भक्त गुमानी की भक्ति अदभुत थी अदभुत है उनका जीवन प्रसंग…

भक्त गुमानी की भक्ति अदभुत थी अदभुत है उनका जीवन प्रसंग…


जिसने गुरु प्राप्त किये हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमरत्व के द्वार खुलते हैं। साधको को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमरत्व नहीं मिलता। उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं।जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरुकृपा से ही प्राप्त हो सकता है।जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किये है, ऐसे गुरु का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है।तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरु का संग सर्वश्रेष्ठ है।कुरुमाचल अभी जिसे हम उत्तराखंड कहते है, वहाँ एक प्रसिद्ध संत हो गये श्री मुनींद्रजी जो हौड़िया खानी बाबा के नाम से भी जाने जाते हैं। संत मुनींद्रजी का एक अनन्य भक्त था ठाकूर गुमानसिंग नौला। जिसे लोग भक्त गुमानी के नाम से पुकारते थे।गुमानी अत्यंत सरल व निष्कपट ह्रदय था। गुरुसेवा में गुमानी सदैव अनन्य प्रेम व श्रद्धा से लगा रहता था। उसने अपने गुरुजी के निवास के लिए एक सुंदर कुटिया बनाई और उसमें संत मुनींद्रजी रहने भी लगे। वह गुरुजी के लिए समय पर भोजन आदि का प्रबंध करता, उनकी कुटिया की साफसफाई करता और उनकी साधना के समय कोई विघ्न ना आये इन सब बातों पर खूब ख्याल रखता।संत मुनींद्रजी के दर्शन के लिए उनकी कुटिया पर जिज्ञासुओं, दर्शनार्थियों एवं भक्तों का तांता लगा रहता था। गुमानी के पास कोई विशेष धन-संपत्ति न थी फिर भी वह गुरुसेवा में कोई कसर नहीं रखता था। इसलिये शीघ्र ही उसका संचित धन व अनाज समाप्त होने लगा। उसकी पत्नी ने उसे बहुत समझाया परन्तु वह अपने निश्चय का पक्का था।लोग उसे बोलते कि, “मूर्ख है! अपनी जीवन की सारी कमाई गँवा रहा है।” परन्तु भक्त गुमानी जानता था कि गुरुकृपा से जो अध्यात्म धन मिलता है, उसके आगे सारी दुनिया की संपत्ति तो क्या इन्द्रपद भी बौना हो जाता है।गुमानी के लिए गुरुसेवा ही सर्वस्व थी। गुमानी की पत्नी नाराज होकर अपने पिता के यहाँ चले गई। उसकी समस्त खेती बरबाद हो गई और घर में एकत्र अनाज भी समाप्त हो गया।अचानक एक दिन गुमानी ने देखा कि एक व्यक्ति कंधे पर हल रखे चला आ रहा है। गुमानी उन्हें साक्षात बलरामजी समझकर बड़े आदर से घर लाया और उनकी सेवा की। उन हलधारी दिव्य तेजसम्पन्न व्यक्ति ने गुमानी से कहा कि, “आपने मुझे अतिथी बनाकर आसरा तो दिया है तो मैं आपकी भूमी जोत सकता हूँ क्या? मुझे खाली बैठना अच्छा नहीं लगता।”भक्त गुमानी बोला,”आपकी जो मर्जी। जैसे यह घर आपका है, वैसे यह खेत भी आपका है ?”उसने खेत जोतकर धान बो दिया।उस हलधारी पुरूष की शक्ति अतुलनीय जान पड़ती थी। वह अकेले ही खेत में इतना काम कर डालता कि 10-10 व्यक्ति भी उतना न कर सकें। बंजर से बने खेत में उस वर्ष अन्य वर्षों की तुलना में बहुत अधिक धान पैदा हुआ। अनाज से भंडार भर गये।जब भक्त गुमानी की पत्नी को यह पता चला तो वह वापस आ गई और क्षमा याचना कर संत एवं भक्तों की सेवा में गुमानी की छाया बनकर तत्पर रहने लगी।अब वे ओज-तेज सम्पन्न हलधर अतिथी यह कहकर विदा होने लगे कि, फिर कभी ऐसी विषम परिस्थिति उत्पन्न हो तो आप मेरा स्मरण कीजियेगा। आपका अतिथी बनने आ जाऊँगा। यह सुनते ही भक्त गुमानी के मुख से निकल पड़ा कि,*सुमिरन करूँ गुरुदेव का और सुमिरन नाहीं।**शुत्त-वित्त-दारा-संपदा चाहे सकल बह जाईं।*हलधर बोले,”धन्य है आपकी गुरुभक्ति!”और वे विदा हो गये।सद्गुरु की कृपा से गुमानी राजयोग, हठयोग भक्तियोग एवं ज्ञानयोग में निपुण हो गये और उन्हें स्वतः समाधी सिद्ध हो गई।इसलिये स्वामी शिवानंदजी कहते हैं कि,”गुरु का संग ही साधक को उसके चारित्र्य के निर्माण में उसकी चेतना को जागृत करके अपने स्वरूप का सच्चा दर्शन करने में सहाय कर सकता है। गुरु की सेवा, गुरु की आज्ञा का पालन गुरु की पूजा और गुरु का ध्यान ये चीजें बहुत महत्वपूर्ण है शिष्य के लिए आचरण करने योग्य उत्तम चीजें हैं।”

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