महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 8)

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 8)


कल हमने पढ़ा कि किस प्रकार आश्रम मे मुर्शीद इनायत शाह अपने मुरीद बुल्लेशाह के हर एक तड़प पर तड़प रहे है आज हम फिर से बुल्लेशाह के पास वापस आते है आज बुल्लेशाह को अपने कमरे के बाहर खूब चहल पहल सुनाई दी आंसू पोछकर वह बाहर आया देखा कि आज तवायफ खाने मे संगीत के उस्तादों और नाचने वालो की बारात आयी हुई है बजाने वाले नए नए वाद्य यंत्र भी बंद पेटियो मे एक कोने मे रखे हुए आपा मेहमान नवाजी करती हुई फिरकी की तरह इधर से उधर घूम रही है इसी बीच उसकी आंखे बुल्लेशाह की सवालिया नज़रों से जा मिली आपा खुद करीब आई और बुल्लेशाह को बताया कि भाईजान पूरे लाहौर और उसके आसपास के इलाकों के फनकार इक्कठे होकर हर साल हमारे दौलत खाने पर तशरीफ लाते है।उर्स से पहले (उर्स एक त्योहार है) उर्स से पहले क्यों कि उर्स की रात हम सब मिलकर पीरो की महफ़िल मे रंग जमाते है इसलिए एक मर्तबा पहले मिलकर अपनी अपनी कव्वाली,नाच, गाना और ताफिया तय कर लेते है ताकि उर्स तक उनका रियाज कर सके इतना कहकर आपा फिर से शरबत का थाल घुमाने मे मशरूफ हो गई उर्स यह लब्ज सुनते ही बुल्लेशाह के जिस्म का तार तार झन्ना उठा उर्स पर तो शाहजी हर साल मौजूद होते है।ऊंचे तख्त पर बैठकर रातभर उस पीरी महफ़िल को रूहानियत बख्शते है बुल्लेशाह बेकाबू सा हो गया बेकरार नज़रों से आपा को ढूंढने लगा बड़ी मुश्किल से उसने दौड़ती भागती आपा को रोका धीरे से पूछा क्या मे भी आपके साथ उर्स मे शरीक हो सकता हूं क्यों नहीं भाईजान जरूर आपकी तालीम भी पूरी हो चुकी है क्यो न वहीं दिन इम्तिहान का दिन भी हो जाए बस यह सुनना था कि बुल्लेशाह थिरक उठा हर तरफ से रोशनी की धार धार किरने उसके अंधेरे को चीरने लगी मानो खुशनसीबी के आफताब ने उसके दरवाजे पर ज़ोरदार दस्तक दी बुल्लेशाह अपने कमरे मे बैठकर गाने लगा मेरे ढोलन माही आजा अपनी सोहनिया शक्ल दिखा दिखा जा अखिया तरस गई कोठे चड़के वाजा मारिया कदी सज्जड़ नज़रिया आजा की अखियां तरस गई मेरी उजड़ी जींद बसा जा तेरे सुतड़े लेख बुझा जा कि अखियां तरस गई आज बुल्लेशाह के इल्तज़ा मे कसक के साथ एक छनन छनन खनक भी थी।यह खनक उम्मीद की उन छोटी छोटी घंटियों से उठी थी जो उसके दिल के मंदिर मे उर्स के जिक्र पर बंधी थी अब तक आपा मेहमान नवाजी से फारिक हो गई थी बुल्लेशाह फौरन अपने कमरे से निकल कर बीच के बड़े कमरे मे दाखिल हुआ था बेसब्री से आपा को पुकारा आपा। आपा आप मुझे एक रेशमी धागा देंगी? हा क्यो नहीं आपा फीते ले आयी बुल्लेशाह ने लपककर एक फीता लिया और उस पर गांठे लगाने लगा आपा अब और हैरानगी नहीं समेट सकी भाई जान अब इबादत का कौन सा नया ढंग इजात कर रहे है आप? यह गांठे यह गांठे किसलिए? गांठे उसके इश्क़ की मार बैठा हूं सब कुछ उस पर वार बैठा हूं खुलेगी ये गांठे जिस रोज़ जिस पल मे ले जाएगी उसके पास उसकी महफ़िल उर्स मे। जिसको पाने मे बेकरार बैठा हूं जिसकी गांठे मार बैठा हूं बुल्लेशाह किसी पागल जुनूनी की तरह फिर से गांठे मारने लगा आपा की हैरानगी पर भी गांठे पड़ गई इश्क़ की गांठे। गांठे खुलेगी उर्स मे। भाईजान खुदा के वास्ते खुलासा कीजिए बुल्लेशाह खुशी से ठिठुरती आवाज़ मे बोला आप जानती है उसी के पाक मौके पर मेरे मोल्लाह का मेरे शाहजी मेरे हज़रत शाह इनायत का इलाही तख्त भी सजता है इनायत अपने पूरे नूरो जलाल मे वहां मौजूद होते है हा क्या कहा? वहां हज़रत इनायत के भी कदम बोसी होते है आपा भी गुलाब सी खिल गई दिल के रास्ते से अरमानों क की बाड़ उसकी आंखो से चड़ आये।वह अक्सर सोचा करती थी कि जिस आफताब के एक कतरे भर मे उसके जिंदगी की बदनुमा रात को चीरकर सवेरा कर दिया या खुदा वह आफताब खुद कैसा होगा? जिसे जुड़े अल्फाजों और अफसानों मे जिसके वास्ते निकली अश्क और आंहो मे इतनी कशिश है कि मुझ जैसी तवायाफ तक मुरीदी के मायने सीख़ गई वह मुर्शीद वह सतगुरु खुद कैसा होगा वह जरूर इस ज़मीन इस सारी कायनात का मालिक पाक परवरदीगार खुदा ही होगा हा खुदा ही होगा। आपा चहकती हुई कह उठी सच भाईजान इसका मतलब हम उर्स पर हज़रत शाहजी का रूहानी दीद नाजिल होगा हा आपा हा बुल्लेशाह कांपते हुए उंगलियों से दुबारा गांठे मारने लगा मगर भाईजान उर्स पर इनायत की दीद से इस रेशमी गांठे और धागो का क्या वास्ता? कैसी तुक? बुल्लेशाह ने कहा देखिए आपा उर्स पर हम गुज़रे जमाने के उन शाही फकीरों कि याद मे कलमा पड़ते है कि जिन्होंने अल्लाह से मिलाप किया उर्स के लफाजी मायने भी यही है कि वस्ल अर्थात मिलाप,निकाह। एक रूह का माशूक हकिकी से मिलाप आपा पता नहीं क्यों मगर उर्स का जिक्र आते ही मेरी रूह मे भी शहनाइयां बज उठी है में यह सब लफ्जो मे तो बया नहीं कर सकता लेकिन ऐसा लगता है जैसे मुकामे हक से नवाजिशे गिरी है जो मुझमें यकीन की रोशनी भर रही है वे मेरे माथे को चूमकर मानो कह रही है कि सुन बुल्लेशाह जुदाई की काली रात करने वाली है अब तेरी जिंदगी मे जश्न की सुबह खिलेगी उर्स तेरी रूह की निकाह का दिन है तेरे साहू इनायत तेरी तड़पती शागिर्दी पर उस दिन कर्म बख्शेंगे मुझपे नज़र होगी मंजिले कि हवा के रुख बदले से लगते है वस्ल के चलेंगे सिलसिले कि रूह मे चिराग जलते से लगते है अच्छा भाईजान तो इसलिए आप ये रेशमी गांठे बांध रहे है पुराने समय मे पंजाब और आसपास के इलाकों मे शादी से पहले गांठे बांधने का रिवाज था मुहूर्त निकालने के बाद लग्न पक्का करने के लिए निशानी के तौर पर लड़के वालो की तरफ से लड़की के घर एक रेशमी धागा भेजा जाता था उस धागे पर उतनी ही गांठे बांधी जाती थी जितने दिन अभी शादी मे बचे है फिर जैसे जैसे दिन घटते थे लड़की गांठे खोलती जाती थी इस हिसाब से बुल्लेशाह ने भी गांठे बांधनी शुरू की थी बुल्लेशाह ने कहा हा आपा पूरी चालीस गांठे बांधुगा वस्ल की रातें जश्न ए उर्स चालीस दिन दूर है ना भाई जान।आनेवाली तारीख अपनी सुनहरी कलम से जरूर आपकी दास्तानें लिखेंगे दास्तान ए इश्क़ जिसे पढ़कर जमाना नूर हासिल करेगा आपा ने बा अदब बुल्लेशाह की मुरिदी को सिजदा किया और चली गई इधर बुल्लेशाह अब भी रेशमी धागे पर चालीस गांठ लगाने मे मशरूफ था।चालीस गांठे लग तो गई बुल्लेशाह ने धागे को आंखो से चूम लिया लेकिन अचानक धड़कनों ने बेसब्र रफ्तार पकड़ ली एक अनजाने से डर ने दिल की आवाज़ ने दस्तक दी क्या अब भी मुझे शाहजी ने कबूल नहीं किया तो? अब कायदे से तो बुल्लेशाह को फिर से अश्कों के समंदर मे डूब जाना चाहिए था मगर नहीं थी अब नहीं मुर्शीद के देश से आए एक अलग पैग़ाम ने उसकी रूह को दुबारा थपथपाया नहीं उस दिन वे तुझे जरूर अपनाएंगे यही तो होता है कि मुर्शीद हंसाता है तो मुरीद खिलखिलाता है अर्थात सतगुरु हंसाता है तो सतशिष्य खिलखिलाता है मुर्शीद रुलाता है तो मुरीद अश्क बहाता है मुर्शीद के हाथ मे डोर है जैसे नचाता है वैसे मुरीद नाचता है आज इनायत ने ही हवाओं के रुख कुछ ऐसे बदले थे कि बुल्लेशाह मे उम्मीद और हौसलों की ठंडी ठंडी ताज़गी भर अाई थी वह यक़ीन की जमीं पर कुछ इस अदा मे तनकर खड़ा हुआ कि मुरिदि का एक और शौख जलवा देखने को मिला।बुल्लेशाह ने घुंघरू बांधकर नाचना शुरू कर दिया और गाने लगा इक टोना अचंभा गवांगी में रूठा यार मनावंगी इक टोना मे पड़ पड़कर फूंका सूरज अगन जलावांगी में कर मती टोना फूकुंगी अपने रूठे यार को मनाऊंगी ऐसा तिलिस्मी टोना जिसकी आग सूरज तक को जलाकर राख कर देगी।आंखी काजल काले बादल भवा से आंधी लावांगी सात समुंदर दिल के अंदर दिल से लहर उठावांगी मेरी आंख की काजल से काले बादल उमड़ घुमड़ आएंगे। भवे उठेंगी तो आंधी कोंध जाएगी क्या कहूं मेरे दिल में जज्बातों के सात समुंदर लहलहा रहे है।मैं उन्हें हिला कल इश्क़ की ऐसी लहर उठाऊंगी कि मेरे सतगुरु उसके तेज बहाव में बह जायेंगे बिजली होकर चमक डरावा बादल हो गिर जावांगी तो हो मकान की पटरी ऊपर बह के नाद बजावांगी मोहब्बत की ऐसी बिजली चमकाउंगी मेरा यार डर जायेगा अंतर जगत की दहलीज पर बैठकर ऐसा अनहद नाद बजाऊंगी सतगुरु को राजी होकर मुझे अपने गले लगाना ही पड़ेगा।देखें आपने मूरिदी के बेबाक हौंसले यह तीखा जायका है मुरीदि का बुल्लेशाह ने इस काफी से जता दी कि मुरिडी फक़्त मिमियाना नहीं जानती वह दहाड़ भी सकती है क्योंकि उसे यकीन है अपने हुस्न पर अपने ईमान और बंदगी पर अपने इश्क़ की खालिस चमक पर और सबसे बढ़कर अपने रहमान की इंसाफ पसंद सल्तनत पर।

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