्यों उस कसुमबड़ेे के बाग में?”मित्र ने कहा, “कसुमबड़े का बाग! क्या मतलब?”हाँ बिल्कुल! यह संसार कसुमबड़े का बाग ही तो है! तूने कसुमबड़े के फूल देखे है ना, कितने सुन्दर और आकर्षक होते हैं। लेकिन छूने पर पता चलता है कि, उसका रंग कितना कच्चा है, कितने बारीक काँटे छिपे हैं उनमें? कैसे जहरीले डंक मारते हैं वे? कोई समझानेवाला नहीं था इसलिए मैं ताउम्र उन्हीं की फुहीयाँ चुगता रहा, उन्हीं की कँटीली झाड़ी में अपना दामन उलझाता रहा। पर अब,अब मैं यह नादानी नहीं करनेवाला। साईंजी ने मुझे रूहानियत के बाग में ला खड़ा किया है। अब तो मैं यहाँ इबादत के फूल सँजोऊँगा ,पाके इश्क़ की कलियाँ चुमूँगा।अच्छा!तो अब नवाबजादे यहीं रहेंगे! परन्तु शायद आपको पता नही कि,यह आपका दो दिन का बुख़ार है! यह दो दिन का नशा है!जब गर्मियों से इस छप्पर से छनकर अँगारे गिरेंगे और जाड़े में कहर बरसेगा तब पता चलेगा? सारी ख़ुमारी चुटकियों में ही उतर जायेगी। जब रोज-2 रूखी-सूखी खाने को मिलेगी ना तो इनायत के शक्ल में ख़ुदा नहीं गरीबी के दर्शन होंगे। सख्त ज़मीन पर सोकर जब शरीर अकड़ेगा तब उनके क़दमों में जन्नत नहीं धूलि-कंकड़ बिखरे दिखेंगे।बुल्लेशाह मुस्कुराते हुए बोले, “नहीं यार ! यह कोई चंद रोज़ का नशा नहीं है। मेरे सद्गुरु इनायत तो अब मेरी ज़िन्दगी बन चुके हैं।”*समाँ गए हैं मेरे जिस्म में वे जाँ की तरहा!**है जज्ब मेरे रूह में वे नबी ख़ुदा की तरहा!बस उनकी रहमतों की साये में ज़िन्दगी गुज़र जाएँ,मुझे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए?**उनके क़दमो में आए गर मौत भी आए, ये एक एहसान बस मौत का भी चाहिए!*मित्र ठिनककर बोला, “ठीक है बुल्ले! अगर तूने इस डगर पर चलने की ठान ही ली है, तो मेरे कुछ कहने का अब क्या फायदा?तुझे तेरी रूहानियत का बाग मुबारक हो! मैं तो चला अपने उसी कसुमबड़े के बाग में फ़ुहीये चुनने , ख़ुदा हाफ़िस!”मित्र ने यहाँ से सीधा बुल्लेशाह की हवेली का रास्ता लिया। वहाँ परिवारवाले बड़ी बेसब्री से उसकी बाँट जोह रहे थे। इसलिये जैसे ही उसने आँगन में क़दम रखा पूरा का पूरा सय्यद खानदान वहीं उमड़ आया। सबके पूछने पर मित्र ने बताया कि,”बुल्लेशाह नहीं आयेगा। वह उस अराई जाति के फ़कीर का शागिर्द हो गया है।उसने उन्हीं के आश्रम पर जिन्दगी गुजारने का फैसला किया है।इसलिए वह वापस नहीं लौटेगा।”यह सुनते ही भाइयों की तो तोरियाँ तन गई, नथुने फड़कने लगे, मुठ्ठियाँ भिच गई । गुर्राकर वे बोले, “उसकी यह हिमाक़त! देखते हैं कैसे नहीं लौटेगा? पहले तो रब का भूत सवार था, अब फ़कीरी का चढ़ा लिया। लगता है उसके ये भूत उतारने ही पड़ेंगें!”वहीं बुल्लेशाह के पिता की आँखों में बदनामी का डर तैर गया।ऊँच-नीच, जातिभेद की सैकड़ों दलीलें उनके भीतर कोहराम मचाने लगी। इन्हीं दलीलों को बुलन्द करते हुए वे बोले कि, “उसे कुल-मर्यादा का कोई लिहाज़ है की नहीं? एक अराई जातिवाले की झुग्गी में जाके बैठ गया!समाज क्या कहेगा? किस-2 को जबाब देते फिरेंगे? कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़के ने?”माँ छाती पीट-2 कर रोते हुए बोली,” कैसा पत्थर का ज़िगर है उसका? अपनी अम्मी का भी ख़याल नहीं आया? क्या यही दिन देखने के लिए उसे जना था?दुलार के आँचल में झुलाया था?उससे कहो, पहले यह कर्ज़ा उतारे नहीं तो मेरी लाश को लाँघकर जाये!”बुरखे की आड में से भाभीयाँ बोली,”भाईजान की कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी तो हैं कि नहीं? जरा तो सोचा होता, घर में जवान बहनें बैठी हैं? कल को इनका निक़ाह भी करना है? 36 बातें बनेगी, किस-2 का मुँह बन्द करते फिरेंगे?”देखते ही देखते बुल्लेशाह का सद्गुरु को समर्पित होना एक संगीन जुर्म क़रार दे दिया गया। कल तक जो खानदान का जगमग चिराग़ था, आज अचानक कलंक घोषित कर दिया गया।”नामाकुल, बेग़ैरत, एक पैसे का लिहाज़ बाकी नहीं रहा उसे। जो जी में आया करता है। कम्बख्त! अब उस अराई जातिवाले के छप्परखाने में जाकर बैठ गया। अब तो हमें उसकी वह आवारागर्दी, मनमर्जी तोड़नी ही पड़ेगी। चलो लाहौर चलते हैं।देखते है कैसे नहीं लौटेगा? हम भी सय्यद जाती के हैं!” बुल्लेशाह के भाइयों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। बौखलाहट सिर चढ़कर बोल रही थी। इसी गर्मजोशी में उन्होंने इनायत शाह के आश्रम जाने का फ़ैसला किया।पर रवाना होने के लिए जैसे ही उठे, उनकी पत्नियों ने उन्हें टोका,”अरे-2! आप सभी तो आपे से बाहर हो रहे हैं। देखिए हालात बहुत नाजुक हैं। बड़ी नज़ाकत से काम लेने की जरूरत है। इतने गर्म मिज़ाज से तो काम बनने की बजाय बिगड़ सकता है।डराने-धमकाने या ज़ोर -जबरदस्ती करने से तो कुछ होने-जानेवाला नहीं। वे अपने इरादों से नहीं हिलेंगे। हाँ, फ़कत रिश्तों का वास्ता देकर उन्हें कमजोर किया जा सकता है।विवाह योग्य बहनों की सौगन्ध देकर लौटाया जा सकता है। उनसे निहायत ही जज़्बाती ढ़ंग से बात करनी होगी। जो आप भाइयों के बस की बात नहीं ।इसलिए हम जाएगी भाईजान को लिवाने।”भाभियों का परामर्श भाइयों को जँच गया। माता-पिता ने भी उसे एकमत से स्वीकार किया। करते भी क्यूँ ना?आखिर अहम मुद्दा तो खानदान के चिराग को आँगन में वापस लाने का था? उसके लिए फिर मार्ग चाहे कोई भी अपनाना पड़े। ऐसे नहीं तो वैसे ही, कठोरता नहीं तो भावनात्मक दबाव डालकर ही सही।अगले दिन ही बुल्लेशाह की भाभीयाँ और बहने उसके मित्र के साथ लाहौर के लिए चल पड़े।परन्तु क्या विरोध की यह विक्राल आँधी बुल्लेशाह को डिगा पायेगी? प्रेमडगर के इस मतवाले को मोहनगरी में लौटा सकेगी?ए आँधियों! तुमने दीवारों को गिराया होगा! क्या गुल से लिपटे एक भँवरे को गिरा पाओगी……..?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …