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महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग – 2)


कल हमने सुना कि जैसे ही बुल्लेशाह से अपने गुरु भाई को देखा तो उसकी तरफ दौड़ पड़ा परन्तु अचानक रुक गया, उसके पैरो में अदृश्य जकड़न महसूस हुई कुछ बोझ का अहसास हुआ खैर यह सब झेलते हुए उसने फिर हिम्मत की आगे कदम बढ़ाए और गुरु भाई की ओर बढ़ा उधर गुरु भाई इस तारों जड़ी दुनिया की चकाचौंध अपनी इस आंखो से देख रहा था हैरानगी में उसका थोड़ा मुंह भी खुला हुआ था मगर साथ ही दिल तेज तेज धड़क रहा था।इस माया की ठंड और मायापोश लोगो की भीड़ भाड़ मे किसी अपने का गर्माइश भरा हाथ ढूंढ़ रहा था इसलिए जैसे ही अपना बुल्ला दिखा उसके खिचे चेहरे पर एकदम चैन पसर हो गया, वह बच्चे की तरह उसकी तरफ लपका मानो उसकी आड़ में दुबकना चाहता हो मगर आज यह हो क्या रहा था शायद बुल्लेशाह पर मायावी ठंड अपना असर कर चुकी थी गुरुभाई को उसके हाथ में चाही गरमाईश मिल नहीं पाई, बुल्लेशाह ने थोड़ा पीछे हटते हुए बोला और सुनाओ क्या हाल चाल है अफजल? अब अफजल को खटका हुआ परन्तु फिर सब नजर अंदाज़ करता हुआ बोला रहम है इनायत का।वैसे बुल्ले आज शायद पहली मर्तबा तूने इतनी तहजीब से अफजल कहकर पुकारा है नहीं तो तुम मुझे अफ़्जू अफ्जू कहकर तुम मुझे अपना नाम ही भूलवा दिया था, गुरु भाई की इस बात में एक शिकायती लहज़ा था, उसका आधे से ज्यादा बुल्लेशाह का आधे से ज्यादा दिमाग कहीं ओर उलझा हुआ था इसलिए बुल्लेशाह यह शिकायती लहज़ा समझ न सका, वह बस हल्का सा मुस्करा भर दिया फिर नज़रे अफजल के हुलिये पर दौड़ाता हुआ बोला क्या बात है सीधे चारगाह से आ रहे हो क्या?हा यार वो दरअसल चारगाह से लौटते वक्त रास्ते में ही गुरुजी ने यहां आने का बोल दिया तो मैं क्या करता? तो मैं वहीं से ही चल दिया, वैसे जनाब तुम तो हूबहू दूल्हे लग रहे हो, यह सुनकर बुल्लेशाह बस एक उपरी हंसी हंस दिया, अब तक बेशक वह अफजल के सामने खड़ा था मगर उसकी आंखे पंडाल के ओर छोर का मुआयना कर रही थी, कहीं कंटीली मुस्कानों के तीर भी झेल चुकी थी बहुत सी तंजिया नज़रों को अपनी ओर अफजल की तरफ घूरते हुए भी देख लिया था, उसकी किसी से कोई कहा सुनी नहीं हुई थी मगर फिर भी मेहमानों और परिवार वालों के सिले होंठो से नफ़रत के शोर उसे साफ सुनाई दे रहा था, इश्को उल्फत की लय में छेड़ उसे टूट जाए ना ज़िन्दगी का साज शोर ए नफ़रत है आज जोरों पर दब न जाए कहीं ज़मीर की आवाज़, मगर हुआ वहीं जिसका डर था इस तिलस्मगर माहौल का तेज शोर शराबा आखिर बाजी मार ही गया, बुल्लेशाह समझ नहीं पाया कि वह करें तो क्या करें? सब जाय भाड़ में ऐसा कहकर और अपने गुरु भाई का हाथ पकड़कर वह वापिस आश्रम भी नहीं लौट सकता था क्योंकि निकाह में शामिल होने का हुक्म गुरुजी ने ही उसे दिया था दूसरा उसे अपने पसीने से तर बत्तर, बदहाल गुरु भाई के साथ भी खड़ा नहीं हुआ जा रहा था लोक मर्यादा के कारण क्या बुल्लेशाह को लोक लाज का भूत चिपट गया था, तन के साथ साथ मन भी माया की पोशाक से ढक गया था या फिर आज अर्से बाद उसे सैय्यद खानदान की दिली हमदर्दी मिली थी और एक आस जगी थी शायद अब वे भी इनायत की मुर्शिदगी कबूल कर लेंगे इसलिए ये वह उन पर आश्रम की कोई ग़लत छाप नहीं पड़ने देना चाहता था या कोई फिर अलग ही वजह थी पता नहीं क्यों कि इस विषय में बुल्लेशाह का इतिहास एकदम मौन है, इतिहास के पन्ने सिर्फ इतना बयान करते हैं कि इस वक़्त बुल्लेशाह ने अपने गुरु भाई की अच्छी तरह खातिरदारी या मेहमान नवाजी नहीं की। एक बहाना बनाकर उसके पास से खिसक गया, अफजल तुम दो फकत, दो लम्हा यही रुको मैं कुछ इंतजामों को देखकर आता हूं, देखा जाय तो यह वहीं बुल्लेशाह है जिसने कभी गधे पर सवार होकर कस्बों में घूम घूमकर डंके की चोट पर ऐलान किया था कि चोली चुन्नी थे फोक्या जुग्गा, मैने अपनी चोली चुनरी सब फाड़ कर जला दिया है यानी सब लोक लाज शर्म हया बेच डाली है अपने सतगुरु के इश्क़ में यह वहीं दीवाना है जिसने एक दफा बीच चौराहे हिजड़ों के साथ बेताल नाचते हुए तराना छेड़ा था। *बुल्ला शोहदी जात न कोई, में शोर इनायत पाया है* इसी मर्जी बड़े आशिक ने कभी दुनियावी रस्मो रिवाज के खिलाफ बगावत का नगाड़ा बजाया था और सीना ठोक कर कहा था चलो देखिए उस मस्तानड़े नू यानी चलो मेरे मस्त मुस्तफा सतगुरु को आश्रम मे जिसके नाम की आसमानों पर धूम मची है जो जातपात के तंग दायरों से निकालता है, अद्वैत के रंग में रंग चढ़ा देता है, चलो उस मेरे सतगुरु के आश्रम में मगर आज अचानक इस तरानों और नगाड़ो को बुल्लेशाह के जहन का हाथ नहीं मिल रहा था उसके पुराने ऐलानो की गुंज हवाले के शानदार फाटक से टकराकर लौट गई थी इसलिए शायद वह अपने गुरु भाई के पास वापस ही न लौटा, कई लम्हे गुजर गए मगर बुल्लेशाह के तथाकथित इंतजामों को अंजाम नहीं मिला इधर अफजल मिया ने अपनो के लिए एक अंधेरा कोना ढूंढ़ लिया था, पेड़ो के झुरमुट तले शायद यह इकलौती ही ऐसी जगह होगी जो माया की चकाचौंध से आंख बचा गई थी इसलिए सबकी आंखो से बचने के लिए अफजल मियां भी इसी की ओर में जा छिपे मगर वहां से एक टक मायूस नज़रों से बुल्लेशाह को निहारते रहे कभी देखते की बुल्लेशाह बड़ी अदब से किसी को आदाब फरमा रहा है।कभी किसीको गले लगा रहा है कभी मौलवी साहब उसे बाह से पकड़कर किसी अजीज से मिलवा रहे हैं, कभी वह हवेली के मुनाजीमो को हाथ से इशारा कर रहा है जहां जहां बुल्लेशाह जा रहा था वहीं वहीं अफजल की आंखे घूम रही थी।इसी इंतजार में की बुल्लेशाह उसकी ओर रुख करें, आखिर ये मायूस आंखे थककर मिच गई और इनसे टपके दो आंसू और बुल्लेशाह को बिना खबर किए उल्टे पांव हवेली के बड़े दरवाज़े से बाहर निकल गया, देर रात तक आश्रम पहुंचा भूखा प्यासा जिस्म और दिमाग से थका हुआ इसलिए धीरे धीरे लंगड़ाते हुए उसने अपनी कुटिया में कदम रखा सुराही भर पानी पिया फिर घुटने पेट से लगाए सो गया अगली सुबह इनायत शाह के बुलावे ने ही इस थके मांदे बंदे को हिलाया और उठाया चल हाथ मुंह धोकर हुक्म बरदारी में हाज़िर हुआ इनायत शाह की पहली मर्तबा आज इतना खुश मिजाज पाया, उसने झुककर आदाब किया तो इनायत शाह प्यार से उसकी पीठ पर थपकी दी यह वहीं थपकी थी जो अक्सर बुल्लेशाह को ही मिलती थी और जिसे पाने के लिए वह बरसों से तरस रहा था मगर आज यह अचानक ही उसकी पीठ को निहाल कर गई।सच मे मालिक अगर दीनता की कद्र तू भी नही डालेगा तो इस जहां भर में उसे पूछेगा कौन? वह तो गुरूर या ना समझी के पाटो से पीसकर खत्म ही हो जाएगी इसलिए आज जहान के मालिक सदगुरु इनायत खुद अफ़ज़ल की दीनता को थपथपाकर हौसला दे रहे है इनायत शाह ने कहा और अफजल सब दुरुस्त रहा न कल? अफजल ने धीरे से हां में सिर हिला दिया अरे क्या हुआ सब खेरियत से तो है न अफजल ने फिर हां जाहिर करते हुए सिर को दायी तरफ झुका दिया वह बोला कुछ नहीं मगर उसके चेहरे से मायूसी साफ टपक रही थी और वैसे भी सामने अन्तर्यामी गुरु जो बैठे थे जिनकी रूहानी नज़रों पर पलकें ही नहीं होती है जो नज़रे कभी सपकती नहीं और कायनात के ज़र्रे ज़र्रे की हर हरकत की चश्मदीद गवाह हैं इन्हीं नज़रों में बेशुमार प्यार लिए इनायत ने अफजल की तरफ देखा मानो उससे कह रहे हो मै सब कुछ से वाकिफ हूं सब देख आया हूं।मगर एक मर्तबा तेरी जुबां से सच्चाई सुनना चाहता हूं सतगुरु की नज़रे पढ़कर अफ़ज़ल ने सारी बात बताई कि शाहजी शायद बुल्लेशाह को रईसी फिर से रास आने लगी है वह सेय्यदो की दुनिया मे इतना खो गया कि मुझ अरई जाति के लिए उसे वक़्त ही नहीं मिला और मैं इंतजार और ऐसे अफजल ने सब बाते गुरु के सामने कह दी सब सुनकर इनायत शाह की आंखे एकदम खुश्क हो गई, चेहरा सख्त आकार लेने लगा और कड़ी आवाज़ में बोले यकीनन बुल्लेशाह ने तुम्हारी ही नहीं हमारी तौहीन है, इसकी इतनी जुर्रत एक लम्हा रुके फिर यह प्रलयकारी ऐलान किया जो इतिहास के हर शिष्य के लिए किसी श्राप से कम नहीं ठीक है हमें भी इस नामाकुल से क्या लेना देना चलो आज से हम अपनी फ़ुहारों का रुख़ उसकी क्यारियों से हटाकर तुम्हारी तरफ कर देते है। इसी ऐलान के साथ शुरू होता है बुल्लेशाह की जिंदगी का एक रोमांचकारी रास्ता जिसके चप्पे चप्पे पर प्रलय का तांडव होगा अब बुल्लेशाह का पुराना सब तहस नहस हो जायेगा और एक नई शक्सियत का सृजन होगा I

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अंजान था (भाग-1)


गुरु के चरण कमल में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए, गुरु महान हैं विपत्तियों से डरना नहीं है, वीर शिष्यों आगे बढ़ो, शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती है वे छुपे वेश मे गुरु के आशीर्वाद के समान होती है, कल हमने सुना कि इनायत शाह ने बुल्लेशाह को अहंकार से दूर रहने की हिदायत दी और उसे क्षमा भी किया।इन्हीं दिनों बुल्लेशाह के पिता मौलवी साहब आश्रम आए दरअसल बुल्लेशाह के किसी नजदीकी रिश्तेदार मौलवी साहब उसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाने आए थे, इसके लिए उन्होंने शाह इनायत से मंजूरी ली, हुक्म देने के लिए गुरुदेव ने बुल्लेशाह को अपनी कुटिया में बुलवाया, बुल्लेशाह तुम्हारे वालिद आए हैं तुम्हे अपने किसी अजिज के निकाह में ले जाने की ख्वाहिश ले आए हैं इसलिए तुम चंद रोज़ के लिए इनके साथ चले जाओ।शाह जी वैसे तो आप कुल कायनात के कायदे बनाने वाले है मगर फिर भी मेरे जहां में एक बात उठ रही है, क्या बात है कहो, शाह जी *जिस दे अंदर वसिया यार, एवे बैठा खेड़े हाल*, गुरुदेव जिसके अंदर आप समा गए हो आपकी हर खबर, आपका ही ख्याल कैद हो फिर वह भला गैर की महफ़िल में क्यों जाए, जिसकी अंदरुनी में गुरुदेव आपके करम से इलाही नग्मे बज उठे हो उसे जश्नों निकाह के बाजो से क्या काम? गुस्ताखी हो तो माफ़ करना गुरुदेव मगर निकाह, टिकाह में जाकर क्या करूंगा? हम तेरे जज्बातों की कद्र करते हैं बुल्लेशाह लेकिन तेरे वालिद के जज्बातों को भी ऐसे दरकिनार करना वाजिब नहीं और फिर चंद रोजो कि तो बात है चले जा। जो हुक्म गुरुजी। लेकिन आपसे एक दरख्वास्त है कि इस निकाह के मौके पर आप भी जरूर तशरीफ़ लाए। इंशाअल्ला आपका नूरानी दर्शन पाकर सैय्यद खानदान में रूहानी इबादत की तरफ दिलचस्पी पैदा हो जाएगी, ठीक है बुल्ले हम इस पर जरूर गौर फरमाएंगे।बुल्लेशाह अपने गुरु के हुक्म से अपने पिता मौलवी के साथ चल दिया, आश्रम के फाटक पर ही शाही बग्गी उसका इंतजार कर रही थी, दोनों उसमे जा बैठे, इस वक़्त बुल्लेशाह पर खामोशी और संजीदगी का आलम छाया हुआ था, ना जाने कैसा अनजान सा खौफ दिल के किसी कोने को कुरेद रहा था, क्यों ये कैसा है खौफ? क्या गुरुजी से जुदा होने की बैचेनी है या कोई दूर अंदेशा है, आगे घटने वाले किसी हादसे की खबर है कहीं मुझसे कोई गलती तो नहीं होने वाली या फिर इतने समय बाद परिवार वालो से मिलना है इसलिए कुछ घबराहट सी हो रही है, बुल्लेशाह कुछ समझ नहीं पा रहा था खैर वह इन ख्यालों मे ज्यादा उलझा भी नहीं रहा, मन ही मन रास्ते मे बुल्लेशाह अपने गुरु से प्रार्थना करने लगा जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है *आपने संग रलाई प्यारे, आपन संग रलाई, मै पाया कि तिद लाईया, आपणी ओर निभाई, भोंकड़ चित्ते चित्तम चिते भोंकड अदाई पार, तेरे जगात्तर चढ़ैया कंदी लख बधाई हौर दिले दा थर थर कंबदा पार लगाई,आपणे संग रलाई प्यारे,आपणे संग रलाई।* हे मेरे मालिक, मेरे गुरुदेव मुझे हमेशा अपनी कृपा के साये में चलाते रहना, इश्क़ की शुरुआत मैंने आपसे की या आपने मुझसे, इससे क्या फर्क पड़ता है परन्तु इस लगी का आखिरी मुकाम तो आपको ही निभाना है आपको ही बरकरार रखना है क्योंकि हे गुरुदेव इस प्रेम को निभाने की ताकत मुझमें नहीं है मैं जानता हूं कि इस रूहानी रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं मुझे तो कभी कभी लगता है यह रास्ता एक उबड़, खाबड़, खौफ़नाक जंगल से जाकर गुजरता है जिसमें माया डाके डालती रहती हैं, यह माया अपनी तिलस्मी ताकत की कटार दिखाकर मेरी साधना की सारी कमाई लूट ले जाती हैं, विषय विकारों के खूंखार कुत्ते और शेर,चीत्ते यहां पर भौंकते और दहाड़ते रहते है सांसारिक वासनाओं की नदी भी इसमें उफन, उफन कर पूरी रवानगी से बहती है, इसके किनारे पर वासनाओं के भूत प्रेत घात लगाकर बैठे है, इसके किनारे पर तालाब है मुझे धोखे से इस नदी में धकेलने को यह तैयार रहते है।हे मेरे मालिक, मेरे गुरुदेव यह सब महसूस कर मेरा दिल थर, थर कांपने लगता है इसलिए आपसे प्रार्थना है कि आप ही मेरी नौका को इस नदी से पार करना रहम कर इस खौफ़नाक जंगल से मुझे सही सलामत गुजार देना, गुरुदेव मुझे अपने साए में चलाते रहना आखिरी मुकाम तक निभाना इस तरह रास्ते भर बुल्लेशाह प्रार्थना करता रहा अब तक बग्गी सैय्यदो के पुश्तैनी दरवाजों के अंदर मुड़ चुकी थी, बुल्लेशाह की आंखे खुली तो सामने हवेली को ऐसे सजा देखा मानो निकाह दुल्हन का नहीं हवेली का हो, मौलवी साहब बुल्लेशाह को कंधे से पकड़कर हवेली मे दाखिल हुए, कुछ इस अंदाज़ से लो देखो में ले आया अपने फकीर साहब जादे को इस खानदानी जश्न के मौके पर। जैसे ही परिवार वालों की नजर बुल्लेशाह पर पड़ी, चारों ओर से कई आवाजों ने एक ही लब्ज सुनने को मिला, खुशामदीन,खुशामदीन सुस्वागतम। मां और बड़े बुजुर्गो ने आगे बढ़कर बलाए ली, भाईयो ने गले लगाया और थपकी दी समस्त परिवार ने बुल्लेशाह को घेर लिया, हाल चाल पूछने के बाद हंसी मसकरी का दौर चला निकाह अगले दिन का तय था ऐसे मे आप सोच ही सकते है कि निकाह के एक दिन पहले का माहौल। जब सब परिवार एक छत तले इक्कठा हो दिल्लगी बाजी किस इम्तिहान होती है और वह भी किस दर्जे की एक दम सांसारिक दिल्लगी।दुनियावी मस्करी इसलिए महफ़िल का कोई सुर इस साधक के सुरो से मेल नहीं खा रहा था उसके इस हाले दिल को एक शायर ने कुछ यूं बया किया है कि कहीं जिकरे दुनिया कहीं जिक्रे उकबा। हाय कहां आ गया में मयकदे से निकलकर। खैर वह अपनी इस नापसंदगी को खुले तौर पर जाहिर भी नहीं कर सकता था इसलिए अपना पूरा जोर लगाकर एक बनावटी मुस्कान होठो पर चिपकाकर बैठा रहा शायद इसे ही आशिकों ने भरी महफ़िल तन्हा होना कहा है, रात जब उनकी महफ़िल में जाना पड़ा, नाज मजबूरियों का उठाना पड़ा उनकी महफ़िल में हम रसे महफ़िल बने मुस्कराते थे सब इसलिए मुझे भी मुस्कुराना पड़ा, किसी तरह मजबूरियों की यह रात ख़तम हुई मुकर्रर समय तक सैय्यदो की मिल्कियत का कोना कोना अपने जलाल में आ गया, बिल्कुल एक मायावी दुनिया की तरह जहां की हर चीज बढ़ चढ़कर अपने दाम गिना रही थी।चीजे ही नहीं इस दुनिया के बाशिंदे भी वे भी सिर से पांव तलक माया के कपड़ों से ढके थे, माया के सतरंगी रंगो मे रंगे थे भाईयो ने इसी रंग की होली बुल्लेशाह के संग भी खेली, उसका सीधा सादा सूत का कुर्ता, पायजामा उतरवा दिया उसकी जगह पहना दी एक रेशमी और कढ़ाईदार शेरवानी दुपट्टा, तिलेदार जूती, लाजवाब टोपी और इत्र छिड़क दिया। सो इस तरह बुल्लेशाह के तन को तो अपने रंग में रंग दिया, उधर बड़े दरवाजे से मेहमानों का आना शुरू हुआ, शहर की ऊंची ऊंची हस्तियां अपनी शानो शौकत के साथ तशरीफ़ लाने लगे, रईसी तो मानो उनके चेहरों, पोशाकों से टपक रही थी, बुल्लेशाह के भाई और घर वाले भी उनकी मेहमान नवाजी मे अपनी पलकें बिछा रहे थे मगर तभी इस आलीशान दरवाज़े से अलग ही तरह के मेहमान ने प्रवेश किया अकेले खाली हाथ फटे हाल फकीरी के लिबास में निहायत बदसूरत हुलिए में साफ अराई जाति के निशान लिये गोबर की बदबू आ रही थी उसे देखते ही भाई वगैरह समझ गए कि यह मेहमान बुल्लेशाह के आश्रम से है, मन ही मन सोचने लगे कि क्या चुना हुआ नमूना भेजा है, इनायत शाह ने क्या आश्रम भर में इससे बदसूरत शक्ल और फकड़ हालत का आदमी ओर कोई नहीं था उन्होंने हाथ, मुंह सिकोड़कर इस आगे बढ़ते मेहमान को दो एक पल तो घुरा फिर उसे नजर अंदाज़ करने के लिए स्वागत स्थल से ही खिसक गए उधर बुल्लेशाह को भी पता चला की आश्रम से उसका एक गुरु भाई आया है, गुरुजी खुद नहीं आए परन्तु अपने एवज में अपने एक शिष्य को भेजा है, बस अब क्या था यही है जिंदगी अपनी और यही है बंदगी अपनी की उनका नाम आया और गर्दन झुक गई अपनी अपनी गुरु का जिक्र उनकी चर्चा एक साधक के लिए इबादत का पैगाम है किसी मस्जिद से उठती आजान है।मंदिर में बजती घंटियों की मीठी खनखनांहटे है जिसे सुनते ही दिल खुद मुहब्बत की नमाज़ पढ़ने लगता है सांसे पूजा की धूप अगरबत्ती सी महक उठती हैं फिर आज बुल्लेशाह के पास तो उसके गुरुदेव का सिर्फ जिक्र ही नहीं बल्कि उनका जीता जागता प्रतिनिधि आया था, बुल्लेशाह रफ्तार भरे क़दमों से वह बड़े दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ा अभी अभी पच्चास साठ के रंग भरे होंगे की उससे दूर से ही गुरु भाई नजर आया वाह अफजू आया है, बुल्लेशाह के दिल की धड़कने फुदक उठी परन्तु यह क्या? बुल्लेशाह को अपने कदमों में किसी अदृश्य फंदे की जकड़न महसूस हुई सीने पर भारी बोझ का एहसास हुआ परन्तु क्या था इतना बोझिला या सख्त? जो बुल्लेशाह के क़दमों को रोक रहा था उसे अपने गुरु भाई से मिलने के लिए।

अद्भुत था गुरु अर्जुन देव जी का अपने गुरु के प्रति हृदयस्‍पर्शी भाव


गुरु के चरण कमल में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए। गुरु की कृपा अखूट असीम और अर्वननीय है। श्री गुरु अर्जुन देव जी भी एक बार गुरु से बिछोह के दौर से गुजरे थे। विरह के दौर से गुजरे उनके गुरु श्री रामदास जी ने उन्हें किसी विवाह उत्सव पर स्वयं से दूर लाहौर भेज दिया। साथ ही यह आज्ञा भी दी कि जब तक वापस लौटने का संदेश ना मिले तब तक वहीं ठहर कर संगत की अगुवाई करना ।गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर श्री अर्जुन देव जी लाहौर आ गए ।कुछ दिनों के पश्चात उत्सव संपन्न हुआ। दिन बीतने लगे सप्ताह बीता और अब तो एक महीना बीतने को था। परंतु गुरु दरबार से ना कोई बुलावा आया ना कोई संदेश.. अब क्या था उनका मन अकुलाने लगा विरह वेदना तीव्र से तीव्रतर होने लगी। रह रहकर मन में यही भाव तरंगें उठती कि, गुरूवर मैं यहां निपट अकेला हूं। कैसे बताऊं कि तुम बिन मेरे दिन कैसे गुजरते हैं। तुम्हारी जुदाई मुझे कितना सताती है। यहां एक एक पल एक एक कल्प जैसा लग रहा है, मानो मेरा जीवन ही ठहर गया हो ।अब और विलंब ना करो.. सच्चे बादशाह.. मुझे वापस बुला लो.. दोबारा अपने चरणों में स्थान दे दो। जब स्थिति असहनीय हो गई, तो उन्होंने इन भावों को शब्दबध्द करके अपने गुरु को एक पत्र लिखा। मेरा मन लोचे गुरुदर्शन ताई बिलप करे चात्रिक के नाई।अर्थात जैसे एक चातक पक्षी दिन रात पृथ्वी जल स्त्रोतको त्याग कर सिर्फ और सिर्फ स्वाति नक्षत्र की बूंद की आस में प्यासा रहता है। वैसे ही मेरा मन भी गुरुदेव… आपके दर्शन के लिए तड़प रहा है।ओ तो गुरु निराकार रूप में शिष्य के ह्रदय मंदिर में सदा समाए होते हैं। सुक्ष्म स्पंदन बनकर उसकी सांसों में रमण करते रहते हैं ।राइभर की भी दूरी नहीं है। परंतु फिर भी शिष्य गुरू के साकार मुरत को निहारना चाहता है। उनकी आंखें ना जाने.. क्यों.. शिष्यों की आंखें ना जाने क्यों.. सदा गुरु दरश को बावरी रहती हैं।किसीने एक शिष्य से पूछ ही लिया कि एक बार गुरु दरशन कर लेने बाद, बार-बार.. फिर फिर से.. देखना आवश्यक है क्या?शिष्य ने कहा है “हा.. है ।”क्यों कि यह हर क्षण नूतन होने वाला सौंदर्य है। जितनी बार देखता हूं उतनी बार मुझे गुरु के रूप में नई छवि ,नई शोभा का दर्शन होता है। बाबा फरीद जी कहते हैं.. *कागा करंग ढंढोलिया सगला खाईया मासु* ए कागा तु चाहे तो मेरे शरीर की बूटी बूटी नोच ले परंतु मेरी आंखों को बख्श देना इनको मत छेड़ना क्योंकि.. *ए दोई नयना मती छुवहु पीर देखन की आस*मैंने इन्हे गुरु के दीदार के लिए बड़ा सहेज कर रखा है। इनमें हर पल गुरु दर्शन की प्यास बनी हुई है।सचमुच गुरू भक्ति के मार्ग पर इन भावुक आंखों की भूमिका भी बड़ी निराली है । जब गुरू सामने होते हैं तो यह उनके दरस का आनंद लेती हैं। और जब गुरु दूर जाते हैं तो यही उनकी बाट जोहती है। उनकी विरह मे छम छम बरसात करती हैं।इस विषय में मस्त मलंग संत रामतीर्थ जी ने भी खूब कहा कि, यदि लूटना हो तुझे वर्षा का मजा तो आ मेरी आंखों में बैठ जा यहां काले भूरे और लाल तरह-तरह के बादल सदा झड़ी लगाए रहते हैं। यू तो प्रेम की सबसे उँची स्थिति यह मानी जाती है कि प्रिय के बिछुड़ते ही प्राण छुट जाए ईसी ओर लक्ष्य करके माता सीता जी कहती है..कि हे प्रभु आप अलग होते ही मुझे मर जाना चाहिए था लेकिन हे नाथ! यह तो मेरे नेत्रों का अपराध है, *नाथ सु नयन ही कोआपराधा* यही मेरे प्राणों को हठपूर्वक बांधे हुए है क्योंकि इन्हें पुनः आपको देखने की लालसा है। आपके लीलाओं के दर्शन की लालसा है ।आगे कहती है माता सीता कि हे प्रभु ! यह रूई जैसा शरीर कबका विरह अग्नि में सांसों की हवा पाकर भस्म हो चुका होता लेकिन इन आँखों ने इसे बचाए रखा है।ये निरतंर आपके याद मे रोती रहती है। इनसे निकलते अश्रु धारा शरीर को विरह अग्नि में जलने नही देती इसलिए मेरे प्राण निकल नहीं पातेनयन स्रवही जन निज हित लागी जरेए न पाव देह बिरहागी।। कैसा ह्रदय स्पर्शी और भावपूर्ण चित्रण है यह भावों कि ऐसी उच्चावस्था है जहां आँखे बोला करती है। अब आँखों के पास शब्द तो है नहीं इसलिए आप आँसू बहाकर ये अपनी व्यथा कहा करती है। यह गति बुल्लेशाह की भी हुई जब उनके गुरू हजरत इनायत उनसे रुठ गए। उन वियोग के क्षणों में उनकी आंखों पर क्या क्या गुजरी वे एक काफी के माध्यम से बड़ा सुदंर बया करते हैं किहुजरु पीर अँखीया वीच रड़के। दुख दिया वागंन फोड़े मै रोवा तैनु याद करके।।तेरी याद में रो रो कर मेरी आँखें फोड़े की तरह दुखने लगी है। साईं मैं रो-रोकर अंधा हो चुका हूं क्योंकि तेरे बिना बस रोना ही रोना है। *जदु मीठ्ठी नींदे सोंदी है खुदाई, सौह रब दी ना अख कदे लाई, मै रोवा तैनु याद करके।* आधी रात के समय जब सारा संसार सो जाता है सभी नींद में मग्न होते है देखो तब भी ये आंखें तेरी याद में रोती रहती है । इन नैनों में नींद कहां और यदी भुल से कभी नींद आने भी लगती है तो तेरी याद इन्हें ताना देती है। बस यहीं था तेरा मुर्शीद से इश्क.. कल तक तो तुम दीदार के लिए रोती थी आज गुरु से दूर होते ही उनमे बैरन नींद को जगह दे दी।एक बार किसी भावुक गोपी ने स्वप्न में प्रभु के दर्शन किए। सुबह ऊस गोपी ने स्वप्न मिलन की घटना दुसरी गोपी को सुनाई उस प्रेम में गोपी ने कहा धन्य हो गोपी जो तुम स्वप्न में तुम प्रभु से मिल लेती हो। परंतु यहां तो यहां तो प्राण प्यारे कन्हैया के जाने के बाद बैरन नींद भी छोड़ कर चली गयी है। *कही चुरा ले चोर न कोई दर्द तुम्हारा याद तुम्हारी इसलिए जाग कर जीवन भर आँसुओं ने की पहरेदारी।*विरह की यह भाव अवस्था बुद्धि का विषय नहीं है। इसे समझने के लिए तर्कयुक्त बुद्धि नहीं प्रेम भरा ह्रदय चाहिए यही कारण था कि उद्धव जी की शास्त्र विद बुद्धि ब्रज की सीधी साधी गोपियों के निश्चल प्रेम के आगे हार गई।वे रोती हुई गोपीयो के लिए प्रभु कृष्ण का संदेश लेकर आए थे उनके सिर पर ज्ञान की गठरी थी तो गोपीयो के आँखों मे विरह वेदना का नीर। वे अपने ज्ञान वैराग्य और तर्को से गोपीयो की गीली पलके सुखा देना चाहते थे। परंतु हुआ कुछ उलटा ही गोपियों ने ही उनके ह्रदय की खाली गागर में प्रेम का जल भर दिया। उनके जीवन में भक्ति व प्रेम का नया अध्याय खोल दिया। उन्होंने वापस मथुरा पहुंच कर प्रभु कृष्ण को उलाहवना देते हुए कहा कि आपने गोपियों को क्या दिया ? सिर्फ आँसू प्रभु यह ठीक नहीं किया आपने। वे आपसे कितना प्रेम करती हैं और आप उन्हें दर्द देते है।तब प्रभु श्रीकृष्ण ने भक्तिपद का एक मार्मिक सत्य उजागर किया। हे उधव! तुम क्या जानो मैंने गोपियों को क्या दे दिया है, मेरे खजाने का सबसे अनमोल रत्न है वीरह इसे ही मैंने उन पर वार दिया। वस्तुतः सत्य यही है कि, जिसपर तुम हो रीझते उसे क्या देते यदुवीर,* *रोना-धोना ,सिसकना ,आंहो की जागीर। भला यह कैसी तुकबंदी रोना-धोना, और जागीर । बात समझने वाली है दरअसल विरह अग्नि के समान होता है यू तो अग्नि का स्वभाव होता है जलाना परंतु विरह एक ऐसी अग्नि है जिसमे तपीश नही शीतलता है आँच नही ठंठक है। तभी तो विरह की अवस्था में भी परम आनंद का अनुभव होता है। आंखों से बरसते आंसुओं में भी अलौकिक रस भरा होता है।इसलिए विरह निःसंदेह एक शिष्य..एक भक्त के लिए सबसे अमुल्य नीधि है। बाबा फरीद कहते हैं विरहा तु सुलतानु विरह तो शाहों का शाह है।निर्मल और पवित्र कर देने वाली सबसे उँची भावना है।फरीदा जिस तनु बिरह जाहु न उपजे सो तन जानू मसानजिस ह्रदय मे विरह नहीं वह मानव स्मशान के तरह है।बेजान और निष्प्राण है ।इसलिए धन्य है वे भक्तजन जिनके भीतर प्रभु… गुरू विरह उमड़ती है।धन्य है वे आंखें जो गुरूप्रेम मे रोया करती हैं। वह ह्रदय जिससे प्रेम रस की धाराएं फुटा करती है वे आहे जो पल प्रतिपल गुरू को पुकारा करती है।