युक्तेश्वर जी ने अपने शिष्य योगानंद जी से पहले ही दिन जो कहा उसे आप भी पढें..

युक्तेश्वर जी ने अपने शिष्य योगानंद जी से पहले ही दिन जो कहा उसे आप भी पढें..


गुरु में श्रद्धा गुरुभक्तियोग की सीढ़ी का प्रथम सोपान है। गुरु में श्रद्धा दैवी कृपा प्राप्त करने के लिए शिष्य को आशा एवं प्रेरणा देती है। गुरु में सम्पूर्ण विश्वास रखो। तमाम भय, चिंता और जंजाल का त्याग कर दो, बिल्कुल चिंतामुक्त रहो।गुरु के उपदेशों का आज्ञापालन या उनके मार्गदर्शन के आगे समर्पण गुरु-शिष्य संबंध का एक अन्य मूल नियम है। इसका इतना महत्व क्यों? क्योंकि अपने अहंकार और अहमजनित भ्रमो से ऊपर उठने के लिए मनुष्य का अपने से उच्चतर ज्ञान का आज्ञापालन सीखना अत्यावश्यक है।अगणित जन्म-जन्मांतरों में जबसे हम मानवजाति के सबसे अज्ञानी लोग थे तबसे हमारे अहंकार ने अपनी मनमानी की है। उसने हमारे आचरण, हमारे दृष्टिकोण, हमारी पसंद-नापसंद को, हमारी भावना तथा इन्द्रिय दास्ताँ के माध्यम से शासित किया है।अहंकार इच्छाशक्ति को अपनी दासी बनाकर चेतना को तुच्छ शरीर की सीमाओं में बाँध देता है। नित्य परिवर्तनशील मनोदशायें, भावनाओं की तरंगे, नित्य बदलती पसंद-नापसंद मानव की चेतना को किसी न किसी भावना से निरन्तर हिन्दोलती रहती है। आज उसे जो अत्याधिक पसंद है, वही उसे कल शायद बिल्कुल ही पसंद नहीं आयेगा और तब वह किसी और वस्तु की तलाश करने लगता है।चेतना की इस प्रकार के नित्य हिन्दोलित अवस्था मनुष्य को सत्य की अनुभूति से दूर रखती है। शिष्य के शिष्यत्व में एक मूल आवश्यकता है उसकी अपनी अनुशासनहीन, अविवेकी इच्छाशक्ति को अपने गुरु के उपदेशों के आज्ञापालन में झुकाने की। जो शिष्य यह कर पाता है वह बंधनकारी अहंकार की शक्तिशाली पकड़ को तोड देता है। जब परमहंस योगानंद जी ने अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी के आश्रम में उनके शिष्य के रूप में प्रवेश किया, तब लगभग तुरन्त ही उनके गुरुदेव ने उनसे यह निवेदन किया कि मुझे तुम्हें अनुशासित करने दो। क्योंकि इच्छाशक्ति का स्वातंत्र्य जन्मपूर्व और जन्मोउपरांत की आदतों के आदेशों अथवा अविवेकी मन के अनुसार बर्ताव करने में नहीं, बल्कि विवेक और स्वतंत्र चयन के अनुरूप बर्ताव करने में निहित है। तुम यदि अपनी इच्छा को मेरी इच्छा में लीन कर दोगे तो मुक्त हो जाओगे और यही शिष्यत्व का कर्तव्य है।शिष्य अपनी इच्छा को गुरु की इच्छा में लीन कैसे करता है? कि प्रत्येक आध्यात्मिक पथ के अपने कुछ यम-नियम होते हैं। इसी अनुशासन को, यम-नियम को विधि निषेध जिन्हें शिष्य की ईश्वर खोज के लिए आवश्यक मानकर गुरु निर्धारित करते हैं। हिन्दू शास्त्रों में इसे ही साधना कहा गया है। अर्थात गुरु द्वारा निर्धारित नियमों को ही साधना कही गई है। उनके आदेशों के मनःपूर्वक पालन से और उचित आचरण द्वारा गुरु को प्रसन्न करने के प्रयास से शिष्य अपनी इच्छा और गुरु की इच्छा के बीच अहंकार से निर्माण की हुई प्रत्येक दीवार को गिरा देता है।

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