गुरु के कार्य का एक साधन बनो, गुरु जब आपकी गलतियां बताएं तब केवल उनका कहा मानों।आपका कार्य उचित है, ऐसा बचाव मत करो। जिसकी निद्रा तथा आहार आवश्यकता से अधिक है, वह गुरु के रुचि के मुताबिक उनकी सेवा नहीं कर सकता।अगर अलौकिक भाव से अपने गुरु की सेवा करना चाहते हो, तो स्त्रियों से एवं सांसारिक मनोवृति वाले लोगों से हिलो-मिलो नहीं।जहाँ गुरु हैं वहाँ ईश्वर है, यह बात सदैव याद रखो। जो गुरु की खोज करता है, वह ईश्वर की खोज करता है, जो ईश्वर की खोज करता है उसे गुरु मिलते हैं। शिष्य को अपने गुरु के कदम -कदम का अनुसरण करना चाहिए।मनुष्य जन्म दुर्लभ है, उसमें भी क्षण भंगुर है और ऐसे क्षण भंगुर जीवन में ब्रह्म ज्ञानी संतो का मिलना बड़ा दुर्लभ है। और संत मिल जायें तो उनमें श्रद्धा व उनकी आज्ञाओं का पालन बड़ा दुर्लभ है। महापुरुषों की आज्ञा पालन को स्पष्ट करने वाले ये दो प्रसंग बहुत ही प्रेरक है।डाक्टर संसार चंद्र अलमस्त अपने जीवन में घटित घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि, असल में मुझे अपने आप पर और अपनी बुद्धि पर बहुत अहंकार था और गोवर्धन परिक्रमा पर बड़ी श्रद्धा थी।एक बर बिना किसी से पूछे अपने एक सेवक को लेकर मैं मई के महिने में सुबह गोवर्धन परिक्रमा पर निकल पड़ा, पहले छोटी परिक्रमा शुरु की और वापसी में मानसी गंगा पर पहुंचे, इतनी गर्मी हो गई कि पैरों में छाले पड़ गये और बड़ी परिक्रमा को शुरू करने की हिम्मत ही नहीं रही। उसी वक्त गाड़ी लेकर वृंदावन पहुंच गया और सीधे कदम वृक्ष के नीचे बैठे मेरे गुरुदेव के सत्संग में पहुंच गया। पहुंचते ही गुरुदेव ने पूछा अलमस्त गोवेर्धन परिक्रमा करने गए थे और पांव में छाले पड़ने पर आधी करके ही वापस आ गए। जो अपने सद्गुरु से बिना पुछे कोई कार्य करता है उसका यही हाल होता है। जब कभी बाकी आधी परिक्रमा करने का मन हो तो मुझसे पुछकर करना तुमको गुरु कृपा का रहस्य समझ में आ जायेगा। अगली बार कड़ी धूप में गुरुदेव से इजाजत लेकर परिक्रमा करने निकला। ज्यों ही परिक्रमा शुरु की आसमान में बादल आ गये और पूरी परिक्रमा में छाँव की ये बादल मेरे साथ चलता रहा। मेरे पाँव हल्के मालूम पड़ते थे और शरीर में ऐसी ताकत आ गयी कि आधी के बजाय पूरी परिक्रमा कर ली। वृंदावन पहुंच कर मैंने गुरुदेव से अपनी कामयाबी का हाल सुनाया और उनसे शाबाशी पायी। एक बार और गुरुदेव से आज्ञा लेके सुबह तीन बजे अपने-अपने परिचितों के साथ मौन रहकर परिक्रमा करने निकला, मैं रात को अपने साथियों से बिछड़ गया।और परिक्रमा का रास्ता भूलकर खेतों में घुस गया, दिल घबराने लगा तो उसी वक्त सफेद कपड़ों में बुजुर्ग महात्मा कहीं से आये और पुछा क्या रास्ता भूल गये हो?मेरे पीछे-पीछे चले आओ जब रास्ता मिल गया तो उन्होंने कहा इस पर और आगे -आगे चलते रहो। मैंने उन्हें प्रणाम किया सिर झुकाकर धन्यवाद दिया। फिर वे तो खेतों के तरफ चले गये। और मैं परिक्रमा के रास्ते चलने लगा।इतने में मेरे बाकी साथी भी मिल गये और हम परिक्रमा पूरी करके वृन्दावन आ गये उस समय गुरुदेव सत्संग करते हुए मिले। तो झट उन्होंने कहा अलमस्त परिक्रमा कर के आ गये हो।मैं सिर झुकाकर चुप रहा, वे बोले सन् 1951 में मै भी गोवर्धन की परिक्रमा का रास्ता भूल गया था। तब मुझे श्री उड़िया बाबा जी ने रास्ता दिखाया था।मैं झट बोल पड़ा गुरुदेव आपने तो परिक्रमा सन् 1951 में की और श्री उड़िया बाबाजी 1948 में शरीर छोड़ चुके थे। तो बाबा जी आपको कैसे मिल सकते थे।गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले तुम तो बड़े भोले हो, यह जानों कि महापुरुष कभी भी प्रकट हो सकते हैं।मिट्टी, पानी,आग, वायु, आकाश का चोला पहनकर वे कभी भी आ सकते हैं। कहीं भी आ सकते हैं।कैसी है महापुरुषों की आज्ञा पालन की महिमा धन्य हैं, ऐसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष और धन्य-धन्य है उनकी आज्ञा पालन का अनमोल सद्गुण अपने जीवन में संजोने वाले सौभाग्यशाली तो वे भी हैं जो गुरु आज्ञा पालन के रास्ते चलने की कोशिश करते हैं।और उनका भी सौभाग्य हिलोरें लेता है जो ऐसे प्रसंग पढ़कर गद्-गद् होते हैं, द्रविभूत हो जाते हैं।