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महान संकट की ओर बढ़ रहे थे क़दम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-5)


मरकर भी दिखा देंगे तेरे चाहने वाले मरना तेरे बिन जीने से बड़ा काम नहीं है आज शिष्य ने मरने से भी बड़ा और जोखिम भरा काम चुन लिया था सतगुरु के बगैर जिंदा रहने का दम भर लिया था रुह के बगैर अपनी बेजान जिस्म ढोने की हिम्मत कर दिखाई थी बुल्लेशाह गुरुद्वार पर अपना दिलो जान सब छोड़कर निकल पड़ा मुर्दा सा बना बड़ चला दुनिया की चहल पहल भरे बाज़ार की ओर।इस बेचारगी और गमगीनी के आलम में वह बाज़ारो से गुजरता गया खूब शोरगुल हसीं ठठ्ठा था वहां दुकानदारों की लुभावनी आवाज़ ग्राहकों के नाज़ नखरे और चटकारो, माया अपने पूरे रंगो शबाब मे थिरक रही थी, मगर सोचो जिसे रूहानी गम के घने घेरो ने घेरा है उसे दुनियावी हवा भला क्या छुए? वो किसी ने अर्ज़ किया है ना कि ए मेरी जान के दुश्मन। तुझे अल्लाह रखे हम भी पागल है जो उस शक्स से है बबस्ता जो न किसी और का होने दे न अपना रखे, दुनिया मे धक्का लगता है तो निगाहें किसी ओर हमदर्दी कंधे को ढूंढ ही लेती है मगर हे गुरु के प्यारों सतगुरु का रिश्ता ऐसा चलता फिरता नहीं होता है यहां अगर एक ओर जुदाई के धक्के है तो दूसरी ओर एक अनोखी मोहब्बत भरी जकड़न है।गुरु की बाहों की इस जकड़न को अनोखी इसलिए कहा क्योंकि वह जितने धक्के खाती है उतनी मजबूत होती जाती हैं फ़िर गुरु के अलावा उसका कोई अपना नहीं रह जाता है तभी आज बुल्लेशाह बाज़ार की भीड़ भरी गलियों से भी तन्हा सा गुजर रहा था उसके जहन की आंख मुंदी हुई थी कान बहरे और जुबान गूंगी थी।बस एक ही इरादा जिंदा था कि अपने सदगुरु को कैसे मनाऊ? क्या करू? कि वे रीझ जाए चलते चलते सुबह से शाम हो गई बुल्लेशाह वहां पहुंचा जहां खूब जश्ने आलम था खूब शोर शराबा हो रहा था जी हा इस बेहोशी मे उसे इतना भी होशो हवास न रहा कि वह तवायफों की नब्ज परख दुनिया मे प्रवेश कर चुका था इतने मे जैसे किसी ने उसके होश को झंझोड़ा एक ऊंचे कोठे से एक दर्दीली तर्रनम उठी सुरो से बनी सुरा थी वो साथ ही सुनाई थी मुजरे की छूं छनान लाजवाब ताल के संग फन मे गुथा जादू था वह बुल्लेशाह की ज़िन्दगी के साज को छू गया उसके तारो को थिर्काकर उसमे आस की तरंग भर गया इतिहास कहता है कि इस नापाक महफ़िल के उठते सुरो से बुल्लेशाह को एक रूहानी पैगाम मिला था गौर कर बुल्लेशाह तेरे सदगुरु की पसंद क्या है? जब भी कोई आलाप उठाकर नाचता है वो इनायत कमल से खिल जाते है वो नाचने वाले पर बरबस बख्शीशे लूटा बैठते है क्यों न तू ये जरिया आजमाकर देख आज तक तो तूने अल्हड़ फलड़ ढंग से काफिया गाई है सुर ताल पे नाचा है परन्तु अब इस तवायफ की शागिर्दी हासिल कर गाना सीख, नाचना सीख खुशामदीद आबरू ज़मीन पर उतरेगा।इनायत की रहनुमाई तेरा दामन ढूढ़गी भीतर से पैगाम क्या मिला? बुल्लेशाह के सिकुड़े फेफड़ों से सांसों का झोंका गुज़र गया हा वो अपने गले को अब साज बनाएगा उसकी तारो को रियाज से खींच खींचकर साधेगा पैरो मे घुंघरू बांध कर नाचना सीखेगा अरे पैरो ही नहीं वह तो अंग अंग को घुंघरू बना डालेगा तालो तर्ज पर उनको बजा बजाकर अपने रूठे सदगुरु को मनायेगा बुल्लेशाह फौरन सुरो और धुनों के सोते की तरफ दौड़ पड़ा आनन फानन कोठे की सीढ़ियां चढ़ने लगा जिगर मे दिवानगी का तूफान लिए उसकी इस रफ्तार को रोंदने वाला दूर दूर तक कोई ख्याल कोई शर्म कोई हया नहीं थी इतनी भी नहीं की वह किसी संगीत या शास्त्री की पाठशाला मे नहीं जा रहा, इनायत को रिझाने के लिए किसी दरगाह की सीढ़ियां नहीं चड़ रहा बल्कि शहर के सबसे नापाक दुकान की ओर बड़ रहा है।सबसे बदनाम सीढ़ियों पर दर्द भर रहा है ऐसी सीढ़ियां जिन पर चढ़ने से पहले आदमी बहुत नीचे गिर चुका होता है सच मे यही जुनून की असली सूरत तो इस जुनून के सदके बुल्लेशाह को अपने इनायत को उन पाकीज़ा कदमों को चूमना जो था फ़िर उन तक पहुंचने का जरिया चाहे वो जहनुम ही क्यों न हो उसे तो उन पर भी जन्नत का नूर बिछा दिख रहा था तेरे ख़यालो तेरे ख्वाबों की ये ठंडी फिज़ा हांफती रुह को पनाह जैसे लगती है तेरी उल्फत मे ये कैसा मुकाम आया है? हवा कोठे की भी दरगाह जैसी लगती है ऊपर पहुंचते ही बुल्लेशाह ने जैसे ही किवाड़ खटखटाया।वैश्या खुद ही बेपरवाह बाहर आई जुल्फो से लेकर पैर के नाखूनों तक वह हुस्न की मल्लिका थी कुछ खुदा का करम कुछ श्रृंगार की कलम तराशी पूरी तबियत से गई थी मगर चाह की निगाहें तो पहले ही किसी के रूहानी हुस्न कैदखाने मे बंद थी भला तवायफ के जिस्मानी हुस्न ताकत मे उस कैद के ताले तोड़ने की हिम्मत कहां थी बुल्लेशाह तो तवायफ मे महज अपने सतगुरु तक पहुंचने का इलाही रास्ता खोज रहा था उधर तवायफ बुल्लेशाह को एक नजर देखते ही कुछ हिचक गई उसने सोचा यह कैसा अजीबो गरीब ग्राहक है इनकी निगाहों से न कोई बेगेरद जानवर झांकता है न ही नज़रों के कोटोर मे खरमस्ती की भीख है पर नहीं यह कोई न कोई ख्वाहिश तो जरूर लेकर यहां आया है तवायफ पैनी नजरो से बुल्लेशाह को कुरेदती जा रही थी फिर बुल्लेशाह की असली सूरत जानने के लिए उसने उसी मनचली अदा से घुंघरू खनकाए कंगन भरी कलाइयां घुमाई और नैन भर इशारा किया मगर यह क्या? आज तक उसकी इन अदाओं पर सिक्को की थैलियों के मुंह खुल जाते थे सिक्को या जवारतो की खनक पलटकर जवाब देती थी परन्तु खनक तो आज भी हुई परन्तु कैसे? दर्द की गहराइयों से उठती हुई बुल्लेशाह की एक ठिनक्ती हुई आवाज आई आपा(आपा अर्थात बड़ी बहन) यह एक कामिल मुर्शीद अर्थात सदगुरु के सच्चे सतशिष्य की खनक थी दुनिया के बाज़ार मे एक साधक की दौलत की खनक थी तवायफ ने यह खनक सुनी तो सकपका कर रह गई कानों सुनी पर यकीन ही नहीं हुआ आज पहली मर्तबा उसे किसी ने इतने इज्जतदार मुकाम तक पहुंचाया था मानो कोठे के कंगूरे को मंदिर की घंटी कह दिया था आपा शब्द सुनते ही तवायफ के कमान से खींची हुई चितवन की डोर मानो टूट गई पलके झुक गई अपने लहराते पल्लू को समेटने और उसमे लिपट जाने की ज़ोरदार तलब उसके अंदर जोर मारने लगी मगर अपने जीवन मे धोको के इतने थपेड़े खाएं थे कि सख्ती का आना लाज़िम था इसलिए उसन अपनी तवायफी हस्ती मे फिर से शायराना अंदाज़ मे कहा।मेरा हुस्न निगाहों का कैदखाना है पर तुम आंखो को इस कैदखाने से आजाद करो दिखने मे साफ सुथरे घर के नजर आते हो रात का वक़्त है अल्लाह को जाकर याद करो बुल्लेशाह ने भी उसी अंदाज़ मे जवाब दिया तुम्हारे हुस्न से कोई गर्ज नहीं मुझको में अपने पीर की रूहानियत का ही घायल खुदा की बंदगी ही जिंदगी का है मकसद बस उसका नाम जपा करता हूं हरपाल, तवायफ सुनते ही दोनों हाथो से ताली बजा उठी ज़ोरदार तंजिया हंसी के साथ उसने इक फिक्रा फ़िर दिया कि अच्छा तो रूहानियत की नमाज़ पढ़ते हो बंदगी का मिज़ाज रखते हो फिर उस हुस्न की मंडी मे क्या अपना सिर मुंडाने आए हो? तवायफों का रंगीन सनमखाना है लोग आते हैं यहां हुस्न की दावत के लिए जवां उम्र मे ही हिल गए हो प्यारे हवस के टीलों पर आए हो इबादत के लिए? बात टो सोलह आने सही थी बुल्लेशाह तवायफ खाने पर बड़ी अजीबो गरीब मुराद लेकर पहुंचा था उसने कहा आपा तुम्हारे पैरो की थिरकन मे एक पाकीज़गी है घुंघरूओं की छनन मे अजब सा जादू कुछ एक कलमे तुम इस फन के सिखा दो मुझको इसी उम्मीद ने दिल को किया है बेकाबू तुम्हारा हुस्न नहीं हुनर ही मेरे लिए खजाना है कोई रूठा है उसे नाच नाचकर मनाना है इतना कहते ही बुल्लेशाह की आंखो मे आंसू भर आए बस मन्नत मनाता रहा बोलो आपा मुझे इस हुनर की सौगात दोगी ना? मुझे नाच नाचकर उन्हें रिझाना है बोलो सिखाओगी न? अच्छा तो यह वात है यह तो महज़ एक सनकी दीवाना है गम का मारा मजनू शायद किसी लैला की बेवफाई या रुसवाई के वार से जख्मी होकर आया है तवायफ मन ही मन सोचने लगी।तवायफ की दुकान पर तो ऐसी लूटी पिटी शक्ल वाले मजनू रोज़ आते रहते है तवायफ ने फिर कहा राह चलते लोगों को अपना फन दे दे? तुम्हे क्या शक्ल से हम ऐसे वैसे दिखते है न भूलो शहर का यह सबसे हसीं कोठा है यहां तो सांस भी लेने के पैसे लगते है चलो हम कर भी दे तुम्हारा काम क्या दोगे? बताओ हुर के हुनर का दाम क्या दोग?तवायफ खरी सौदे बाज़ी पर उतर आई थी परन्तु बुल्लेशाह के पास बचा भी क्या था? उसकी सांसे भी तो उसके गुरु के चरणों मे अटकी थी वह दे भी क्या सकता था परन्तु फिर भी बुल्लेशाह ने कहा कि रुह से जिस्म का जामा उतार सकता हूं जिंदगी दर पे तुम्हारे गुजार सकता हूं इनायत ओलिया की एक हंसी के खातिर में अपनी छाती मे खंजर उतार सकता हूं आज से मौत के दिन तक तुम्हारा नौकर हूं बस एक हरकत है एक हसरत है मेरे दिल मे अगर कहने दो मुझे में जब तलक की अपने प्रीत को रिझा ना लू तुम इतनी देर तक मुझ पर मेरा हक रहने दो अरे हा अभी बुल्लेशाह के पास ले देकर इक जिस्म तो बचा ही था और उसमे एक रोती धोती जान भी किसी बचे कुचे समान को गिरवी रखने की जुबान दे दी।तवायफ सहम कर रह गई कसम पैशे की आजतक किसी शक्सियत से वास्ता नहीं पड़ा यह है कौन? कौन सी बस्ती से आया है? और यह इनायत है कौन? जिस पर यह इतने कातिलाना अंदाज से फ़िदा है तवायफ ने अपने इस आखिरी सवाल को धीमी सी आवाज मे पूछ ही लिया बुल्लेशाह ने कहा आपा इनायत कौन है? वो मेरे शाहजी, मेरे मुर्शीद है मेरे पीर है मेरे ओलिया है मेरे मोल्लाह है आपा वो मेरे बिना उसके कैसे जियू? क्या है वो कैसे कहूं? तड़पते दिल का अरमान है मेरी धड़कन मेरी जान है इंतजार है सूखती निगाहों का करार है वो मेरी आहो का क्या कहूं? मेरी डूबती सांसों की आवाज़ है बजता है हर वक़्त तो वो साज है मस्ज़िद सी उठती अजान है ग्रंथ है वैद है पुरान है क्या है वो कैसे कहूं? समाया रहता है रग रग मे वो सुरूर है कहां नहीं बस आंखो से वो दूर है मेरा धर्म मेरा दीन मेरा ईमान है मेरी किस्मत, मेरी आबरू मेरी जान है क्या कहूं वो क्या है? कैसे कहूं? टूटती उम्मीद की प्यार आस है लगता है कहीं आसपास है कभी आंखो मे रहता है कभी आंखो से बहता है क्या है वो कैसे कहूं? इश्क़ है प्यार है मेरी मोहब्बत है मेरी आरज़ू मेरी चाहत मेरी कुरबत है दाता है मालिक है मेरी जान है मेरे हर सजदे का वहीं मुकाम है क्या है वो कैसे कहूं? मेरा दिल है धड़कन है जिंदगी है मेरी, मेरा सजदा है इबादत है वो बंदगी मेरी तमन्ना है ख्वाहिश है, है वो जुस्तजू मेरी मेरा जिस्म मेरे जान रुह भी वो मेरी क्या नहीं वो ये कैसे कहूं? जुदा होने के बाद आज पहली मर्तबा किसी ने बुल्लेशाह से पूछ लिया था कि इनायत ये कौन है? इसलिए उसके दिल के साज़ से अनहद धुन तो फुटनी ही थी उधर तवायफ बुल्लेशाह को घूरते और सुनते हुए सुन्न सी हो गई उसने आज तक अपने कामिल उस्तादों तक को सरंगियो से ऐसी दर्दीली धुन नहीं सुनी थी तजुर्बे के किसी साज ने उसके आगे ऐसा गीत नहीं गाया था और सबसे कमाल की बात तो यह थी कि यह रिश्ता किसी औरत मर्द के बीच नहीं था जैसा कि तवायफ ने आज तक देखा भाला था यहां तो एक अच्छा खासा गबरू नौजवान अपने गुरु के लिए आंसू बहा रहा था यह कैसा कयामती रिश्ता है तवायफ गौर करने को मजबुर हो गई।शहरी नींद मे ऊंग रहा उसका ईमान करवटें बदलने लगा बुल्लेशाह के आपा आपा के लारो मे उसने सच मे एक आपा को जन्म दे दिया आज पहली मर्तबा उसके अपने ही कोठे पर उसकी हार हुई हुस्न झुका और ग्राहक अपने पाक मंसूबे की ऊंचाई पर तन कर खड़ा दिखाई दिया आखिर तवायफ बुल्लेशाह की मदद के लिए तैयार हुई बेदाम, बेमोल परन्तु एक शर्त पर।

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग – 4)


जख्मी न हुआ था दिल ऐसा सीने में खटकन दिन रात न थी पहले भी लगे थे सदमे बहुत रोया था मगर यह बात न थी मोहब्बत के रास्ते पर छुरिया तो चलती ही रही है दिल को जख्म मिलते रहे हैं सीने में कितनी ही मर्तबा धड़कनों की रफ़्तार महसूस की है आंखो ने जज़्बातों के सावन बरसाए है वाह रेे मेरे हबीब तेरे बेइंतहा इश्क़ के सदके तेरे इलाही हुस्न के सदके, तेरे खट्टे, मीठे नाज़ नखरों के सदके तेरे हज़ारों रुखो और बेरुखी के सदके खुदा की कसम तेरी इन रूहानी अदाओं ने आज तक मुझको बहुत सताया है बेहद सितम ढाया है मगर आज जैसा सदमा और ज़ख्म तो तेरे किसी वार से नहीं मिला सच में यह वार तो कातिलाना हैइस कदर की मेरी रूह तक को सीने का तीखा दर्द बर्दाश्त नहीं हो रहा और वो फड़फड़ाकर उड़ जाने को है बुल्लेशाह वहीं आश्रम के बाहर बैठा रूह की इस फड़फड़ाहट को झेल रहा था आज उसे याद आ रहे थे मोहब्बत के वो सभी खुश्क मौसम जिन जिन में इनायत ने उसे तड़पाया था उनकी रुखाई या खफ़गी की पतझड़ उनकी जुदाई की सर्द हवाएं जिनमें वह ठिठुरा था मगर जो भी हो इन मौसमों के खुश्की में भी कहीं न कही बाहर का एहसास जिंदा रहता था आज जैसा कहर किसी मौसम में न था ऐसे में बुल्लेशाह के दिल से एक कराह सरसरा कर छूट पड़ी।इतने गहरे और बारीक शब्द है कि सिर्फ सतशिष्य ही इसे समझ सकते है इनमें बुल्लेशाह अर्ज कर रहे है कि गुरुदेव मैं तो कबका आपके इश्क़ में मर गया था लेकिन आप तो मरे हुए को मारने से बाज़ नहीं आए घड़ी घड़ी आपने मुझे भैंसो वाली बेत से मारा, गेंद की तरह खुटी से खुटा।मुझे ज्यादा किसी से गुफ्तगू नहीं करने दी जब देखो गला घोंटते रहे मेरा और इस मर्तबा तो ऐसा कसके तीर चलाया की मेरी जान पर बन आई, सतगुरु और ऐसी बेरहम मारपीट ये कैसी अजीबोगरीब बाते है बुल्लेशाह की। क्या सच में गुरु इस दर्जे के तानाशाह होते हैं जी हां यकीनन गुरु तानाशाह होते हैं लेकिन मन के तानाशाह इलाही दुनिया का यह सुल्तान साधक के मन पर तानाशाही करते हैं उसके दिलों जिगर पर अपनी हुक़ूमत निभाते हैं अपने कानून की बेटी से उसके मन को पीटते हैं मुरीदी के कायदों के दायरे में उसे बांधते है मगर सतगुरु की यह अंदरूनी मार ही तो उनकी फिक्र और परवाह का सबूत है गुरु का बंधन ही तो खुदा तक की सीढ़ी है उसकी बेरुखी बेशक कड़वी है मगर यह दवाई है बड़े मर्जो का इलाज़।ईमान वाला सत्शिष्य ही यह जानता है मगर जब इन सबको सहन करने की बारी आती है तो अच्छे से अच्छा तथाकथित साधक भी तिलमिला उठते हैं ठीक जैसी आज बुल्लेशाह पर गुज़र रही है वह रो रो कर इनायत में उल्फत में गिले शिकवे कर रहा है।परंतु उसके अंदाज़ की शौखी तो देखिए तुसी छुपते हो ऐसा पकड़े हो असा नाल जुल्फदे जकड़े हो तुसी अस्सी छुपन नो तकदे हो हुड़ जाण न मिलदा नस खरजी। कितनी ही दफा तुम मुझसे छिपते छिपाते रहे हो और मैं पगला तुम्हे ढूंढ़ता रहा हूं। ढूंढ़ ढूंढ़ कर तुम्हें अपनी इश्क़ की जुल्फों में जकड़ता रहा हूं मगर वाह रे मेरे ओलिया मेरे सदगुरु बहुत खूब।तुम तो छुपने में खूब तगड़े निकले मैंने तुम्हे सुराख जितना भी रास्ता भी नहीं दिया फिर भी आज मेरी जिंदगी से निकलने की तैयारी कररहे हो तुझे अल्लाह का वास्ता कसम है खुदाई की। तू इतना बेदर्द बेरी न बन मेरे साईं मेरे सदगुरु बस इस दफा अपना नूरानी मुखड़ा देखने की इजाज़त दे दे।मुझे यूं न तरसा न रुला बाहर आकर देख तो ज़रा मेरी क्या हालत कर दी है तूने में यहां आधी रात को तेरे नाम की नमाज़ पढ़ रहा हूं नहीं जा सकता मैं और कहीं नहीं छोड़ सकती तुझको मेरे इनायत तेरी दूरी मेरे वली सही नहीं जाती, मेरी नम निगाहों ने आवाज़ दी है तुम्हे दिल की आहों ने आवाज़ दी है खड़ा हूं तेरी राह में तेरे इंतजार में। तुम्हे इन राहों ने आवाज़ दी है हवा थम गई है वक़्त ठहर गया है इन रुकी हुई सांसों ने हे सतगुरु तुम्हे आवाज़ दी है मैं रो रहा हूं ऐसे की अश्क बहते जाते तुम्हे दिल की ख़ामोश सदाओ मे है।मेरे दाता आवाज़ दी है सोचता हूं कि न आए तुम्हारा क्या हाल होगा बेचैन इन ख्यालों ने आज तुम्हे आवाज़ दी है बुल्लेशाह की अंदरूनी दुनिया में गम की ऐसी रात समाई थी कि उसे बाहर सुबह के उजाले का एहसास ही नहीं हुआ परन्तु तभी आश्रम के अंदर से उसे भैंसो के रंभाने की आवाज़ अाई जंजीरे खुटियों से टकरा रही थी बुल्लेशाह कहरा उठा यकीनन अब इनायत शाह चरगाह जाने के लिए बाहर आएंगे वह सांसे थाम कर फाटक की महिन झिलियो से अंदर झांकने की कोशिश करने लगा मगर सब फ़िज़ूल कुछ नज़र नहीं आया बुल्लेशाह झल्लाकर फाटक का ही कोसने लगा मेरे सब्रो इंतजार का इम्तहान यू न ले तेरे दर पर इंतजार मे मर जाऊंगा रोते रोते तभी फाटक से सटी दीवार मे नाली से झमाझम पानी बह निकला इस पानी मे चारे भूसे और गोबर की किच भी घुली थी बुल्लेशाह को समझते देर न लगी कि अंदर भैंसो को नहलाया धुलाया जा रहा है जो हमेशा चार्गाह से लौटने पर ही किया जाता था साथ ही की आस्ताने के आश्रम के कोठर से ही चारा और भूसा डालकर भैंसो को परोस दिया गया है मतलब की आज इनायत शाह बाहर नहीं आएंगे यह समस्त ही बुल्लेशाह के अरमानों के सारे महल ढह गए।वह घुटनों के बल जमीन पर गिर गया अब बुल्लेशाह मे जिद सिर चढ़कर बोल रही थी वो आहों की भाषा में अपनी बुलंद फरियादे उठाए जा रहा था हो मेरी आह में ऐसा असर कि वो आने को मजबुर हो जाएं हो मेरी इश्क़ मे वो तड़प। की तड़प में और असर उधर हो जाए। कहते है मुरिदो की राह पर आह की बोली सबसे असरदार होती हैं जो काम बुलंद से बुलंद चीख नहीं कर सकती वह एक साधक की बे आवाज़ आह कर जाती हैं इश्क़ की तड़प मे वो कशिश हुआ करती है जिससे सतगुरु अंसुनकर ही नहीं सकते बुल्लेशाह मुरिदी के इस राज से बखूबी वाकिफ था तभी अभी तक आंहो की महिन डोरी से सदगुरु को अपनी ओर खींचने की कोशिश में लगा था मगर आज इनायत की बेरुखी ने इस कानून की भी कद्र नहीं की शायद वे कोई इससे भी बड़ा कानून बुल्लेशाह की जिंदगी में उतारना चाहते थे वैसे भी सतगुरु के करम को कायदों या अक्ल की जिरह से कहां समझा जा सकता है।उनकी सुल्तानी अदाएं बेचारी गरीब समझ को कितनी समझ आ सकती हैं वे क्या और क्यों कर रहे है वह तो वहीं जान सकता है या फिर वह शक्स जाने जिसे वह खुद जने है क्यों सता रहा है तू क्यों रुला रहा है क्या ये चीख चीत्कार सब बेकार जा रहा है क्या सुन नहीं रहा, मेरी आहों आवाज़ को तो और सुन रहा है तो क्यों इतना सता रहा है आवाज़ का निकलना गले से अब मुश्किल ही लगता है सुन सके तो सुन ले धड़कने की अब तो ये दिल भी कराहता है परन्तु आज इन सवालों का कोई जवाब बुल्लेशाह के पास लौटकर नहीं आ रहा था।एक वक़्त था जब जमाने ने बुल्लेशाह को रुलाया था उस पर तानो, उलाहनो की गाज़ गिराई थी, उसके खिलाफ जिहाद की आंधी उठाई थी मगर वह इन खिलाफी सितमों से जूझ गया था सब कुछ आसानी से झेल गया था क्यों? क्यों कि उसके सिर पर सदगुरु का इलाही साया था सारे मर्जो का इलाज़ उनके पाक कदम थे आंसुओ से गीली करने के लिए सदगुरु की गोद थी सारे शिकवे शिकायते उड़ेलने के लिए उनका दिलासा भरा प्यार या मगर आज वह इनायत की शिकायत किसे करे?गुजरते वक़्त के साथ बुल्लेशाह टूटता गया उसकी सारी उम्मीदें गुमराह हो चली आश्रम के अंदर जाने का रास्ता भी बंद था बुल्लेशाह की काफियो और इतिहास से यह प्रमाण मिलता है कि इस दौर में उसके मन में दो रास्तों ने दस्तक दी पतले रास्ते ने कहा कि बुल्लेशाह यहां तो रोना धोना और इनायत की दम घोटू हुक़ूमत यू ही चलती रहेगी तेरे लिए आंखे बिछाए बैठी है दौलत शोहरत मिल्कियत अपने पन की हमदर्दी सुभान अल्लाह क्या नहीं है वहां एक कदम बढ़ा और बना ले अपनी किस्मत।कहते है मन द्वारा इस रास्ते की बांग पर बुल्लेशाह कांप उठा फौरन उस पर थूक डाला इस सोच को सिरे से नकार कर दिया रूहे इशरत मुझे फरेब न दे नेखो बद की तमीज है मुझको जो किया है अदा मोहब्बत ने गम वो भी बेहद अजीज है मुझको ये सर अब कट सकता है मेरे जिस्म की बूटी बूटी हलाल हो सकती है मगर में अपनी रगो में बेवफाई का खून लेकर घर वापस नहीं जा सकता अपनी सांसे किसी और के लिए मैली नहीं कर सकता रूह पर कूर्फ का कलंक लेकर नहीं जा सकता बुल्लेशाह रेत मे मुट्ठियां मार मार कर पहले रास्ते को फटकार ही रहा था तभी मन द्वारा दूसरे रास्ते ने दस्तक दी नहीं जा सकती तो तुझे अब जीने का कोई हक भी कहा है बुल्लेशाह अब किसके आसरे जिएगा?किस मकसद के लिए जिएगा अगर तू नहीं है मेरी जिंदगी में नहीं जिंदगी से है कोई वास्ता, सच कहता हूं तू ना मिला अगर उस जिंदगी का मौत ही है रास्ता कैसे कहूं? खुद से कितना लड़ा हक़ीक़त मगर ये वही पर खड़ा हूं अब थक चुका हूं बहुत रों चुका हूं हुआ खत्म जीवन से जो भी है सिला अगर तू नहीं है मेरी जिंदगी में नहीं जिंदगी से कोई वास्ता यकीनन अब तुझे मर ही जाना चाहिए बुल्लेशाह इनायत के बगैर न कोई तबस्सुम है न कोई नज़ारा है जिसे देख देख तू ज़िन्दगी जिये अगर आंख और कान बंद करके तो जी भी लिया तो सीने के इस तीखे आजाब को कैसे झेलेगा? तेरे गले में जज़्बातों के ऐसे ऐसे फंदे पड़े है वो वैसे ही तेरा दम घोट लेंगे इसलिए खैरियत इसी में है कि बुल्लेशाह तू खुद खुशी कर ले मगर वो कहते है ना कि मुंह फेरकर जिंदगी से मौत के आगोश में समा जाएंगे मुंह पर अगर यह दामन भी रास नहीं आया तब हम कहां जाएंगे? यही सवाल बुल्लेशाह की मुरीदी ने उठाया बुल्लेशाह यह मौत का रास्ता तो बड़ा आसान है चुनने को तो तू इसे चुन सकता है मगर क्या इस पर बढ़ने पर तेरी बेजिसम रुह को करार मिल जाएगा अगर जन्नत भी मिली तो क्या वो सदगुरु के बिना दोहजक से कम ना होगी अरे तेरा मुकाम मौत नहीं तेरा मुकाम तो सतगुरु के चरण है इनायत शाह है तेरे जलते सीने का करार उनकी मीठी मुस्कान है तेरी फड़फड़ाती रुह को चैनो अमन कब्र में दफन होने से नहीं गुरु के पाक कदमों में समा जाने पर ही मिलेगा अरे बुजदिल हिम्मत है तो इस जुदाई की आग को झेलकर दिखा आग में खुद को सेंक सेंककर ऐसी इबादत कर की जिंदगी नहीं तो कम से कम मौत को उनके कदमों का एहसान मिल जाए मरने के लिए ए दिल कुछ और ताबीर कर ले मरने के लिए ए दिल कुछ और तदबीर कर ले उनके कदमों में मरे अभी काबिल नहीं है तू बुल्लेशाह तुझे खुद खुशी नहीं शहीदी मनानी है।अपने रूठे यार को मनाना है उसे अपना बनाना है जिस्म से आखरी मांस निकलने से पहले उन्हें बाहे फैलाने को मजबुर करना है बुल्लेशाह इन्हीं ख्यालों में खोया रहा और वहां से अपना मुर्दे जैसा शरीर उठाकर चल पड़ा परन्तु कहां जा रहा है यह स्वयं बुल्लेशाह को भी नहीं पता।

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-3)


पिछली बार हमने सुना कि किस प्रकार बुल्लेशाह के वालिद इनायत शाह से रजामंदी लेकर बुल्लेशाह को निकाह में शरीफ होने की इजाजत लेकर उसे हवेली के जाते हैं इधर इनायत शाह के प्रतिनिधि के रूप में आश्रम से एक साधक आता है जिसे बुल्लेशाह नज़र अंदाज़ कर देते है वह साधक पेड़ की ओट में बुल्लेशाह का देर तक इंतजार करता रहा परन्तु शाम होने पर भूखे पेट ही आश्रम की ओर लौट पड़ा सुबह इनायत शाह के पूछने पर उसने सारी बातें बताई तब इनायत शाह ने ऐलान कर दिया कि चलो आज से हम अपनी फ़ुहारों का रूप उसकी क्यारियों से हटाकर तुम्हारी तरफ कर देते है।बुल्लेशाह से संबंधित ऐतिहासिक साहित्य बताता है कि उधर जैसे ही इनायत शाह नाराज़ हुए वैसे ही इधर बुल्लेशाह की अंदरूनी दुनिया पर काला पर्दा पड़ा चला गया इनायत शाह का बस इतना ही कहना था कि चलो उसकी क्यारी से हम फुहारा हटा देते है कि उसकी भीतरी मालिकियत ही ढह गई मानो उसका खजाना कंगाल हो गया आज निकाह पूरा हुआ बुल्लेशाह ने वालिद से आज्ञा ओर आश्रम की तरफ चल पड़ा लेकिन दिल मन में कुछ कमी सी महसूस हो रही थी यह सब महसूस कर बुल्लेशाह किसी लूटे पीटे खजांची की तरह छाती पीटकर कराह उठा।एक ही धुन एक ही तर्रानूम सानू आ मिली यार प्यार आ, कितनी अजीब बात है देखा जाय तो बुल्लेशाह इनायत शाह से मिलने आश्रम की ओर जा रहा था लेकिन वैसे इनायत शाह को खुद से मिलने के लिए पुकार रहा था इससे साफ जाहिर होता है कि बुल्लेशाह को अपनी भीतरी बस्ती में गुरु की गैर हाजिरी का एहसास पहले से ही हो गया था, सदगुरु की नाराज़गी का इशारा मिल चुका था तभी तो इस काफ़ी के जरिए उसने यह भी कहा है कि मेरे प्यारे शाह आप अचानक मेरे घर को वीरान कर दूर कहा चले गए? किस कसूर किस जुर्म की वजह से आपने मुझे बिसार दिया समझ लो मेरे बड़े परिवार वाले। बड़े परिवार वाले इसलिए कहा क्यों कि इनायत शाह के आश्रम में कई सारे शागिर्द रहा करते थे समझ लो ए मेरे बड़े परिवार वाले सदगुरु आप ही मेरा करार है मेरा इकलौता प्यार मेरे यार है इसलिए फौरन अपने घर वापस लौट आओ और मेरे जिगर में लगी भभक को बुझाओ इधर बग्गी के पहिये और बुल्लेशाह की निहोरे मंजिल छूने ही वाले थे उधर उसके गुरू भाईयो को दूर से ही घोड़े की टापे और उनके गले में बंधे घुंघरुओं की खनक सुनाई दी आश्रम में जश्न की सी लहर दौड़ गई तीन चार दिनों से वे रात के मुशायरे में बुल्लेशाह की लज़ीज़ काफियो की कमी महसूस कर रहे थे।आज उनकी रूह का रसोइया उनका अलबेला गुरु भाई लौट आया था इसलिए सभी अपनी अपनी कुटिया से बाहर निकल आए सुलेमान और अब्दुल तो बाजी मारने के इरादे से दौड़कर गुरु की कुटीर तक पहुंच गया खुशी से खबर दी शाहजी शाहजी आपका बुल्ला लौट आया मगर शाहजी का रवैया और जवाब दोनों उम्मीद से उल्टे मिले इनायत शाह रोबीली आवाज़ में लगभग चीखते हुए बोले जाओ आश्रम के फाटक बंद कर दो बुल्लेशाह अंदर दाखिल ना होने पाए। गुरु का यह हुक्म आश्रम पर कहर की तरह बरसा माना बिजली कड़क कर दिलों के अंदर तक जा गिरी और उन्हें अंदर तक छेद गई।सभी साधक सुन्न से खड़े रह गए सभी की तरफ देखते हुए इनायत शाह फिर गुर्राए सुना नहीं फाटक पर ताला जड़ दो उस मग्रुर सैय्यद के लिए अब हमारे आश्रम का कोई चप्पा खोलो नहीं हमारी देहलीज तक उस नामाकुल की आहट से मैली नहीं होनी चाहिए, पांच छह साधक फाटक की तरफ दौड़े थरथराते हाथो से उन्होंने लौहे कुंडी को पकड़ा। एक पल सहमी नज़रों से शाही बग्गी पर सवार बुल्लेशाह को निहारा फिर धड़ाक से फाटक के दोनों पल्ले जोड़ दिए हुकमानुसर जंजीरे खींचकर ताला भी जड़ दिया उधर बुल्लेशाह की तबियत पहले से ही नाशाग थी, फाटक बंद होते देखकर तो घबराहट का बुखार ज्यादा सुर्ख हो गया वह झट बग्गी से उतरा बग्गी को विदा किया फिर फाटक खटखटाया, ऊंची आवाज़ से पुकारा सुलेमान, अब्दुल, रहीम, अफ्जु कहां हो सब भाई? यह आज सुबह सुबह ही फाटक क्यों बंद कर दिया खोलो में तुम्हारा बुल्ला।बुल्लेशाह की इस पुकार में अपनेपन का वास्ता या साथ ही खौफ की लड़खडा़हट थी मगर यह लड़खडा़हट इनायत के सख़्त रुख़ को न पिघला पाई, अपनेपन का वास्ता गुरु भाईयो के पैरो पर बंधी गुरु के हुक्म की बेड़ियों को न काट पाया आश्रम के अंदर पत्ते तक ने हरकत नहीं की बुल्लेशाह का दिल बैठ गया क्यों कि अंदरूनी और बाहरी दुनिया में उसके लिए किवाड़ गुरु ने बंद कर दिए थे एक शायर ने खूब फरमाया है कि मेरी दिवानगी पर होश वाले बेशक बहस फरमाए, मेरी ही दिवानगी पर होश वाले बेशक बहस फरमाए मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है यकीनन दिवानगी एक दर्द है पागलपन की हद तक का जुनून है एक मदहोशी है, बेहोशी है इसलिए होश हवास के साथ इसे न तो महसूस किया जा सकता है और नहीं समझा या परखा जा सकता है तभी तो दुनिया की होशमंद मंडी से गुजरते वक्त एक बार खुद बुल्लेशाह ने गाया था कि दिल की वेदना न जाने अंदर दे सब वेगाने, ये लोग तो अंदरूनी दुनिया से बेखबर दीवाने हैं ये क्या मेरे दिल की पीर को समझेंगे फिर कौन जान सकता है इस पीर की तासीर को जिस नू चाट अमर दी होवे सोई, अमर पछाड़े।इस इश्क़ दी औखी घाटी जो चढ़ैया सो जाने वहीं जिसने खून पसीना एक करके इश्क़ के पहाड़ की खड़ी चढ़ाई की है वहीं जिसने तबीयत से सदगुरु के जामे इश्क़ पिये है जिसे उनकी रूहानी लज्जत का चस्का लग गया है वही समझ सकता है कि इस जाम मे बूंद भर भी कटौती होती है तो साधक के दिल पर क्या गुजरती हैं आज बुल्लेशाह से तो दो बूंदे नहीं पूरा का पूरा जाम छीना जा चुका था, मछली को आबे जम जम के तालाब से दूर फेकने की तैयारी हो रही थी ऐसे मे छटपटाहट तो होती तो लाजमी ही है परन्तु किस दर्जे की छटपटाहट यह भी जुबान लिखाई था फिर जज़्बाती जुबान तक से पूरी तक बयान करना नामुमकिन है इसे मात्र पढ़कर श्रोताओं को सुनाया या समझाया नहीं जा सकता मगर इन शब्दों के साथ इंसाफ तक होगा जब श्रोता इन्हें सुनेंगे नहीं महसूस भी करेंगे कि गर गुरु से जुदाई की तड़प क्या होती हैं साधक जब संसार को लात मार सदगुरु के चरणों में आसरा लेता है और सदगुरु उसे ठुकरा देते है तो शिष्य का तीनों जहां में कुछ भी शेष नहीं रहता गुरु का ठुकराना शिष्य का और मजबूती प्रदान करने के लिए लीला होती हैं क्यों कि समस्त जहां मे एक सतगुरु ही है जो कभी हाथ नहीं छोड़ते परन्तु उनका अभिनय भी तो सम्पूर्ण होता है शिष्य को झकझोर देता है खैर जब कसौटी के निमित गुरु कह दे कि निकल जा आश्रम से तो उस समय शिष्य से क्या गुजरता है वह शब्दों में बया नहीं हो सकता या पढ़कर सुनाया नहीं जा सकता वह तो एक समर्पित साधक ही महसूस कर सकता है बुल्लेशाह कभी कुंडी खड़खड़ाता तो कभी जंजीरे खनखनाता कभी हथेली से ही फाटक को पीटता, रह रहकर अपने एक एक गुरु भाई का नाम पुकारता शक और डर के मारे उसके दिल से तेज़ धुक धुकी उठ रही थी मगर उधर इनायत का मिज़ाज इतना ही सख़्त और कड़क रुख इख्तियार कर रहा था।वे अंदर फाटक के ठीक सामने बरगद के चबूतरे पर आ बैठे थे आश्रम का एक एक साधक आंगन में इसी बरगद के इर्द गिर्द खड़ा था सहमा हुआ सभी फाटक की छाती पर बुल्लेशाह की बेकरार दस्तक सुन रहे थे तभी इनायत शाह का तेज़ तर्रार स्वर उभरा कहा दो उसे की यहा से दफा हो जाएं अपने लिए कोई दूसरा ठिकाना ढूंढे लेकिन इस हुक्म की तामील कौन करे, कौन इस हुक्म नामे का बेदर्दी खंजर बुल्लेशाह के सीने में घोपे सारे गुरु भाई एक एक कदम पीछे सरक गए और एक दूसरे को देखने लगे कि कौन कहने जाए इनायत की सुर्ख आंखे सीधे अफजल वहीं को सैय्यदो के निकाह मे गया था सीधे अफ़ज़ल पर जा टिकी वे निगाहें भृकुटी टिकाकर गुरु ने उन्हें इशारा किया अफ़ज़ल बेचारा खुद को इस कांड का मंथरा मान रहा था।परन्तु इनायत ने इस बार उसे ही मोहरा बनाकर अपनी रूहानी बाजी चलना चाहते थे अफजल भी क्या करता? अपने मनो भारी क़दमों को घसीटता हुआ फाटक तक पहुंचा खटखटाहट से फाटक अब भी कांप रहा था इस कंपन मे अफ़ज़ल को बुल्लेशाह के जिगर को कहा अफ़ज़ल पलटा होंठ लटका कर गुज़ारिश भरी नज़रों से गुरु की तरफ निहारा लेकिन गुरु ने फिर कड़क आवाज़ में कहा सुनता नहीं है आवाज़ सुनते ही अफ़ज़ल धीरे से भिन भिनाया बुल्लेशाह अफ़ज़ल की आवाज़ सुनते ही बुल्लेशाह की जान मे जान अाई मानो खौफनाक समुद्री तूफान मे बेशक तिनके का ही सही मगर उसे सहारा मिल गया फौरन उसकी आवाज़ पर लपका इसे पहले की अफ़ज़ल कुछ कहता उसने उसे इस दोस्ताना डांट लगा डाली, अफजु कहां था भाई फाटक बजा बजाकर यहां बेहाल हो गया चल अब जल्दी से खोल तब अफ़ज़ल ने अपनी सारी ताकत बटोरकर बोला बुल्ले वो शाह जी कह रहे है कि। क्या कह रहे है? किन्तु कहीं ओर चला जा और यहां आश्रम में नहीं रहता तुझे अफ़ज़ल ने बस कह डाला जितनी नर्मी से कह सकता था कह डाला मगर हुक्म भी खुद में ही खुद किसी अंधड़ आंधी से कहा कम था, बुल्लेशाह यकीन नहीं कर पाया मानो इस आंधी ने उसके सोचने समझने की बत्तियां ही गुल कर दी हो इस बंद दिमागी के चलते वह गिड़गिड़ा गिड़गिड़ा कर वहीं अलाप अलापने लगा एक दफा खोल तो सही अफ्जु मुझे शाहजी के पाक क़दमों का बोसा करना है तूने उन्हें खबर नहीं दी कि उनका बुल्ला फाटक पर खड़ा है अब चुप परन्तु बुल्लेशाह को गिड़गिड़ाकर अपनी आंखो में भरकर उसने गुरुजी तक पहुंचने की कोशिश की मगर उधर शाह जी ने तो जैसे बेरुखी की मिसाल कायम करने की ठान ली थी इनायत शाह ने अपने गमछे की धूल झाड़ी उसे कंधे पर डाला और कट्टर चल से अपनी कुटिया की तरफ बढ़ गए यहां अफ़ज़ल नाखून से नाखून छीलता रह गया उसके हाथ पांव जुबां ये सब बेबसी की जंजीरों में जकड़े हुए थे उसने एक दो लंबी सांसे ली और दरवाज़े के पास जाकर कहा बुल्लेशाह गुरुजी ने तुझे कहीं ओर चले जाने को कहा है इसलिए मेरे भाई तू चला जा यहां से चला जाऊ पर कहा? बुल्लेशाह का गला भर आया यह सुनते ही अफ़ज़ल वहां से मायूस होकर दौड़ गया दूसरे गुरु भाई भी मायूसी से गर्दन झुकाए लंगड़ाते हुए वहां से चले गए मगर उधर बुल्लेशाह की जड़े थर्राने लगी, चोटी से तलवो तक का एक एक पुर झन्ना उठा सीना खून नहीं दर्दनाक दर्द बहाने लगा जज्बातों की नदी उछल कूद कर बाड़ बन गई बुल्लेशाह उनके तेज बाहर में बहता हुआ मानो पूछ रहा था कहा जाऊ? यह तो बता दो अच्छा में तो उठा लेता हूं अपना सिर पर इतना बता दुनिया में इसके सिवा कोई और भी दर नहीं है परवाना शमा को छोड़कर कहा परवाना होए साईं किस ठिकाने को तलाशे वह बताओ तो सही।उसके लिए तो आग के अलावा सब राख ही है साईं ईमान की कसम चाहे मेरे रूह की गवाही ले लो लेकिन यकीन मानो जेब से मेरे जिस्म को आपकी पाक देहलीज की खाक मिली है बुल्ला बेखबर बेहोश होकर जिया मुझे कुछ होश खबर नहीं क्या सच मे इस भरे जमाने मे कोई दूसरा भी है जहां जिंदगी जी जा सकती है मुझे नहीं मालूम मेरे वजूद का जर्रा जर्रा तो आपके आश्रम मे दफन है सांसो की एक एक लड़ी इन्हीं है हवाओं मे जसब है फिर कौन से वजूद को ठोकर कहा चला जाऊ? सांसों को इस अंजुमन से कैसे जुदा करू? इतना तो बता दो निकलकर कहा जाऊ?तेरी अंजुमन के सिवा चमन की बुहो बसू फिर कहां चमन के सिवा बुल्लेशाह वहीं खड़ा खड़ा सुबक रहा था जज्बातों के फंदे उसके हलक को घोट रहे थे इसके लिए सांसे सिसकियों मे बदल रही थी वह सिसकता हुआ बहुत से अफसाने कह रहा था, दलीलें, अपीले लगा रहा था उसका सीना इतना बोझिल था मानो किसी ने बड़ा भारी पत्थर लाद दिया हो जिस्म थकान से नहीं हादसे से चूर चूर और घायल था बुल्लेशाह बस फाटक की लौह जंजीरों के सहारे लटका हुआ झुल रहा था कभी कभी बदहवास होकर उन्हें ज़ोर ज़ोर से खनका डालता इसी आलम मे सारा दिन गुजर गया शाम भी ढलकर काली रात बं गई मगर बुल्लेशाह की उम्मीद की शाम अभी भी नहीं ढली, दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है लंबी है मगर शाम मगर शाम ही तो हैं बुल्लेशाह के जहन में अब भी इस उम्मीद की रोशनियों की कल यह खौफ़नाक ख्वाब खत्म हो जायेगा गुरु के पीड़े समंदर इनायतो के मीठे समंदर उसके गुरुजी इतने खारे नहीं हो सकते आज भी बेशक प्यासा रखें परन्तु कल मीठी बारिश बरसाएंगे तभी उसके मन मे एक ख्याल आया कि हो ना हो कल चारगाह तो जरूर जाएंगे क्यों कि सुबह गुरुजी आज भी नहीं गए इस तरह आश्रम के जानवरो को भूखा थोड़े ही मारेंगे तब वह दौड़कर कदमों से लिपट जायेगा हरगिज नहीं छोड़ेगा उन क़दमों को उनसे अपनी खता सुनेगा सजा सुनेगा हा हा बिल्कुल ऐसा ही करेगा और साथ मे यह भी कहेगा कि रहमत का तेरी मेरे गुनाहों को नाज है बंदा हूं जानता हूं कि तू बंदा नवाज़ है इसी ख्याल के तारे आंखो मे संजोए वह आकाश के तारे गिनने लगा वही आश्रम के बाहर घास के कुदरती बिछोने पर बैठा वह बुल्लेशाह गुरु को याद करने लगा।