केवल गुरु की शरण में जाने से ही जीवन को जीता जा सकता है। गुरुभक्तियोग के अभ्यास से, मन को संयम में लाने से कामवासना की शान्ति हो सकती है। गुरुसेवा आपको बिल्कुल स्वस्थ और तंदुरुस्त रखती है।
गुरुभक्तियोग का अभ्यास आपको अमाप एवं अनहद आनंद देता है।गुरुसेवा अद्वैत भाव में एकरूपता पैदा करती है। गुरुभक्तियोग साधक को चिरायु और अनंत सुख देता है। गुरुतत्त्व बुद्धिगम्य ही नहीं, ध्यानगम्य और भक्तिगम्य भी है।
जिनकी अन्तरचेतना ने भक्ति का स्वाद चख रखा है, जो ध्यान की गहराइयों में अन्तरलीन हुए हैं, उन्हें यह सत्य सहज ही समझ में आ जाता है। इस तथ्य को श्रीरामकृष्णदेव के शिष्य लाटू महाराज स्वामी अद्भुतानंद के उदाहरण से समझा जा सकता है।
श्री ठाकूर एवं उनके शिष्यसमुदाय की जीवनकथा को पढ़नेवाले सभी जानते हैं कि लाटू महाराज अनपढ़ थे। गुरुभक्ति ही उनकी साधना थी। भक्तसमुदाय में बहुपद प्रचलित श्रीरामकृष्णदेव की समाधिलीन फोटो जब बनकर आई तो श्रीठाकुर ने स्वयं उसे प्रणाम किया।
लाटू महाराज बोले, “ठाकुर! यह क्या? अपनी ही फोटो को प्रणाम।”
इसपर ठाकुर हँसे और बोले , “नहीं रे! मेरा यह प्रणाम इस हाड़-मास के देहवाले के चित्र को नहीं है। यह तो उस परम वंदनीय गुरुचेतना को प्रणाम है जो इस फोटो की भावमुद्रा से छलक रही है।”
ठाकुर के इस कथन ने लाटू महाराज को भक्ति के महाभाव में निमग्न कर दिया। इन क्षणों में उन्हें परमहंस का एक और वाक्य याद आया।
जे राम जे कृष्ण से रामकृष्ण।
अर्थात जो राम, जो कृष्ण वही रामकृष्ण।
परन्तु इन सब बातों का अनुभव कैसे किया जाय?
इस जिज्ञासा के समाधान में ठाकुर ने कहा कि भक्ति से और ज्ञान से। इसीसे तेरा सबकुछ हो जायेगा। अपने सद्गुरु के वचनों को ह्रदय में धारण कर।
लाटू महाराज गुरुभक्ति को प्रगाढ़ करते हुए गुरु की ही ध्यान और साधना में जुट गए। उनकी यह साधना निरन्तर, अविराम, तीव्र से तीव्रतर एवं तीव्रतम होती गई।
इस साधनावस्था में एक दिन उन्होंने देखा कि ठाकुर किसी दिव्यलोक में है। बड़ा ही प्रकाश और प्रभापूर्ण उपस्थिति है उनकी। स्वर्ग के देवगन विभिन्न ग्रहों के स्वामी रवी, शनि, मंगल आदि उनकी स्तुति कर रहे हैं।
ध्यान की इन्हीं क्षणों में लाटू महाराज ने देखा कि ठाकुर की पराचेतना ही विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव में समाई है। माँ महाकाली भी उनमें एकाकार है।
ध्यान में एक के बाद अनेक दृश्य बदले और लीलामय ठाकुर के दिव्य चेतना के अनेक रूपों का साक्षात्कार होता गया। अपनी इस समाधि में लाटू महाराज कबतक खोये रहे उन्हें पता नहीं चला।
समाधि का समापन होने पर लाटू महाराज पंचवटी से सीधे ठाकुर के कमरे में आये और उन्हें वह सब कह सुनाया जो उन्होंने अनुभव किया था।
अपने अनुगत शिष्य की यह अनुभूति सुनकर परम कृपालु गुरुदेव ने हँसते हुए कहा कि, “अच्छा रे! तू बड़ा भाग्यवान है। माँ ने तुझे सबकुछ सच-2 दिखा दिया। जो तूने देखा वह सब ठीक है।” फिर थोड़ा गम्भीर होकर उन्होंने कहा कि शिष्य के लिए गुरु से भिन्न तीनों लोकों में और कुछ नहीं है। जो इसे जान लेता है उसे सबकुछ अपने आप मिल जाता है। ठाकुर के यह वचन प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र है।