स्वयं की अपेक्षा गुरु के प्रति अधिक प्रेम रखो। गुरु प्रेम और करुणा की मूर्ति है। आपको अगर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हो तो आप को भी प्रेम और करुणा की मूर्ति बनना चाहिए।
वह किसी संत की सभा बैठी थी।
किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया, “महाराज! बहुत अच्छे-2 साधको का पतन क्यों हो जाता है? हमने देखा है कि कई साधक जिनकी वेदांत में अच्छी गति थी, वे भी संसार की ओर सन्मुख हो गए। इस पतन से बचने का कोई उपाय नहीं है…? यदि है तो बताईये।”
संत थोड़े शांत हुए और जिज्ञासु से कहा कि, “प्रेम करो, ब्रह्मविद्या के दाता से प्रेम करो, सद्गुरु से प्रेम करो।” देखो यह कितने सरस शब्द है, जैसे मीठी चाशनी में डूबे रसगुल्ले जैसे। एकबार धीरे से जप कर देखो कि प्रभु मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तेरा, तू मेरा। कहो मेरे साथ, “हे प्रभु! मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तेरा, तू मेरा।” खूब स्वाद आया? आपके ह्रदय का कोई तार झनझनाया? कुछ गुदगुदाहट महसूस हुई?…यदि हाँ! तो मुबारक हो! तुम्हारी गाड़ी शिष्यत्व की पटरी पर सही दौड़ रही है और ऐसे साधक का पतन असंभव है।
मात्र ब्रह्मविद्या से प्राप्तकर्म प्रेम करना, यह रूखा वेदांती बना देता है। लेकिन ब्रह्मविद्या के दाता जो सद्गुरु है उनसे प्रेम करना, यह वेदांत के तत्व को उजागर कर देता है।
पद्मपुराण में एक बहुत ही प्रेरणाप्रद कथा आती है, कि एकबार जाबाली नाम के ब्रह्मज्ञानी मुनि एक वन में भ्रमण कर रहे थे। सहसा उन्होंने देखा कि बावली के तट पर वटवृक्ष की छटा तले एक परम रूपशालिनी तेजस्विनी देवी ध्यान कर रही है। पूर्णमासी की चन्द्रमा जैसी उसकी ज्योत्सना दूर-2 तक छटक रही है।
संत जाबाली जी ने कुतूहलवश उन देवी के समीप जाकर पूछा कि, “हे परम कल्याणी! आप कौन है?”
तब ये तप रहित देवी बोली, “मुनिवर! मैं अतुलनीय ब्रह्मविद्या हूँ।”
ब्रह्मविद्या अहं तुला योगिन्द्रेर्या च मृगर्येत।
“वही परमविद्या जिसकी प्राप्ति महान योगीजनों के लिए भी दुर्लभ है। “
मुनि जाबाली बड़े ही आश्चर्य से कहे कि मेरे अहोभाग्य जो साक्षात ब्रह्मविद्या का साकार दर्शन हुआ। परन्तु देवी आपकी सिद्धि होनेपर तो जीव स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसकी साधना पूर्णता को छू लेती है। फिर भला आप स्वयं क्यों और किस साधना में लीन है? तल्लीन है?
ब्रह्मविद्या देवी ने कहा, हे मुनिवर! आपने सत्य कहा।
ब्रह्मानंदीन पूर्ण अहं।
“निःसन्देह मैं ब्रह्मानंद से पूर्ण हूँ।”
तेन आनंदीन तृप्त देहि।
मेरी बुद्धि आनंद से तृप्त भी है। परन्तु फिर भी मैं इस घोर वन में बैठी हुई प्रार्थनारत हूँ। कारण-
शून्यं आत्मानं मन्नेरतीं बिना
मैं प्रेम के बिना स्वयं को बहुत सुना पाती हूँ। मुझे अपना आनंद भी बेहद शुष्क और शून्य सा लगता है।
साक्षात् ब्रह्मविद्या भी उनके दाता के प्रति प्रेम के बिना अर्थात सद्गुरु के प्रति प्रेम के बिना स्वयं को व्याकुल मानती है, स्वयं को रूखा-सूखा और सूना मानती है। फिर सोचनेवाली बात है कि आप ब्रह्मविद्या को साधनेवाले साधक भला गुरुप्रेम के बिना कैसे अपनी साधना का पूर्ण संधान कर पाएँगे।
वैसे भी क्या आपने कभी किसी हरी बूटी को सिर्फ सूर्य की उज्ज्वल किरणों से उगता देखा है? नही ना… उसे धरती की नम और तरल गोद भी चाहिए। गुरु ने तो एक निःस्वार्थी और परिश्रमी किसान की तरह आपकी ह्रदयभूमि पर ज्ञान का बीज डाल दिया।
आप ध्यान साधना के प्रकाश किरणों से उसे सेने भी लगे। चलो, सेवा की बाढ़ भी उसके इर्दगिर्द खड़ी कर दी। सत्संग विचारो रूपी खाद का उसपर टीला भी सजा लिया। परन्तु जरा सोचिए, क्या दरार पड़ी ठोस पत्थर जमीन पर वह बीज फल और फूल पाएगा…? नहीं…उसे थोड़ा बहुत तो प्यार के रस से सींचो। प्रेम के कुछ बूँदे तो चिड़काओ, भावों की सजल बयार से उसे सहलाओ। कही किसी कोने से तो आवाज उठाओ कि गुरुदेव! मैं आपका हूँ और आप मेरे है। याद रखना आपकी ह्र्दयभूमि अपने गुरुदेव के उल्फ़त की रस से जितनी तर होगी,आपके जीवन का पौधा उतना ही कद लेगा।
ज्ञानेश्वरी के 9वें अध्याय में ज्ञानेश्वर महाराज जी लिखते है कि , “हे अर्जुन! मुझमें अपनापन किए बिना सरसता नहीं आ सकती। मैं केवल बाह्यकर्ममय साधनों से नहीं रिझता। “
प्रतिदिन ध्यान-साधना करना जरूरी है, परन्तु केवल इतना ही काफी नहीं।इन पुरुषार्थो को करते हुए आपको गुरुप्रेम का स्नेहील, सरस एहसास भी अपने अंदर जगाना होगा। नहीं तो इस एहसास के अभाव में हमारा सेवाकर्म, हमारा वेदांत भी बहुत छुछा और बेस्वाद सा रहेगा।
गुरु से प्रेम जीवन के समस्त कर्मों में रँग भर देता है। जीवन की समस्त साधनाओ को रंगीन कर देता है। लाख के सौदागरों का अनुभव है कि पिघली हुई लाख में चुटकीभर हल्दी डालने से वह सदा के लिए बसन्ती रँगसा हो जाता है और आँधी, तूफान, बारिश तक उससे इस रँग से छीन नहीं पाती।
आज आप पर भी तो इस मार्गपर न जाने गुरुदेव द्वारा कितने ही इंद्रधनुषिय के रँगो का छिड़काव होता ही रहता है। परन्तु ये रँग आपके शिष्यत्व पर क्यों नहीं चढ़ते? क्यों आप गुरुभक्ति के बसन्ती रँग में नहीं रँगते?…क्योंकि शर्त जो पूरी नहीं हुई, ह्रदय पिघला हुआ द्रवित नहीं हुआ। गुरुप्रेम की तरलता नहीं है। ठोस है, पत्थरसा है। इसलिए गुरु की भक्ति का बसन्ती रँग हमारे जीवनपर नहीं चढ़ता।
भरा नहीं जो भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह ह्रदय नहीं पत्थर है,
जिसमें सद्गुरु का प्यार नहीं।
जो चमने दिल गुरुप्रेम से आबाद नही, वह शमशान है शमशान! शमशान जहाँ मुर्दे फूँके जाते है। जहाँ भुत-प्रेतों अर्थात कुविचारों, विषय-वासनाओं ने डेरा डाला होता है। ऐसे दिल में धड़कन की धकधक तो होती है, परन्तु जीवन की चहक नहीं होती। लोहार की धुकनी की तरह उसमें सूनी-2 साँसे चलती हैं, परन्तु प्राणों का संगीत नहीं गूँजता।
तो सोचना होगा कि आप अपनी ह्र्दयबगिया में आखिर कबतक पतझड़ लिए घूमते फिरेंगे। अपने प्यारे से प्रभु, अपने गुरुदेव के प्रति प्यार की बसन्त को कब बुलावा देंगे। यकीन मानिये इस मार्ग का हर मील पत्थर आप मे यही एहसास जगाने आता है।
इसलिए पल-2 अपने आप को निहारते हुए धीरे से गुनगुनाये कि , हे प्रभु! मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तुम्हारा। जिस दिन यह कहते हुए साँसे लम्बी और गहरी हो जाए, आँखो की प्यालियों से पानी छलक जाए, गले में भावों का फँदा फस जाए तो बस समझियेगा की गुरुभक्तिरूपी पौधा फलित हो रहा है, साधना मंजिल की ओर बढ़ रही है।