गुरु और शिष्य के बीच जो वास्तविक संबंध है.. उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह लिखा नहीं जा सकता ,वह समझाया नहीं जा सकता।
सत्य के सच्चे खोजी को करुणा स्वरूप ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास श्रद्धा और भक्ति भाव से जाना चाहिए। उनके साथ चिरकाल तक रहकर सेवा करनी चाहिए।
आपके हृदय रूपी उद्यान में..निष्ठा, सादगी,शांति, सहानुभूति, आत्म संयम और आत्म त्याग जैसे पुष्प सुविकसित करो और वे पुष्प अपने गुरु को अर्घ्य के रूप में अर्पण करो ।
अब गुरु की दृष्टि के बारे में बात करें तो वह तो निराली और अनोखी होती है। जिसके समतुल्य इस जगत में शिष्य के लिए और कोई मूल्यवान वस्तु नहीं और गुरु की छवि के बारे में बात करें तो उनकी छवि का वैभव ऐसा है कि समस्त कायनात का रस उनके श्री दर्शन में ही समाया हुआ है। तभी तो जहां संसारियों ने अपने नैनों में संसार की तड़क-भड़क बसाई, वही गुरु प्रेमियों ने अपने गुरु अपने प्रभु की मनोहारी छवि को बसाया।
कुछ ऐसे ही दरस दीवाने हुए जिन्होंने संसार के सकल दृश्यों के प्रति अपनी दृष्टि मूंद ली।
नैन दीयों में केवल अपने प्यारे की जगमग ज्योत जगायी।
एक बार सूर बाबा अपनी मस्ती में चलते चलते किसी गहरे गड्ढे में जा गिरे। प्रभु ने उसी क्षण प्रकट होकर उन्हें बाहर निकाला अपने रुप सौंदर्य की सुधा पिलाने के लिए उन्हें दृष्टि के प्याले भी दे डालें ।
सूर बाबा एक ही नजर में इस रुप मदिरा से छक गए, निहाल हो गए और निहाल होकर झूमने ही लगे थे कि प्रभु अंतर्ध्यान होते दिखाएं दिए।
सूर बाबा ने कहा “मुरारी! तुम बांह छुड़ाकर जा तो रहे हो परंतु एक कृपा तो करते जाओ “
“बोलो बाबा”
“मुरारी हमें पहले की तरह ही नेत्रहीन बना कर जाओ”
” नहीं नही.. बाबा ऐसा क्यों, आंखे रखो ”
सूर बाबा ने कहा,
“परंतु किस लिये , मुरारी आंखों की दावत तो हो गई ,श्याम सुंदर आज इन आंखों ने परम प्रसाद को चख लिया भला अब किसे देखने के लिए इन्हें अपने पास रखूं”
जिन नैनन ते यह रूप लख्यो, उन नैनन ते अब देखिय कहा
धन्य है ऐसी तल्लीन आँखे… बलिहारी है उनकी ऐसी समाधि।
सूफी संतों में आंखों की इस एक-तार एक-निष्ठ प्रीति को मुरुदी की पूर्णता अर्थात शिष्यत्व की पूर्णता मानी है।
एक बार सूफी संत सादीक ने अपने मुरीद अर्थात शिष्य बायजित से अपने कमरे के अलमारी में रखी कोई किताब लाने को कहा।
शिष्य ने मासूम आवाज में पूछा “हुजूर! कैसी अलमारी ?”
संत सादिक विस्मित होकर बोले “ताज्जुब है, तुम रोजाना इतने घंटे इसी कमरे में हमारी सोहवत में रहते हो और हमें उस अलमारी से किताब भी निकालते हुए देखते हो तब भी तुम यह पूछ रहे हो कि कैसे अलमारी ?”
शिष्य बायजित बोला कि, “साहब! जिस कमरे में कुल कायनात का नूर घूमता फिरता दिखता है उस कमरे की फीकीं चीजों में भला मेरी निगाहें कैसे उलझती।”
संत सादिक शिष्य पर बड़े प्रसन्न हुए कहा, “बायजित! आज तूने खुदा के शरीरी वजूद से एकता हासिल कर ली है । तेरी साधना पूर्ण हो गई है। अब तेरी अशरीरी वजूदी में गति होगी।
काश!! आंखों की ऐसी मतवाली रस्म हम भी निभा पाए। ये आंखें नश्वरता की खाक छाननी छोड़ दे गुरुदेव की शाश्वत रूप में खुद को खो दे। काश… ऐसा हो कि हमारी नजरों के सारे बिखरे धागे बटकर एक पक्की डोर बन जाए और वह डोर लिपटकर गुरुदेव को बांध ले। काश..काश हम संसार की हर बहार… हर गुलजार.. में अपने सतगुरु की दिव्य मुस्कान का जलवा देंखे। अपने हर कर्म जीवन की हर मर्म उन्हीं को विचार और विहार करता हुआ पाएं।
अपने शरीर की.. मन की.. हृदय की.. आत्मा की.. हर आंख में उन्हें ही… बस उन्हें ही बसा सके।
पलकों की सलाखों के पीछे काश.. हम उन्हें हमेशा के लिए कैद कर पाए।
आओ प्यारे सतगुरु, पलक झाप तोहि लेउ।
ना मैं देखूं और को ना तोहे देखन देउ ।
उतली पलंग पर तोहे दिन रैन मै बिठाउ,
पलकों की चिक डारी के कैदी तुम्हें बनाऊं।
आओ प्यारे सतगुरु पलक झाप तोहि लेऊ।