उस योगी ने हँसते हुये दिलीपराय को वह बता दिया जो उसके सिवा कोई नहीं जानता था

उस योगी ने हँसते हुये दिलीपराय को वह बता दिया जो उसके सिवा कोई नहीं जानता था


“हे महान! परम सन्माननीय गुरुदेव ! मैं आदरपूर्वक आपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके चरण कमलों के प्रति अटूट भक्तिभाव कैसे प्राप्त कर सकूँ और आपके दयालु चरणों में मेरा मन हमेशा भक्तिभावपूर्वक कैसे सराबोर रहे? यह कृपा करके मुझे कहें।” इस प्रकार कहकर खूब नम्रतापूर्वक एवं आत्मसमर्पण की भावना से शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को दंडवत प्रणाम करे और उनके आगे गिड़गिड़ाये।बाबा के पास कुछ गृहस्थी शिष्य आये और एक युवक की तरफ इंगित करते हुए बोले,” बाबा इसे लगन करना है।”इतना सुनते ही बाबा उनकी बात पूरी होने के पहले ही बोल उठे, “लगन करना है? वाह! देखो भाई, लगन तो सिर्फ प्रभू चरणों में होना चाहिये या फिर गुरु के चरणों में। इसे ही सच्ची लगन कहते है, बाकी तो सब बंधन है। संसार की लगन को तो हटाना है। क्या कम लगन है संसार में तुम्हारा कि एक और लगन बढ़ाने चले हो ?”बाबा कुछ देर शांत होकर फिर बोले कि, “देखो जब गुरु शिष्य को दीक्षा देते है, वही सच्चा विवाह है और वही सच्ची लगन है। उसी लगन को निभालो। यहाँ तो संसार से लगन काटने के लिए हम बैठे हैं। हम कोई लगन-वगन नहीं कराते, हम तो यहाँ लगन तोड़ते हैं। बस और क्या बोलूँ?”दूसरे शिष्य ने कहा : “बाबा शास्त्रों में वर्णन है कि गुरु अन्तर्यामी होते हैं, सबके घट-2 की जानते हैं। परन्तु गुरुदेव, हम सब तो यहाँ गुरुकुल में ढेर सारे लोग रहते हैं, कई गृहस्थी भी आपके शिष्य है, गुरु मानते हैं।फिर गुरुजी आपको एक-2 शिष्य के बारे में कैसे पता चलता होगा?”बाबा ने कहा : शिष्य जब गुरु को वरन कर लेता है अथवा गुरु उसे जब दीक्षित कर स्वीकार कर लेते हैं, तभी से गुरु उस शिष्य के अन्तरघट में विशेषरूप से विराजमान हो जाते हैं। गुरु प्रत्येक शिष्य के प्रत्येक मनःस्थिति के साक्षी होते हैं। शिष्य को उसके मनःस्थिति के अनुसार उसको कैसे उन्नत किया जाय यह गुरु बड़े ही ठीक ढंग से जानते हैं। जितना तुम स्वयं अपने बारे में नहीं जानते उससे कहीं अधिक गुरु तुम्हें जानते हैं।इस बात की पुष्टि के लिए एक सत्य घटना सुनाता हूँ। यह घटना महर्षी अरविंद और उनके शिष्य दिलीपकुमार राय के बारे में है।विश्वविख्यात संगीतकार दिलीपराय उन दिनों श्री अरविंद से दीक्षा पाने के लिए जोर- जबरदस्ती करते थे। वे ऐसी दीक्षा चाहते थे जिसमें श्री अरविंद दीक्षा के साथ ही उनपर शक्तिपात भी करे। उनके इस अनुरोध को महर्षी हर बार टाल देते थे। ऐसा कई बार हो गया। चलो इससे दिलीप निराश हो गये।निराश दिलीप ने सोचा कि इनसे कुछ काम बननेवाला नहीं है। चलो किसी दूसरे गुरु की शरण में जाये और उन्होंने एक महात्मा की खोज भी कर ली। यह संत पॉन्डिचेरी से काफी दूर एक सुनसान स्थान में रहते थे। दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन संत के पास पहुँचे। तो वह इसपर बहुत हँसे और कहने लगे, “तो तुम हमें श्री अरविंद से बड़ा योगी समझते हो। अरे! वह तुमपर शक्तिपात नहीं कर रहे , यह भी उनकी कृपा ही है। गुरु के हर कार्य में उनकी कृपा छुपी होती है, परन्तु उसे निम्न मनवाला, निम्न कोटि का शिष्य समझ नहीं पाता।”दिलीप राय को आश्चर्य हुआ! यह संत इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं? वे महापुरुष कहे जा रहे थे कि,”तुम्हारे पीठ में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वे तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे।”अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा : “मालूम है, तुम्हारी यह बातें मुझे कैसे पता चली? अरे!अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से तुम्हारे गुरु स्वयं यहाँ आये थे। उन्होंने ने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बताई।”उन संत की बाते सुनकर दिलीप तो अवाक रह गया! अपने शिष्यवत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। परन्तु यह बातें तो महर्षी उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यूँ नहीं? यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँचकर अपने गुरुदेव श्री अरविंद से पूछा तो वे हँसते हुए बोले कि,”यह तू अपने आप से पूछ कि क्या तू मेरी बातों पर आसानी से विश्वास कर लेता? जब मुझपर भरोसा नहीं था, तभी तो तू वहाँ गया।”दिलीप को लगा, हाँ! यह बात भी तो सही है! निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता, परन्तु अब भरोसा हो गया है। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला। निश्चित समय पर श्री अरविंद ने उन्हें शक्तिपात की दीक्षा प्रदान की।”गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सबकुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों-2 का साक्षी और साथी होते हैं। किसके लिए क्या करना है, कब करना है? वह बेहतर जानते हैं। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उनपर पूर्ण भरोसा-विश्वास।” इतना कहकर बाबा हँसने लगें और कहा तुम यही करो। मैं तुम्हारे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है।अपनी बात को बीच में रोककर अपने देह की ओर इशारा करते हुए बाबा बोले,”मेरा यह शरीर रहे या ना रहे परन्तु मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा।समय के अनुरूप सबके लिए सबकुछ करूँगा। किसी को भी चिंतित-परेशान होने की जरूरत नहीं है।”गुरुदेव के ये वचन प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र के समान है।अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य को कोई चिंता और भय नहीं होना चाहिए।

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