तीन मूर्तियों की कथा

तीन मूर्तियों की कथा


अपने गुरु को ईश्वर मानकर उनमे विश्वास रखो उनका आश्रय लो ज्ञान की दीक्षा लो। गुरु भक्ति योग शुद्ध विज्ञान है। वह निम्न प्रकृति को वश में लाने की एवं परम आनंद प्राप्त करने की रीती सिखाता है।गुरू मे अविचल श्रद्धा शिष्य को कैसे भी मुसीबत से पार होने की गुढ शक्ति देता है। गुरु में दृढ़ श्रद्धा साधक को अनंत ईश्वर के साथ एक रुप बनाती है । गुरू के उपदेशों को श्रवण करना यह शिष्यत्व का एक महत्वपूर्ण पहलु है। श्रवण का मतलब होता है सुनना अपने गुरु के परामर्शो, उपदेशों निर्देशों, आदेशों और शिक्षाओं को सुनना और उनके प्रति सजग रहना यह संपूर्ण श्रवण है।गुरू के साथ शिष्य का संबंध व्यक्तिगत होता है। अगर तुम सजग और सतर्क नहीं रहोगे तो पता नहीं विशेष रूप से तुम्हारे लिए उपयोगी कौन सी बात सद्गुरु द्वारा कब कह दी जाएगी और तुम चुक जाओगे। श्रवण में सजगता की अत्यांतिक आवश्यकता होती है। एक बार एक राजा के दरबार में तीन मूर्तियां लाई गई। वे सभी एक जैसी दिखती थी। जो व्यक्ति उनको लाया था उसने राजा से प्रश्न किया “क्या इस दरबार में कोई बता सकता है कि इन मूर्तियों में कौन सी सबसे श्रेष्ठ मूर्ति है ? कौन सी मध्यम श्रेणी की है और कौन सबसे निम्न श्रेणी की?” सभी दरबारी इस प्रश्न से अचंभित रह गए। क्योंकि सभी मूर्तियां एक जैसी थी। कहीं से भी देखने पर इनमे कोई भीन्नता न थी।लेकिन उनमें से एक दरबारी चतुर था उसने कहा, “महाराज मुझे जरा इन मूर्तियों की जांच कर लेने दीजिए।” उसने तीनों मूर्तियों की चारो ओर घुमकर उनका बारीकी से निरिक्षण किया। उनकी आंखों, नासिकाओ, कानो सब को ध्यान से देखा। फिर उसने राजा से कहा ‘महाराज! क्या मुझे एक तिनका मिल सकता है ?’ उसे एक लंबा तिनका ला कर दिया गया उसने पहले मूर्ति के कान के छेद में एक तिनका डाला तिनका दूसरे कान से निकल गया उसने एक और तिनका लिया और दूसरे मूर्ति की कान में डाला तिनका अंदर गया और मुंह से बाहर निकल गया। तीसरी मूर्ति के साथ भी उसने ऐसे ही किया तिनका कान के अंदर घुसा और गायब हो गया । राजा ने कहा “वाह ! मुझे प्रश्न का उत्तर मिल गया ।”सबसे श्रेष्ठ मूर्ति वह थी जिसमें से तिनका बाहर नहीं निकला इस मूर्ति में सुने हुए बात को पचाने की क्षमता थी। यह मूर्ति एक सतशिष्य का प्रतिरूप है। शिष्य को ऐसा ही होना चाहिए। तुम जो कुछ सुनते हो सद्गुरु द्वारा, उसे पचाना चाहिए। लेकिन सामान्यतया ऐसा नहीं होता। अधिकतर लोग सुनी हुई बातों को गपशप मे उड़ा देते हैं। तिनका उनके मुंह से निकल जाता है। तुम लोग इसी श्रेणी में आते हो.. या नहीं.. यह स्वयं जाँच करो।जब तुम सुनी हुई बातों को ठीक से नहीं पचाते तब उनका मुंह के रास्ते वमन होता है । यह शिष्य की मध्यम श्रेणी होती है वह गुरु के वचन सुनता है और उनको चारों तरफ प्रसारित करना शुरू कर देता है । मालूम है, आज गुरु जी ने मुझसे क्या कहा वह सोचता है गुरुजी मुझे कितना मानते है, अब मुझे अन्य लोगों को भी यह बात बतलानी चाहिए ताकि उन्हें मेरी अहमियत के बारे में पता चले। मेरी महत्ता पता चले। गुरूजी किसी और से इतनी बात नहीं करते सिर्फ मुझसे इस प्रकार की चर्चा करते हैं। यह सब अहंकार का खेल है। पता नहीं तुम लोग इस बात को समझते हो या नहीं लेकिन यह अहंकार जनित व्यवहार है। और यहां बैठे सभी लोग शायद इसके शिकार हैं। सबसे निम्न श्रेणी का शिष्य वह है जो एक कान से गुरू की कोई बात सुनता है और वह बात दूसरे कान से बाहर आ जाती है। अंदर कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह निम्नता है।तुम अपने भीतर इन तीनों लक्षणों को पाओगे । कई बार तुम कोई बात सुनते हो या उसको नजरअंदाज कर देते हो। उस समय तुम निम्न कोटि के शिष्य हो। कई बार तुम किसी बात को सुनकर उसको सभी से कहते फिरते हो फिर अपने अहंकार की पुष्टी के लिए.. सिर्फ अपने अंहकार की पुष्टि के लिए तो यह मध्यम श्रेणी है।लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो उपदेशों को सुनकर उन पर चिंतन मनन कर उन्हें पचाते है और अतंतः उन्हें अपने जीवन में आत्मसात करते हैं। यह सर्वोच्च श्रेणी है । इसलिए गुरू के वाक्यों को श्रवण करना.. सजगता पूर्वक श्रवण करना और उन वाक्यो का मनन करना यह शिष्य का एक महत्वपूर्ण धर्म है।

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