बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग – 3

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग – 3


हजरत इनायत ने देखा कि बुल्लेशाह का जूनून परवान चढ़ चूका है। ईश्वर प्राप्ति बस उसकी एक अभिलाषा नही है, जीवन का मकसद बन चुका है। बुल्लेशाह की तड़प देख कर हजरत इनायत ने बुल्लेशाह को दीक्षा दे दी।दीक्षा पाते ही बुल्लेशाह के भीतर रूहानी रास प्रकट हो गया। वह अलौकिक दौलत से मालामाल हो गया। शाह इनायत ने एक लम्हे से भी कम देरी मे उसकी गैबी आँखें अर्थात दिव्य दृष्टि खोल दी। बुल्लेशाह के नैन एक बार फिर जल से भर आए उनसे आसुओं की धाराए बह निकली परंतु अब ये आसूँ वियोग मे नही झर रहे थे तड़प या विरह के वेदना को संजोए हुए नहीं थे, इनमे तो मिलन की सुनहली चमक थी, परमानंद का मौन इजहार था, जिस अपार खुशी को वाणी व्यक्त नही कर सकती थी ये बिन बोले कह रहे थे। बुल्लेशाह की इन सजग आँखों मे झांककर इनायत शाह हँसे और बोले “अब?” “अब क्या? कुछ नहीं साईं, अब और कुछ नहीं सब मिल गया। निराकार भी मिल गया और साकार भी मिल गया, निराकार को दिखा देने वाले आप मेरे साकार खुदा है।” इतना कहकर बुल्लेशाह इनायत के चरणों से लिपट गया। इनायत शाह ने कहा, “बुल्ले जो रुहानी ज्ञान आज तुमने पाया है वह सबसे सर्वोत्तम है, सब इल्मो का सुल्तान है। दोनों जहाँ मे इससे उमदा कुछ नहीं। परंतु, होशियार ध्यान रहे अभी सफर का केवल आगाज़ हुआ है, नुरे इलाही का दीद भर हुआ है उसमे टीकना अभी बाकी है। इसमें एकमिक होना शेष है, मंजिल अभी बहुत दुर है। उसे पाने के लिए तुम्हे ब्रह्म ज्ञान की डगर पर चलना होगा पुरे हौसले के साथ और विश्वास रखकर बढ़ना होगा।”आजतक बुल्लेशाह ने सिर्फ ग्रंथो मे पढा था कि गुरु अनंत कृपा के दाता होते है उनकी महिमा बेहिसाब होती है करुणा अपरंपार होती है वे शिष्य को जिलाते हैं एक नया रुहानी जीवन बख्शते है, पालते हैं, कदम कदम पर संभालते है और अंततः मंजिल उसके कदमों तले ला बीछाते हैं, परंतु आज ग्रथों मे दर्ज ये बातें उसके आत्म अनुभव बन रहे थे ।इनायत शाह ने बुल्लेशाह को विविध प्रकार के उपदेश दिए ,सेवा सुमिरन, समर्पण के अध्यायो पर भी उन्होंने रौशनी डाली। बुल्लेशाह एक एक हिदायत को धारण कर रहे थे,उनके ह्रदय से एक ही अरदास उठ रही थी कि, *जानता हुँ कि काबिल नही हुँ मैं, परंतु देना हौसला कि काबिल बन सकु।* *इन राहो पर चलना है बड़ा मुश्किल, पर दिना जज़्बा की हुक्म की तालिम कर सकूं।*आखिर मे इनायत बोले “अच्छा बुल्ले सांझ होने को है अब तुम घर लौट जाओ…।” “लौट जाऊं?पर कहाँ,क्यों ? साईं… जन्नत से भला कोई पीठ करता है क्या ? जिस मुल्क मे साक्षात रब मिला उसे कैसे छोड़ जाउ.. मेरे साईं मेरे मौला मै लौट जाने के लिए यहाँ नही आया हूँ, सदा सदा के लिए आपका बन जाने आया हूँ, आपको अपना बनाने आया हुँ तन मन से अपने सर्वस्व से आपका हो जाने आया हूँ कि,*अब तुझी मे समाने को जी चाहता है,**तुझमें मिल जाने को जी चाहता है।**ये हकीकत है कि तू आफताब है गगन का,* *मेरा बस एक किरण बन जाने को जी चाहता है।* *अब तो आपके पाक कदम ही मेरा ठीकाना है..,**आपका आश्रम ही मेरा आशियाना है।*सच कहता हूँ साईं… ये जो आपकी दहलीज है, न इससे अब बुल्ले का जनाजा ही निकलेगा, जीते जी तो यह दर छुटने वाला नही।”इनायत शाह भी ये जानते थे परंतु फिर भी ठीठोली करते हुए बोले “परंतु बुल्ल्या ! तू तो ठहरा ऊंची सय्यत जाती का और हम है एक साधारण से अराई जाती हमारे पास न हवेली के शाही ठाटबाट है न लजीज पकवान यहां तो सोने को सख्त जमीन है और खाने को रुखा सुखा, सोच लो क्या तुम मेरे आश्रम मे रह पाओगे? बुल्लेशाह भीगे गले से बोले कि “हे गरीब नवाब ! क्यूँ मुझ गरीब की हसीं उडा रहे हो आज मैं आपकी शहनशाही का जलवा देख चूका हूँ ,आपकी दरबार की शानोशौकत तो हवेली से कहीं आला है..यहाँ का तो जर्रा-जर्रा दौलत खाना है… ऐसी लज्जत है यहां कि रुह की भूख मिट जाती है ,जीगर की प्यास बुझ जाती है और इस रुहानी भूख प्यास के आगे जीस्मानी की क्या औकात है। कौन बेअक्ल उसकी कीमत डालेगा। दूसरा यह जमीन जो हरपल आपके चरणों को चूमती है यह सख्त नही साईं…सख्त नहीं… खूशनसीब है। इसमे लोटकर मै भी किस्मत का धनी हो जाऊंगा। हे खुदाबंध ! रहम करो.. मुझसे यह खुदाई दौलत मत छीनो.. पड़ा रहने दो मुझे अपने आश्रम के एक कोने मे। वाह रे शाहो के शाह सदगुरू.. तेरे नुरानी खजाने के सदके आज एक सय्यत खानदान का राजकुँवर भिखारी बना दामन फैला रहा है तेरी छत पर पड़ी कुटिया की पनाह चाह रहा है।” उसका अब एक ही भाव था कि *मिली है बांग रसूल दी, फुल खिडिया मेरा।* *सदा होया मैं हाजीरी हा हाजीर तेरा,**हरपल तेरी हाजरी ए हो सजदा मेरा।* अर्थात ए मेरे ओलिया ! तेरी रहमत के बाग ने मेरे दिल की बंजर जमीन पर फुल खीला दिए है अब तो हर पल हर लम्हा तेरे कदमों में हाजिर रहूं यही मेरी आरजू यही मेरा सजदा है। इनायत भी इस सबका भरपुर आनंद ले रहे थे अब उनके चहरे पर एक नटखटी मुस्कान फैल गई। शोख अंदाज में बोले, “और.. और वे तेरे अब्बू अम्मी क्या उनके मोहपाष को तोड़ पाएगा तू? “अब यह सूनकर तो बुल्लेशाह मचल उठा बालक की तरह ठीनकता हुआ बोला, “बस करो साईं क्यूँ दील्लगी करते हो भीतर से भर भर इश्क की प्याले पीला रहे हो और बाहर से अलग-अलग दुहाइयाँ देकर दूर करना चाहते हो। इन चंद लम्हो मे मैंने आपके पाक इश्क का इतना रस पी लीया है कि सांसारिक रिश्तों का मोह जहर लगने लगा है।” *पीया बस कर बहुती होई, तेरा इश्क़ मेरी दिल जोई।**मेरा तुझ बिन अवर न कोई, अम्मा बाबल बहन न भाई।* अम्मा बाबुल भाई बहन मुझे सब रीश्ते आपमें दिख रहे है साईं …बाहरी बधंन टूटने लगे है दिल की हर डोर आपके कदमो से जुड़ती जा रही है, *इस जहाँ को क्या दूँ तवज्जू, जो तू हुआ है हासिल।**ये जहाँ गमें जमी है, मै इसको भूल रहा हूँ।* *यू आपकी नजर मे मुझको पनाह मिली जो, मै आजतक जहाँ था उस घर को भुल रहा हूँ।*इनायत शाह राजी हो गए हाथ उठाकर उन्होंने बुल्लेशाह को अपनी रजामंदी दी इस तरह बुल्ले के ह्रदय में इनायत शाह का और इनायत के आश्रम मे बुल्ले का घर बन गया। परंतु बुल्लेशाह के परिवार वाले जिन्हें बुल्लेशाह बिना बताए ही निकल गये थे वे क्या सोच रहे होंगे।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

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