महान संकट की ओर बढ़ रहे थे क़दम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-5)

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे क़दम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-5)


मरकर भी दिखा देंगे तेरे चाहने वाले मरना तेरे बिन जीने से बड़ा काम नहीं है आज शिष्य ने मरने से भी बड़ा और जोखिम भरा काम चुन लिया था सतगुरु के बगैर जिंदा रहने का दम भर लिया था रुह के बगैर अपनी बेजान जिस्म ढोने की हिम्मत कर दिखाई थी बुल्लेशाह गुरुद्वार पर अपना दिलो जान सब छोड़कर निकल पड़ा मुर्दा सा बना बड़ चला दुनिया की चहल पहल भरे बाज़ार की ओर।इस बेचारगी और गमगीनी के आलम में वह बाज़ारो से गुजरता गया खूब शोरगुल हसीं ठठ्ठा था वहां दुकानदारों की लुभावनी आवाज़ ग्राहकों के नाज़ नखरे और चटकारो, माया अपने पूरे रंगो शबाब मे थिरक रही थी, मगर सोचो जिसे रूहानी गम के घने घेरो ने घेरा है उसे दुनियावी हवा भला क्या छुए? वो किसी ने अर्ज़ किया है ना कि ए मेरी जान के दुश्मन। तुझे अल्लाह रखे हम भी पागल है जो उस शक्स से है बबस्ता जो न किसी और का होने दे न अपना रखे, दुनिया मे धक्का लगता है तो निगाहें किसी ओर हमदर्दी कंधे को ढूंढ ही लेती है मगर हे गुरु के प्यारों सतगुरु का रिश्ता ऐसा चलता फिरता नहीं होता है यहां अगर एक ओर जुदाई के धक्के है तो दूसरी ओर एक अनोखी मोहब्बत भरी जकड़न है।गुरु की बाहों की इस जकड़न को अनोखी इसलिए कहा क्योंकि वह जितने धक्के खाती है उतनी मजबूत होती जाती हैं फ़िर गुरु के अलावा उसका कोई अपना नहीं रह जाता है तभी आज बुल्लेशाह बाज़ार की भीड़ भरी गलियों से भी तन्हा सा गुजर रहा था उसके जहन की आंख मुंदी हुई थी कान बहरे और जुबान गूंगी थी।बस एक ही इरादा जिंदा था कि अपने सदगुरु को कैसे मनाऊ? क्या करू? कि वे रीझ जाए चलते चलते सुबह से शाम हो गई बुल्लेशाह वहां पहुंचा जहां खूब जश्ने आलम था खूब शोर शराबा हो रहा था जी हा इस बेहोशी मे उसे इतना भी होशो हवास न रहा कि वह तवायफों की नब्ज परख दुनिया मे प्रवेश कर चुका था इतने मे जैसे किसी ने उसके होश को झंझोड़ा एक ऊंचे कोठे से एक दर्दीली तर्रनम उठी सुरो से बनी सुरा थी वो साथ ही सुनाई थी मुजरे की छूं छनान लाजवाब ताल के संग फन मे गुथा जादू था वह बुल्लेशाह की ज़िन्दगी के साज को छू गया उसके तारो को थिर्काकर उसमे आस की तरंग भर गया इतिहास कहता है कि इस नापाक महफ़िल के उठते सुरो से बुल्लेशाह को एक रूहानी पैगाम मिला था गौर कर बुल्लेशाह तेरे सदगुरु की पसंद क्या है? जब भी कोई आलाप उठाकर नाचता है वो इनायत कमल से खिल जाते है वो नाचने वाले पर बरबस बख्शीशे लूटा बैठते है क्यों न तू ये जरिया आजमाकर देख आज तक तो तूने अल्हड़ फलड़ ढंग से काफिया गाई है सुर ताल पे नाचा है परन्तु अब इस तवायफ की शागिर्दी हासिल कर गाना सीख, नाचना सीख खुशामदीद आबरू ज़मीन पर उतरेगा।इनायत की रहनुमाई तेरा दामन ढूढ़गी भीतर से पैगाम क्या मिला? बुल्लेशाह के सिकुड़े फेफड़ों से सांसों का झोंका गुज़र गया हा वो अपने गले को अब साज बनाएगा उसकी तारो को रियाज से खींच खींचकर साधेगा पैरो मे घुंघरू बांध कर नाचना सीखेगा अरे पैरो ही नहीं वह तो अंग अंग को घुंघरू बना डालेगा तालो तर्ज पर उनको बजा बजाकर अपने रूठे सदगुरु को मनायेगा बुल्लेशाह फौरन सुरो और धुनों के सोते की तरफ दौड़ पड़ा आनन फानन कोठे की सीढ़ियां चढ़ने लगा जिगर मे दिवानगी का तूफान लिए उसकी इस रफ्तार को रोंदने वाला दूर दूर तक कोई ख्याल कोई शर्म कोई हया नहीं थी इतनी भी नहीं की वह किसी संगीत या शास्त्री की पाठशाला मे नहीं जा रहा, इनायत को रिझाने के लिए किसी दरगाह की सीढ़ियां नहीं चड़ रहा बल्कि शहर के सबसे नापाक दुकान की ओर बड़ रहा है।सबसे बदनाम सीढ़ियों पर दर्द भर रहा है ऐसी सीढ़ियां जिन पर चढ़ने से पहले आदमी बहुत नीचे गिर चुका होता है सच मे यही जुनून की असली सूरत तो इस जुनून के सदके बुल्लेशाह को अपने इनायत को उन पाकीज़ा कदमों को चूमना जो था फ़िर उन तक पहुंचने का जरिया चाहे वो जहनुम ही क्यों न हो उसे तो उन पर भी जन्नत का नूर बिछा दिख रहा था तेरे ख़यालो तेरे ख्वाबों की ये ठंडी फिज़ा हांफती रुह को पनाह जैसे लगती है तेरी उल्फत मे ये कैसा मुकाम आया है? हवा कोठे की भी दरगाह जैसी लगती है ऊपर पहुंचते ही बुल्लेशाह ने जैसे ही किवाड़ खटखटाया।वैश्या खुद ही बेपरवाह बाहर आई जुल्फो से लेकर पैर के नाखूनों तक वह हुस्न की मल्लिका थी कुछ खुदा का करम कुछ श्रृंगार की कलम तराशी पूरी तबियत से गई थी मगर चाह की निगाहें तो पहले ही किसी के रूहानी हुस्न कैदखाने मे बंद थी भला तवायफ के जिस्मानी हुस्न ताकत मे उस कैद के ताले तोड़ने की हिम्मत कहां थी बुल्लेशाह तो तवायफ मे महज अपने सतगुरु तक पहुंचने का इलाही रास्ता खोज रहा था उधर तवायफ बुल्लेशाह को एक नजर देखते ही कुछ हिचक गई उसने सोचा यह कैसा अजीबो गरीब ग्राहक है इनकी निगाहों से न कोई बेगेरद जानवर झांकता है न ही नज़रों के कोटोर मे खरमस्ती की भीख है पर नहीं यह कोई न कोई ख्वाहिश तो जरूर लेकर यहां आया है तवायफ पैनी नजरो से बुल्लेशाह को कुरेदती जा रही थी फिर बुल्लेशाह की असली सूरत जानने के लिए उसने उसी मनचली अदा से घुंघरू खनकाए कंगन भरी कलाइयां घुमाई और नैन भर इशारा किया मगर यह क्या? आज तक उसकी इन अदाओं पर सिक्को की थैलियों के मुंह खुल जाते थे सिक्को या जवारतो की खनक पलटकर जवाब देती थी परन्तु खनक तो आज भी हुई परन्तु कैसे? दर्द की गहराइयों से उठती हुई बुल्लेशाह की एक ठिनक्ती हुई आवाज आई आपा(आपा अर्थात बड़ी बहन) यह एक कामिल मुर्शीद अर्थात सदगुरु के सच्चे सतशिष्य की खनक थी दुनिया के बाज़ार मे एक साधक की दौलत की खनक थी तवायफ ने यह खनक सुनी तो सकपका कर रह गई कानों सुनी पर यकीन ही नहीं हुआ आज पहली मर्तबा उसे किसी ने इतने इज्जतदार मुकाम तक पहुंचाया था मानो कोठे के कंगूरे को मंदिर की घंटी कह दिया था आपा शब्द सुनते ही तवायफ के कमान से खींची हुई चितवन की डोर मानो टूट गई पलके झुक गई अपने लहराते पल्लू को समेटने और उसमे लिपट जाने की ज़ोरदार तलब उसके अंदर जोर मारने लगी मगर अपने जीवन मे धोको के इतने थपेड़े खाएं थे कि सख्ती का आना लाज़िम था इसलिए उसन अपनी तवायफी हस्ती मे फिर से शायराना अंदाज़ मे कहा।मेरा हुस्न निगाहों का कैदखाना है पर तुम आंखो को इस कैदखाने से आजाद करो दिखने मे साफ सुथरे घर के नजर आते हो रात का वक़्त है अल्लाह को जाकर याद करो बुल्लेशाह ने भी उसी अंदाज़ मे जवाब दिया तुम्हारे हुस्न से कोई गर्ज नहीं मुझको में अपने पीर की रूहानियत का ही घायल खुदा की बंदगी ही जिंदगी का है मकसद बस उसका नाम जपा करता हूं हरपाल, तवायफ सुनते ही दोनों हाथो से ताली बजा उठी ज़ोरदार तंजिया हंसी के साथ उसने इक फिक्रा फ़िर दिया कि अच्छा तो रूहानियत की नमाज़ पढ़ते हो बंदगी का मिज़ाज रखते हो फिर उस हुस्न की मंडी मे क्या अपना सिर मुंडाने आए हो? तवायफों का रंगीन सनमखाना है लोग आते हैं यहां हुस्न की दावत के लिए जवां उम्र मे ही हिल गए हो प्यारे हवस के टीलों पर आए हो इबादत के लिए? बात टो सोलह आने सही थी बुल्लेशाह तवायफ खाने पर बड़ी अजीबो गरीब मुराद लेकर पहुंचा था उसने कहा आपा तुम्हारे पैरो की थिरकन मे एक पाकीज़गी है घुंघरूओं की छनन मे अजब सा जादू कुछ एक कलमे तुम इस फन के सिखा दो मुझको इसी उम्मीद ने दिल को किया है बेकाबू तुम्हारा हुस्न नहीं हुनर ही मेरे लिए खजाना है कोई रूठा है उसे नाच नाचकर मनाना है इतना कहते ही बुल्लेशाह की आंखो मे आंसू भर आए बस मन्नत मनाता रहा बोलो आपा मुझे इस हुनर की सौगात दोगी ना? मुझे नाच नाचकर उन्हें रिझाना है बोलो सिखाओगी न? अच्छा तो यह वात है यह तो महज़ एक सनकी दीवाना है गम का मारा मजनू शायद किसी लैला की बेवफाई या रुसवाई के वार से जख्मी होकर आया है तवायफ मन ही मन सोचने लगी।तवायफ की दुकान पर तो ऐसी लूटी पिटी शक्ल वाले मजनू रोज़ आते रहते है तवायफ ने फिर कहा राह चलते लोगों को अपना फन दे दे? तुम्हे क्या शक्ल से हम ऐसे वैसे दिखते है न भूलो शहर का यह सबसे हसीं कोठा है यहां तो सांस भी लेने के पैसे लगते है चलो हम कर भी दे तुम्हारा काम क्या दोगे? बताओ हुर के हुनर का दाम क्या दोग?तवायफ खरी सौदे बाज़ी पर उतर आई थी परन्तु बुल्लेशाह के पास बचा भी क्या था? उसकी सांसे भी तो उसके गुरु के चरणों मे अटकी थी वह दे भी क्या सकता था परन्तु फिर भी बुल्लेशाह ने कहा कि रुह से जिस्म का जामा उतार सकता हूं जिंदगी दर पे तुम्हारे गुजार सकता हूं इनायत ओलिया की एक हंसी के खातिर में अपनी छाती मे खंजर उतार सकता हूं आज से मौत के दिन तक तुम्हारा नौकर हूं बस एक हरकत है एक हसरत है मेरे दिल मे अगर कहने दो मुझे में जब तलक की अपने प्रीत को रिझा ना लू तुम इतनी देर तक मुझ पर मेरा हक रहने दो अरे हा अभी बुल्लेशाह के पास ले देकर इक जिस्म तो बचा ही था और उसमे एक रोती धोती जान भी किसी बचे कुचे समान को गिरवी रखने की जुबान दे दी।तवायफ सहम कर रह गई कसम पैशे की आजतक किसी शक्सियत से वास्ता नहीं पड़ा यह है कौन? कौन सी बस्ती से आया है? और यह इनायत है कौन? जिस पर यह इतने कातिलाना अंदाज से फ़िदा है तवायफ ने अपने इस आखिरी सवाल को धीमी सी आवाज मे पूछ ही लिया बुल्लेशाह ने कहा आपा इनायत कौन है? वो मेरे शाहजी, मेरे मुर्शीद है मेरे पीर है मेरे ओलिया है मेरे मोल्लाह है आपा वो मेरे बिना उसके कैसे जियू? क्या है वो कैसे कहूं? तड़पते दिल का अरमान है मेरी धड़कन मेरी जान है इंतजार है सूखती निगाहों का करार है वो मेरी आहो का क्या कहूं? मेरी डूबती सांसों की आवाज़ है बजता है हर वक़्त तो वो साज है मस्ज़िद सी उठती अजान है ग्रंथ है वैद है पुरान है क्या है वो कैसे कहूं? समाया रहता है रग रग मे वो सुरूर है कहां नहीं बस आंखो से वो दूर है मेरा धर्म मेरा दीन मेरा ईमान है मेरी किस्मत, मेरी आबरू मेरी जान है क्या कहूं वो क्या है? कैसे कहूं? टूटती उम्मीद की प्यार आस है लगता है कहीं आसपास है कभी आंखो मे रहता है कभी आंखो से बहता है क्या है वो कैसे कहूं? इश्क़ है प्यार है मेरी मोहब्बत है मेरी आरज़ू मेरी चाहत मेरी कुरबत है दाता है मालिक है मेरी जान है मेरे हर सजदे का वहीं मुकाम है क्या है वो कैसे कहूं? मेरा दिल है धड़कन है जिंदगी है मेरी, मेरा सजदा है इबादत है वो बंदगी मेरी तमन्ना है ख्वाहिश है, है वो जुस्तजू मेरी मेरा जिस्म मेरे जान रुह भी वो मेरी क्या नहीं वो ये कैसे कहूं? जुदा होने के बाद आज पहली मर्तबा किसी ने बुल्लेशाह से पूछ लिया था कि इनायत ये कौन है? इसलिए उसके दिल के साज़ से अनहद धुन तो फुटनी ही थी उधर तवायफ बुल्लेशाह को घूरते और सुनते हुए सुन्न सी हो गई उसने आज तक अपने कामिल उस्तादों तक को सरंगियो से ऐसी दर्दीली धुन नहीं सुनी थी तजुर्बे के किसी साज ने उसके आगे ऐसा गीत नहीं गाया था और सबसे कमाल की बात तो यह थी कि यह रिश्ता किसी औरत मर्द के बीच नहीं था जैसा कि तवायफ ने आज तक देखा भाला था यहां तो एक अच्छा खासा गबरू नौजवान अपने गुरु के लिए आंसू बहा रहा था यह कैसा कयामती रिश्ता है तवायफ गौर करने को मजबुर हो गई।शहरी नींद मे ऊंग रहा उसका ईमान करवटें बदलने लगा बुल्लेशाह के आपा आपा के लारो मे उसने सच मे एक आपा को जन्म दे दिया आज पहली मर्तबा उसके अपने ही कोठे पर उसकी हार हुई हुस्न झुका और ग्राहक अपने पाक मंसूबे की ऊंचाई पर तन कर खड़ा दिखाई दिया आखिर तवायफ बुल्लेशाह की मदद के लिए तैयार हुई बेदाम, बेमोल परन्तु एक शर्त पर।

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