महाराज जी मैं कई सालों से सेवा कर रहा हु पहले तो बड़ी आसानी से हो जाती थी पता ही नही चलता था कब शुरू हुई और कब खत्म लेकिन आजकल सेवा के दौरान बहुत सी दिक्कते आती है परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ऐसा क्यों? महाराज जी ने कहा- क्योंकि अब तुम खुद को बड़ा समझने लगे हो पहले तुम बालक की नाई सेवा करते थे खुद को अबोध,आकर्ता मानते थे लेकिन अब तुम्हे लगने लगा है कि मुझमे सेवा करने की क्षमता सामर्थ्य आ गया है सेवा का अभ्यासी हो गया हूं खुद करने के काबिल हो गया हूं इस मैं-मैं में गुरु कहि पीछे छूट गए है जब गुरु छूट जाएंगे तो उनकी कृपा कैसे होगी? कृपा नही होगी तो परेशानियां तो आएंगी ही इसलिए जब कभी सेवा में दिक्कत आने लगे तो समझ जाओ कि गुरु से कनेक्शन टूट गया सो तुरंत सब छोड़कर पहले गुरु से प्रार्थना, अरदास करो उनसे संपर्क स्थापित करो फिर सारी परेशानियों का समाधान मिलता चला जायेगा कहि कोई दिक्कत नही रहेगी।महाराज जी मैने सेवा का बहुत महात्म्य सुना और पढा है इसलिए मैं तन-मन से सेवा करता हु फिर भी मुझे अपनी कोई आध्यात्मिक उन्नति होती महसूस नही होती ऐसा क्यों गुरुदेव? जानते हो अर्थशास्त्र का एक नियम होता है जितना कमाई पर ध्यान दिया जाता है उतना ही खर्च पर भी क्योंकि यदि कमाई और खर्च समान है तो जमापूंजी हमेशा शून्य ही रहेगी इसलिए यदि आप बचत करना चाहते है तो कमाए ज्यादा और खर्च करे कम ठीक यही नियम अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है परन्तु विडम्बना है कि बहुत से साधक केवल एकतरफा पहलू पर ही ध्यान देते है यानी कमाई पर।जैसे कि आपने कहा मैं सेवा तो बहुत करता हु परन्तु साथ ही खर्च कितना करते हो, कभी विचार किया? आप सोचेंगे कि खर्चे से क्या मतलब है तो देखिए जब- जब भी आपके भीतर कोई नकारात्मक विचार आता है किसी गुरुभाई के प्रति द्वेष की बुद्धि होती है दुर्भाव पैदा होता है किसीको हानि पहुंचाने की इच्छा होती है तब-तब समझो कि हम अपना कमाया हुआ धन फेंक रहे है,कोई विकार रूपी सर्प अपना फन उठाये और हम उस तरफ ही चल पड़े तब समझना कि धन का नाश हो रहा है।साधक,सेवक एक कंजूस बनिया होना चाहिए जैसे कंजूस बनिया अपना धन के बड़ी ही सतर्कता से सम्भाल रखता है एक-एक पाई-पाई का सम्भाल सब हिसाब-किताब रखता है वैसे ही साधक को भी अपनी की हुई कमाई की सम्भाल रखनी चाहिए। मूर्ख जिज्ञासु सेवक अपनी कमाई खर्च करके अध्यात्मभ्र्ष्ट हो जाते है और दोषारोपण करते हुए कहते है कि यह मार्ग तो अर्थहीन है,ऐसे तो है नही। गुरु तो खजाना अनंत युगों से लुटाते आ रहे है और मूर्ख जिज्ञासु अर्थ शून्य ही रह जाते है।