महान संकट की ओर बढ़ रहें थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-10)

महान संकट की ओर बढ़ रहें थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-10)


कल हमने सुना कि बुल्लेशाह आपा के साथ बुरखा पहनकर दरगाह की तरफ चल पड़े।

एक ऐसा चमन है ,जिसकी खुशबू
साँसों से बसाये फिर रहा हूँ।
एक ऐसी जमीं है, जिसको छूकर
तकदिशे हरम से आसना हूँ।
एक ऐसी गली है, जिसकी खातिर
हर गली में भटक रहा हूँ।
ए मुझको सुकूँ देनेवाले मसीहा!
तुझको ही ढूँढ रहा हूँ।

बुल्लेशाह का तरसता हुआ वजूद अपनी जड़ों में लौटना चाहता था। वही चमन, वही गली, वही जमीं, वही मसीह ! उसकी साँसे इनायत की पाक सोहगत की खुशबू पाने के लिए बेकरार थी, उसकी रूहानी राहत के जाम माँग रही थी। जो बुल्लेशाह को इनायत के करीब बैठकर, उनकी झरने सी हँसी सुनकर, उनकी भोली अदाएँ, उनकी लीलाएँ देखकर मिलता था।

कितना सस्ता होता है ना उस समय यह सब, जब गुरु हमारे पास होते हैं। तब साधक शायद उसका मोल नहीं जानता। बुल्लेशाह के लिए भी कितना सस्ता था उस समय ये सब। मगर आज इन नियामतों को पाने के लिए बुल्लेशाह अपना सबकुछ दाँव पर लगा बैठा है। अपना मान -ईमान, लियाकते, अपना सईदी रुतबा, यहाँ तक की मर्द होने का गुरुर भी। आज वह लहँगा-चोली पहनकर, हाथों में चूड़ियाँ डालकर एक नाचनेवाली तवायफ़ के साथ मजार पर पहुँचा है।

हे मन ! आज हम सभी साधको के साथ भी कुछ ऐसी ही परिस्थिति है। हमने भी अपने बापू को पुनः प्राप्त करने के लिए सबकुछ तो दाँव पर लगाने का दावा किया है। परन्तु हे मन! क्या सचमें हमने दाँव पर कुछ भी लगाया है, यह विचारणीय है। हे मेरे प्यारे मन! परिस्थितियाँ तो हम सभी साधको की भी बुल्लेशाह जैसी ही है। परन्तु क्या वो तड़प मुझमें है,जो बुल्लेशाह को अपने गुरु के लिए थी? क्या मेरी धड़कने, मेरी श्वासें सच में उनको पुकारती है?

हे मेरे प्यारे मन! काश तूने अपनी तड़प भी बुल्लेशाह जैसी बापू को पाने के लिए की होती तो शायद आज तेरे खुदा तेरे पास होते।कहते तो है कि परिस्थितियाँ जरूर बुल्लेशाह जैसी है,कि गुरुदेव हमारे पास अभी नहीं है, रूठे है। परन्तु यहाँ तो मेरे सद्गुरु बादशाह स्वयं तन से कष्ट और पीड़ा झेल रहे हैं और मुझे सुरक्षित कर इस आश्रम में रखा है।

खैर, आज बुल्लेशाह अपना सबकुछ दाँव पर लगा बैठा है, अपने गुरु के लिए। यहाँ मज़ार पर दुनिया का मेला सजा था। हजारों कद्रदान पीरों की महफिले याद में शरीक होने आई थी। दरगाह का कोना-2 आबाद था। मजारों पर चमचम सितारोवाली चादरें चढ़ रही थी। ताजे फूलों से बिंधी चुनरियाँ चढ़ाई जा रही थी। सैकड़ों लोग नियाज़ अर्थात लंगर में पंगत में बैठकर रूहानी दावत खा रहे थे।

दूसरी तरफ दरगाह से सटे हुए बड़े से मैदान में फ़नकार और इल्मी जुड़ने लगे थे। वहाँ सुल्तानी फ़कीरो और पीरों के लिए ऊँचे-2 तख्त सजे थे। इसी मैदान में बुल्लेशाह छम-2 करता हुआ आपा के साथ पहुँचा। उसके चेहरे पर बुरखे का चिलमन था और हाथ में सारंगी। साथ में थी फ़नकारों की पूरी मण्डली। सभी तख्तों से थोड़ी दूरी पर गोलाई में बैठ गए।

बुल्लेशाह के ठीक पीछे गुसल की रस्म निभाई जा रही थी। गुसल में लोग गुलाबजल और चंदन से पिरि मकबरों को धोते है। हवा में गुलाब की रूमानी महक घुलि थी।कुछ उस्तादों ने कहा कि अभी तो महफ़िल सजने में वक्त है, चलो हम भी गुसल कर आये।परन्तु इधर बुल्लेशाह तो एक अनोखा गुसल करने को बेताब था। उसकी साँसे अपने सद्गुरु, अपने मुरीद की खुशबू को तलाश रही थी। अपने मुर्शिद की खुशबू को तलाश रही थी। वो आये और बुल्लेशाह अपने आँसुओं से उनके जाविंदा कदमो को धो पाएँ। इसी गुसल के लिए उसकी मुरीदी मचल रही थी।

धीरे-2 मैदान पर गहमागहमी बढ़ने लगी। खुदापरस्तो और नमाज़ियों की बारात चली आई। उम्दा पीर भी अपने शागिर्दों के साथ तशरीफ़ ले आये। बुल्लेशाह बुरखे की जाली से टुकुर-2 सब निहार रहा था। ज्यो ही कोई पीर आते, आपा घूमकर बुल्लेशाह की आँखों में झाँकती। मानो पूंछती, क्या यही तुम्हारे इनायत है? मगर बुल्लेशाह की बेजार नजरें बिना कहे ही कह देती, नही आपा!

अब तो महफ़िल ने रौनक़ का पूरा जामा ओढ़ लिया था। सभी पीरी तख्तों पर ऊँचे दरवेश मौजूद थे। बस एक तख्त खाली था। न इनायत आये थे, न ही आश्रम का कोई मुरीद ही रूबरू हुआ था। यह मंजर देख बुल्लेशाह की श्वासें भारी हो गई।बुल्लेशाह अब निराश हुआ जा रहा था।

वो आये नहीं बहार की खुशबू लिए हुए -2
बैठा है प्यार आंखों में आँसू लिए हुए।

इनायत-3! बुल्लेशाह की एक-2 धड़कन, पुलकन-2 तस्बीह फेरने लगी थी। दिल में लगातार हुक उठ रही थी कि –

आ भी जा सोनिया! -2
वा जा दिल मेरा हुन मारदा, आ भी जा!
सुन ले मेरी सदा, देख ले हाल बीमार दा,
आ भी जा सोनिया, आ भी जा!

किनारे पर खड़ा कोई इंसान बवंडर में घिरे बदनसीब की हालत का अंदाज नहीं लगा सकता। हम और आप भी आज इतिहास के ऐसे ही साहिल पर बिल्कुल रूखे-सूखे खड़े हैं। सद्गुरु की जुदाई में सतशिष्य की क्या हालत होती है, वो तो वो ही जाने जिसने यह महसूस किया है। बाकी मैं यहाँ से बुल्लेशाह की बेताबी की हालत आप लोगों को पढ़कर नहीं सुना सकता। आप स्वयं अपने गुरु के लिए भाव लाकर बुल्लेशाह की भावनाओं को महसूस करे।

गूँजी नहीं तेरे कदमों की आहट अबतक,
बरसी नहीं बरखाएँ नगमात अबतक।
आ जा कि तेरी बोलती सूरत के बग़ैर,
चुप है मेरे ख्वाबों की तस्वीर अबतक।

अभी यह कुक पूरी भी न हुई थी कि ईलाही कदमों की आहट गूँज उठी। एक रूहानी काफिला मौसमे शबाब लेकर मैदान के आखिरी सिरे पर दाखिल हुआ। सबसे आगे थे ‘हुजुरे आलम हजरत शाह इनायत।’ खुदा की हूबहू तस्वीर, आफताब जैसा नूरानी चेहरा’। लीजिए नदी के सूखने से पहले सागर उसे बाहों में समेटने के लिए आ ही गया। कहते है ना कि-

अश्को की एक नहर थी,
जो खुश्क होने लगी थी।
आग का गोला सूखा रहा था
उसकी छाप को,
पर कितना ही बेकिनार समंदर हो,
रहता है बेकरार नदी के मिलाप को।

सद्गुरु चाहे कैसा भी बेकिनार अमीर समुद्र हो, मगर अपनी हर नदी के लौटने का इंतजार करते ही हैं। इनायत भी बर्दाश्त करने की आखिरी कगार पर आ खड़े हुए। यह ऐन मौका था, इसके आगे बुल्लेशाह ही नहीं रहता। अगर वे एक और लम्हा भी गुजारकर आते तो फिर बुल्लेशाह से उसके उसी जिस्म में कभी न मिल पाते।

सच! सद्गुरु तो हम सबकी हदे जानते है परन्तु बस इस हद तक पहुँचाने के लिए ही वह पीछे छुपे रहते हैं। अब बुल्लेशाह हद की रेखापर आ खड़ा था तो देखिये सामने इनायत भी खड़े थे। उनके तशरीफ़ रखते ही तमाम महफ़िल का सिर सिजदे से झुक गया। ‘पीरों के पीर, क़ामिल मुर्शिद है इनायत’ यह कस्बे की हर रूह मानती थी। इसलिए उनके कदमों में रेशमी रुमाल और फूल बिछाये जाने लगे।

उधर एक अकेले से कोने में बैठे एक गरीब की सूखी, तरेड़ खाई पथराई आँखों के सामने अचानक से जैसे रसराज सावन आ गया हो। जिन्हें तजुर्बा है वे ही जानते है , इस रसराज सावन को।

अब मान लीजिए, हमारे समक्ष बिना किसी को खबर किये अभी इसी वक्त व्यासपीठ पर बापूजी आकर बैठ जाये, तो अचानक गुरुदेव को देखकर हमारी क्या प्रतिक्रिया होगी…? हम उनको कैसे निहारेंगे…? इतने वर्षों बाद क्या हमारी आंखे अपनी पलकें झपकाने को तैयार होगी…? क्या हम अपनी भावधारा को रोक पाएँगे…? अरे! उस समय तो ऐसा लगेगा कि बापूजी आप बस व्यासपीठ से उतरिये तो आपको मैं आज लिपट ही जाऊँ। बिना लिपटे आज आपको जाने ही ना दूँ।

सद्गुरु की प्यारी सी सूरत को आंखे कभी देखती नहीं है। सतशिष्य की आँखे सद्गुरु को पीती है। और जो पीया जाता है, उसमे रस तो होता ही है।बुल्लेशाह की प्यासी आँखों के सामने भी जैसे ही इनायत का खुदाई चेहरा आया, वही पुरानीवाली रूहानी सी चाशनी उसके अंग-2 में घुल गई। दीद का वही जाम घोट-2 कर हस्ती पर छा गया। बुल्लेशाह ने कसके दिल थाम लिया, लम्बी-2 साँसे भरने लगा। इनायत बादशाही चाल में चलते हुए आगे बढ़ने लगे। बुल्लेशाह के बेहद करीब से गुजरे। उसकी तरफ बिना देखे ही अपनी मुस्कुराती तिरछी नजरों से निशाना गए।

खैर, ये सद्गुरु के तिरछी दृष्टि का निशाना ही तो है कि हम सभी घायल होकर उनके कदमों में पड़े है । इस आश्रम में है। बुल्लेशाह भी इन्हीं तिरछी निगाहों से घायल हो पंख कटे पँछी की तरह छटपटा उठा। वह घायल, पागल सा हो गया।

नजर चुराके वह गुजरा करीब से लेकिन,
नजर बचाके मुझे देखता भी गया।
गजल के लहजे में हो गई गुफ्तगू उससे,
खाँ के दिल का हर जर्रा रौशन कर गया।

इनायत चलकर अपने पीरी तख्त पर जा बैठे। फिर हाथ उठाकर महफ़िल को रवानगी दी। इशारा मिलते ही कव्वालों न चुप्पी के ताल खोले। तान साधकर एक ऊँचा सुरीला आलाप उठाया। ढोलचियों ने अपनी ढोलकी सँभाली। मीठी-2 थाप उठनी शुरू हो गई। सारंगियों की तारे भी झूम-झननकर झनक उठी। सारा आलम मस्ताना हो चला। इस मस्त लहर में हर दिल बहने लगा। पाँव थिरके बिना न रह सके। सिर होले-2 झूमने लगे।

उधर इनायत भी अपनी रूहानी हुस्न का जादू बिखेर रहे थे। पता नहीं क्या बात थी, शायद मैदान के सारे ठंडे झोंके उन्हीं की इबादत में जुट गए थे। उनके बालो को सहला-2 कर उड़ा रहे थे। उनका पाक दामन भी लहराने लगा था। यूँ ही या फिर उसकी यह मचल किसीको अपने मे समेटने को बेताब थी।

वे खूब मुस्कुरा-2 कर ईलाही जलवा भी लूटा रहे थे। यूँ ही या फिर मुस्कान भी किसी के गिरे हौसले को उठाने का जरियाँ थी। ये तो वे ही जाने। मगर बुल्लेशाह पत्थर का चकोर बन गया था।उसकी निगाहें एकटक इनायत पर रुकी थी। बिना सुर्खियों के ही इनसे एक धार आँसू बहे जा रहे थे। होठों पर सूखी पपड़ी जमी थी। हाँ, वह प्यासा था, बेहद प्यासा।

बापूजी मेरे तरफ देखे, एक दृष्टि मिल जाये बस। मुझसे बात हो जाये। एकबार, सिर्फ एकबार बात हो जाये। पूज्यश्री जब कोर्ट की तरफ जाते हैं गाड़ी में। लोग दर्शनों के लिए खड़े रहते हैं। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं कि, उनसे पूँछो कि भाई दर्शन हुए? तो कहते हैं कि हाँ हो गये। गुरुदेव के दर्शन हुए तो कहते है गुरुदेव के दर्शन तो हो गये, परन्तु ठीक से नहीं हुए। तो दर्शन तो दर्शन होता है। इसमें ठीक – बेठीक क्या? तो वे कहते हैं, मुझे दर्शन तो हुए परन्तु बापूजी की दृष्टि नहीं मिली। इसे प्यास कहते हैं।

आज दरिया खुद चलकर बुल्लेशाह के सामने आ गया था। मगर अभी तक उसका एक कतरा भी उसे पीने को नहीं मिला था। दरिया को देखकर बुल्लेशाह की प्यास तो और भी बढ़ गई।

सामने तख्त पर तमाम क़ायनात का मालिक था रूहानी इश्क की छलकती सुराही हाथ लिये। नीचे झूमते हुजूम के बीच बुरखे की जाली के आड़ में थे दो प्यासे प्याले। बड़ी शिद्दत से जो साकी की दरवाजा-ए-दिल पर अलख जगा रहे थे। उसकी रजा, उसके मोहब्बत के दो घूँट जाम माँग रहे थे।

आज मैखाने में साकी के कदम आये हैं,
इसलिए सिर को झुकाये हुए हम आये हैं।
चरणों में साकी के जवी रखके कहेंगे,
प्यासे हम जन्मों के खाली जाम लाएँ है।

बाकी सबके लिए तो महफ़िल खूब रंगीली, खूब नशीली हो चुकी थी। कंधे मस्ती से हिचकोले खाने लगे थे। धुनें बहने लगी थी, कव्वाले गा रहे थे। आपा ने भी नाचने का इशारा पाया ,तो फिर वह भी खुदा की इबादत में नाचने और फिरकने लगी।

बुल्लेशाह वही बैठा रहा गया। उसके हाथ-पाँव सुन्न थे, एकदम जाम! इनायत तो थे ही नृत्य के शौकीन।इसलिए जैसे ही आपा और दूसरे फ़नकारों ने थिरकना शुरू किया, इनायत शाह की निगाहें उन्हीं की तरफ घूम गई।

बस! अब तो बुल्लेशाह बैचैन हो उठा। मेरे सारे दर्दों का दरमा है एक निगाह! लेकिन वो एक निगाहें मोहब्बत कब मिलेगी…? यही मुस्कुराती निगाहें पाने के लिए तो उसने अपने जिस्म को रियाज़ की रस्सियों से कस-2 कर साधा था। आज यह साधना, यह तालीम परवाना चढ़नी थी। इंतहा का वक़्त आ खड़ा था।

बुल्लेशाह के कतरे-2 में गजब की मचल लहराने लगी। सुन्न कदम अंगड़ाइयाँ ले उठे। वो मुठ्ठियाँ भींचकर सारी ताकद बटोरने लगा। उसकी बौराई आँखे इनायत की रूहानी मूरत पर अपलक टिकी थी। अपने सरताज़ से रास्ता और हिम्मत माँग रही थी।

तभी एक बड़ी नाज़ुक सी-बारिक सी घटना घटी। इतनी ईलाही थी वह कि सिर्फ सद्गुरु और सतशिष्य के बीच में घट गई और दुनिया को भनक भी नहीं लगी। हुआ क्या?…कि सुरूर से गीली इनायत की नजरें आहिस्ते से मैदान के उस कोने की तरफ सरक गई, जहाँ बुल्लेशाह अकेले जज्बातों के तूफ़ान से जुझ रहा था। उनकी आँखे सीधे जाली के पीछे से झाँकती बुल्लेशाह की आंखों से जा मिली। फिर होले से उनकी पलकें गिरी और उठी। फिर वापस नाचने-गाने की तरफ घूम गई।

मानो इस चुटकीभर लम्हें में बुल्लेशाह को हौसलों का चप्पू थमा गई। चुपचाप गुनगुना गई कि मेरे लखते जिगर उठ खड़ा हो। यह आखिरी तूफानी लहर है। आजमाइश का आखिरी पड़ाव है। तारीख़ बनाकर दिखा दे इसे भी। इसके ठीक आगे हाथ भर की दूरी पर ही मैं खड़ा हूँ। हाँ, मैं खड़ा हूँ बाँहे पसारे तेरे लिए बुल्ले! तुझसे मिलने को बेकरार!

सच! दुनिया कह देती है कि इश्क की राहे बड़ी पेचीदा है। इंतिहानों के खौफनाक घाटियों से अटी हुई। मगर इन घाटियों में चप्पे-2 पर अपना दामन थामनेवाले मसीह को कोई देख नहीं पाता।दुनिया ने यह तो देखा कि बुल्लेशाह इनायत की याद में गल गया। बुल्लेशाह रोया-खोया, परवाना बनकर ख़ाक हो गया। लेकिन एक हकीकत दुनियावी नजरें नहीं देख पाई।

अरे भाई! अगर शिष्य गला तो सद्गुरु ही उसकी आँखों से आँसू बनकर बहे। अगर शिष्य याद में याद के चिराग जला पाया तो इसलिए क्योंकि मुर्शिद ने, सद्गुरु ने उसकी मुक़ामे दिल पर अपनी पाक दरगाह आबाद रखी। बुल्लेशाह परवाना बना तो इसलिए क्योंकि इनायत ने शमा जलाये रखी।

माना कि इश्क की घाटी
खतरों से है अटी हुई,
मगर ए दिल! रसाई होगी मंजिल,
गुरु तेरा निगहबाँ है।
न घबरा इश्क की
पुरपेच राहों से तू!
पुकारेगी तुझे मंजिल,
मुर्शिद तेरा निगहबाँ है।

बुल्लेशाह को भी इस दौरे इंतहा में अपने गुरु, अपने निगहबाँ का इशारा मिल गया था। बस अब कौन रोके इश्क की पुरजोर रफ़्तार को? दीवानगी की मलंग झूम को बेबसी की सारी जंजीरें चटककर गिर गई। सरसारी सिर तक चढ़ आई। बुल्लेशाह उठ खड़ा हुआ और…

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