अद्भुत था गुरु अर्जुन देव जी का अपने गुरु के प्रति हृदयस्‍पर्शी भाव

अद्भुत था गुरु अर्जुन देव जी का अपने गुरु के प्रति हृदयस्‍पर्शी भाव


गुरु के चरण कमल में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु की कृपा अखूट असीम और अर्वननीय है। श्री गुरु अर्जुन देव जी भी एक बार गुरु से बिछोह के दौर से गुजरे थे। विरह के दौर से गुजरे उनके गुरु श्री रामदास जी ने उन्हें किसी विवाह उत्सव पर स्वयं से दूर लाहौर भेज दिया। साथ ही यह आज्ञा भी दी कि जब तक वापस लौटने का संदेश ना मिले तब तक वहीं ठहर कर संगत की अगुवाई करना ।गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर श्री अर्जुन देव जी लाहौर आ गए ।कुछ दिनों के पश्चात उत्सव संपन्न हुआ। दिन बीतने लगे सप्ताह बीता और अब तो एक महीना बीतने को था। परंतु गुरु दरबार से ना कोई बुलावा आया ना कोई संदेश.. अब क्या था उनका मन अकुलाने लगा विरह वेदना तीव्र से तीव्रतर होने लगी। रह रहकर मन में यही भाव तरंगें उठती कि, गुरूवर मैं यहां निपट अकेला हूं। कैसे बताऊं कि तुम बिन मेरे दिन कैसे गुजरते हैं। तुम्हारी जुदाई मुझे कितना सताती है। यहां एक एक पल एक एक कल्प जैसा लग रहा है, मानो मेरा जीवन ही ठहर गया हो ।अब और विलंब ना करो.. सच्चे बादशाह.. मुझे वापस बुला लो.. दोबारा अपने चरणों में स्थान दे दो। जब स्थिति असहनीय हो गई, तो उन्होंने इन भावों को शब्दबध्द करके अपने गुरु को एक पत्र लिखा। मेरा मन लोचे गुरुदर्शन ताई बिलप करे चात्रिक के नाई।अर्थात जैसे एक चातक पक्षी दिन रात पृथ्वी जल स्त्रोतको त्याग कर सिर्फ और सिर्फ स्वाति नक्षत्र की बूंद की आस में प्यासा रहता है। वैसे ही मेरा मन भी गुरुदेव… आपके दर्शन के लिए तड़प रहा है।ओ तो गुरु निराकार रूप में शिष्य के ह्रदय मंदिर में सदा समाए होते हैं। सुक्ष्म स्पंदन बनकर उसकी सांसों में रमण करते रहते हैं ।राइभर की भी दूरी नहीं है। परंतु फिर भी शिष्य गुरू के साकार मुरत को निहारना चाहता है। उनकी आंखें ना जाने.. क्यों.. शिष्यों की आंखें ना जाने क्यों.. सदा गुरु दरश को बावरी रहती हैं।किसीने एक शिष्य से पूछ ही लिया कि एक बार गुरु दरशन कर लेने बाद, बार-बार.. फिर फिर से.. देखना आवश्यक है क्या?शिष्य ने कहा है “हा.. है ।”क्यों कि यह हर क्षण नूतन होने वाला सौंदर्य है। जितनी बार देखता हूं उतनी बार मुझे गुरु के रूप में नई छवि ,नई शोभा का दर्शन होता है। बाबा फरीद जी कहते हैं.. *कागा करंग ढंढोलिया सगला खाईया मासु* ए कागा तु चाहे तो मेरे शरीर की बूटी बूटी नोच ले परंतु मेरी आंखों को बख्श देना इनको मत छेड़ना क्योंकि.. *ए दोई नयना मती छुवहु पीर देखन की आस*मैंने इन्हे गुरु के दीदार के लिए बड़ा सहेज कर रखा है। इनमें हर पल गुरु दर्शन की प्यास बनी हुई है।सचमुच गुरू भक्ति के मार्ग पर इन भावुक आंखों की भूमिका भी बड़ी निराली है । जब गुरू सामने होते हैं तो यह उनके दरस का आनंद लेती हैं। और जब गुरु दूर जाते हैं तो यही उनकी बाट जोहती है। उनकी विरह मे छम छम बरसात करती हैं।इस विषय में मस्त मलंग संत रामतीर्थ जी ने भी खूब कहा कि, यदि लूटना हो तुझे वर्षा का मजा तो आ मेरी आंखों में बैठ जा यहां काले भूरे और लाल तरह-तरह के बादल सदा झड़ी लगाए रहते हैं। यू तो प्रेम की सबसे उँची स्थिति यह मानी जाती है कि प्रिय के बिछुड़ते ही प्राण छुट जाए ईसी ओर लक्ष्य करके माता सीता जी कहती है..कि हे प्रभु आप अलग होते ही मुझे मर जाना चाहिए था लेकिन हे नाथ! यह तो मेरे नेत्रों का अपराध है, *नाथ सु नयन ही कोआपराधा* यही मेरे प्राणों को हठपूर्वक बांधे हुए है क्योंकि इन्हें पुनः आपको देखने की लालसा है। आपके लीलाओं के दर्शन की लालसा है ।आगे कहती है माता सीता कि हे प्रभु ! यह रूई जैसा शरीर कबका विरह अग्नि में सांसों की हवा पाकर भस्म हो चुका होता लेकिन इन आँखों ने इसे बचाए रखा है।ये निरतंर आपके याद मे रोती रहती है। इनसे निकलते अश्रु धारा शरीर को विरह अग्नि में जलने नही देती इसलिए मेरे प्राण निकल नहीं पातेनयन स्रवही जन निज हित लागी जरेए न पाव देह बिरहागी।। कैसा ह्रदय स्पर्शी और भावपूर्ण चित्रण है यह भावों कि ऐसी उच्चावस्था है जहां आँखे बोला करती है। अब आँखों के पास शब्द तो है नहीं इसलिए आप आँसू बहाकर ये अपनी व्यथा कहा करती है। यह गति बुल्लेशाह की भी हुई जब उनके गुरू हजरत इनायत उनसे रुठ गए। उन वियोग के क्षणों में उनकी आंखों पर क्या क्या गुजरी वे एक काफी के माध्यम से बड़ा सुदंर बया करते हैं किहुजरु पीर अँखीया वीच रड़के। दुख दिया वागंन फोड़े मै रोवा तैनु याद करके।।तेरी याद में रो रो कर मेरी आँखें फोड़े की तरह दुखने लगी है। साईं मैं रो-रोकर अंधा हो चुका हूं क्योंकि तेरे बिना बस रोना ही रोना है। *जदु मीठ्ठी नींदे सोंदी है खुदाई, सौह रब दी ना अख कदे लाई, मै रोवा तैनु याद करके।* आधी रात के समय जब सारा संसार सो जाता है सभी नींद में मग्न होते है देखो तब भी ये आंखें तेरी याद में रोती रहती है । इन नैनों में नींद कहां और यदी भुल से कभी नींद आने भी लगती है तो तेरी याद इन्हें ताना देती है। बस यहीं था तेरा मुर्शीद से इश्क.. कल तक तो तुम दीदार के लिए रोती थी आज गुरु से दूर होते ही उनमे बैरन नींद को जगह दे दी।एक बार किसी भावुक गोपी ने स्वप्न में प्रभु के दर्शन किए। सुबह ऊस गोपी ने स्वप्न मिलन की घटना दुसरी गोपी को सुनाई उस प्रेम में गोपी ने कहा धन्य हो गोपी जो तुम स्वप्न में तुम प्रभु से मिल लेती हो। परंतु यहां तो यहां तो प्राण प्यारे कन्हैया के जाने के बाद बैरन नींद भी छोड़ कर चली गयी है। *कही चुरा ले चोर न कोई दर्द तुम्हारा याद तुम्हारी इसलिए जाग कर जीवन भर आँसुओं ने की पहरेदारी।*विरह की यह भाव अवस्था बुद्धि का विषय नहीं है। इसे समझने के लिए तर्कयुक्त बुद्धि नहीं प्रेम भरा ह्रदय चाहिए यही कारण था कि उद्धव जी की शास्त्र विद बुद्धि ब्रज की सीधी साधी गोपियों के निश्चल प्रेम के आगे हार गई।वे रोती हुई गोपीयो के लिए प्रभु कृष्ण का संदेश लेकर आए थे उनके सिर पर ज्ञान की गठरी थी तो गोपीयो के आँखों मे विरह वेदना का नीर। वे अपने ज्ञान वैराग्य और तर्को से गोपीयो की गीली पलके सुखा देना चाहते थे। परंतु हुआ कुछ उलटा ही गोपियों ने ही उनके ह्रदय की खाली गागर में प्रेम का जल भर दिया। उनके जीवन में भक्ति व प्रेम का नया अध्याय खोल दिया। उन्होंने वापस मथुरा पहुंच कर प्रभु कृष्ण को उलाहवना देते हुए कहा कि आपने गोपियों को क्या दिया ? सिर्फ आँसू प्रभु यह ठीक नहीं किया आपने। वे आपसे कितना प्रेम करती हैं और आप उन्हें दर्द देते है।तब प्रभु श्रीकृष्ण ने भक्तिपद का एक मार्मिक सत्य उजागर किया। हे उधव! तुम क्या जानो मैंने गोपियों को क्या दे दिया है, मेरे खजाने का सबसे अनमोल रत्न है वीरह इसे ही मैंने उन पर वार दिया। वस्तुतः सत्य यही है कि, जिसपर तुम हो रीझते उसे क्या देते यदुवीर,* *रोना-धोना ,सिसकना ,आंहो की जागीर। भला यह कैसी तुकबंदी रोना-धोना, और जागीर । बात समझने वाली है दरअसल विरह अग्नि के समान होता है यू तो अग्नि का स्वभाव होता है जलाना परंतु विरह एक ऐसी अग्नि है जिसमे तपीश नही शीतलता है आँच नही ठंठक है। तभी तो विरह की अवस्था में भी परम आनंद का अनुभव होता है। आंखों से बरसते आंसुओं में भी अलौकिक रस भरा होता है।इसलिए विरह निःसंदेह एक शिष्य..एक भक्त के लिए सबसे अमुल्य नीधि है। बाबा फरीद कहते हैं विरहा तु सुलतानु विरह तो शाहों का शाह है।निर्मल और पवित्र कर देने वाली सबसे उँची भावना है।फरीदा जिस तनु बिरह जाहु न उपजे सो तन जानू मसानजिस ह्रदय मे विरह नहीं वह मानव स्मशान के तरह है।बेजान और निष्प्राण है ।इसलिए धन्य है वे भक्तजन जिनके भीतर प्रभु… गुरू विरह उमड़ती है।धन्य है वे आंखें जो गुरूप्रेम मे रोया करती हैं। वह ह्रदय जिससे प्रेम रस की धाराएं फुटा करती है वे आहे जो पल प्रतिपल गुरू को पुकारा करती है।

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