तांत्रिक सिद्धियों के स्वामी कुरेशभट्ट के अहम को गुरु ने कैसे विलीन किया…

तांत्रिक सिद्धियों के स्वामी कुरेशभट्ट के अहम को गुरु ने कैसे विलीन किया…


गुरुभक्तियोग के निरंतर अभ्यास द्वारा मन की चंचलवृत्ति की निर्मूल करो। इस लोक के आपके जीवन का परम ध्येय और लक्ष्य अमरत्व प्रदान करनेवाली गुरुकृपा प्राप्त करना है। गुरु की सेवा करते समय श्रद्धा, आज्ञापालन और आत्मसमर्पण इन तीनो को याद रखो।

सद्गुरु की कृपादृष्टि शिष्य के लिए एक अमूल्य भेट होती है। सद्गुरु की दृष्टि समस्त कल्याण की जननी है, समस्त साधनाओ और तपस्याओं की परम सिद्धि है। सद्गुरु की दृष्टी साधक की साधना की विश्रामस्थली है।

भगवान शिवजी कहते हैं कि,

सकल भुवन सृष्टि कल्पिता शीश पुष्टिर।
निखिल निगम दृष्टि संपदा व्यर्थ दृष्टि।।

धनभागी हैं वे शिष्य जो निरंतर इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि श्रीगुरु की कृपादृष्टि उनमें नित्य निवास करे। उनका हृदय अपने सद्गुरु की दिव्य दृष्टि की आलोक से आलोकित रहे। श्रीगुरु की कृपादृष्टि से ही समस्त जगत की सृष्टि हुई है। इसी से जगत के समस्त पदार्थों की पुष्टि होती है। समस्त सत्शास्त्रों का मर्म सद्गुरु की कृपादृष्टि में समाया है।

सद्गुरु की दृष्टि शिष्यों के समस्त अवगुणों को धुलकर परिमार्जित करती है। संसार में गुणों को विकसित करनेवाली, मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाली, सकल भुवनों के रंगमंच की स्थापना का परम कारण सद्गुरु की कृपादृष्टि है। सद्गुरु की कृपादृष्टि मोक्ष साधना का आधारस्तंभ है। करुणा रस का वर्णन करनेवाली इस सद्गुरु की कृपादृष्टि में पुरूष एवं प्रकृति, तथा अन्य 24 तत्व समाये है।

समष्टि की रूपमाला सकल समयसृष्टि सच्चिदानंद दृष्टि।
निमष तू मई नित्यं श्रीगुरुर दिव्यदृष्टि।।

समष्टि की रूपमाला जीवन के सभी नियम, काल आदि सभी कारण जिसमें समाये हैं, वह सच्चिदानंद स्वरूप श्रीगुरु की दृष्टि है। इस बारे में अनेक मार्मिक प्रसंग विख्यात है। इनमें से एक सत्य घटना ऐसी है जिसमें इन श्लोकों का मर्म उद्घाटित होता है। यह घटना विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के संस्थापक श्रीरामानुजाचार्य के जीवन की है।

आचार्य की कृपा से अनेकों शिष्य धन्य हुए। इन धनभागी लोगों में कुरेशभट्ट की चर्चा होती है। इन कुरेशभट्ट ने अपने सच्चे शिष्यत्व से, सार्थक समर्पण से, स्वयं की अहंता के विसर्जन से गुरु की कृपादृष्टि को अनुभव किया, जीवन की सारी सार्थकता पाई, सच्चा अध्यात्म लाभ अर्जित किया।

कुरेशभट्ट असाधारण मनुष्य, परम तपस्वी एवं ख्यातिप्राप्त प्रकांड विद्वान थे। उनके तर्को की धार, प्रवाहपूर्ण प्रांजल भाषा पांडित्य मंडली को कुंठित कर देती थी। पंडित समाज में उनका भारी मान था। अनेकों योग एवं तंत्र की सिद्धियाँ उन्हें सहज सुलभ थी,परन्तु अध्यात्म के यथार्थ तत्व से वे वंचित थे। इस बात की कसक उनमें थी। लेकिन साथ ही उनमें कहीं इस बात का सूक्ष्म अहम भी था कि वे परम विद्वान एवं सिद्धिसम्पन्न हैं।

अध्यात्म की जिज्ञासा एवं विद्वता के अहम ने उन्हें द्वंद्व में डाल रखा था। समझ में नहीं आ रहा था कि वे किसे अपना मार्गदर्शक गुरु बनाये। अंत में बड़े सोच- विचार के बाद उन्होंने आचार्य रामानुज की शरण में जाने का निश्चय किया। आचार्य उन दिनों भारत की धरती पर सर्वमान्य विद्वान थे। उनके तप के प्रवाह से समस्त दिशायें प्रकाशित थी।

अपनी जिज्ञासा को लेकर कुरेशभट्ट श्रीरामानुज के पास पहुँच गये। परन्तु उनकी अहमवृत्ति के कारण आचार्य ने उन्हें अस्वीकृत कर दिया। कई बार उन्होंने इसके लिए प्रयास किया, परन्तु हर बार असफल रहे। यहाँ मर्म की बात यह है कि गुरु ही सदैव शिष्य को चुनते हैं। शिष्य में वह योग्यता कहाँ कि गुरु को चुन सके।

एक दिन जब वे आचार्य के पास बैठे थे आचार्य की मुँह बोली बहन अतुला उनके पास आई और बोली,” भैय्या! ससुराल में मुझे रोटी बनाने में बड़ा कष्ट होता है। आपके पास यदि कोई उपयुक्त व्यक्ति हो तो उसे मुझे दे दीजिए। ताकि वह मेरी ससुराल में खाना पका सके। “

कुछ देर सोचने के बाद आचार्य की दृष्टि पास बैठे कुरेशभट्ट की ओर गई और उन्होंने कहा, “कुरेश! मैं तुम्हें अपना शिष्य तो नहीं बना सकता परन्तु यदि तुम चाहो तो मेरी इस बहन के यहाँ रसोई बना सकते हो।”

परम धनवान, महाविद्वान, प्रचंड तपस्वी, सिद्धिसम्पन्न कुरेशभट्ट के लिए ऐसा प्रस्ताव सुनकर पास बैठे हुए लोग चौक पड़े। लेकिन कुरेशभट्ट अहंभाव से भले ग्रस्त हो, परन्तु शास्त्रों के मर्म से वे भलीभाँति परिचित थे। उन्हें सद्गुरु की कृपादृष्टि का मर्म पता था। बिना क्षण के देर लगाये प्रस्ताव स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, “प्रभु! आप शिष्य ना सही मुझे अपना सेवक होने का गौरव दे रहे हैं। यही मेरे लिए सबकुछ है।”

उस क्षण से लेकर दिन, सप्ताह, महीने और वर्षों की कतार बीत गई। वर्षों तक गुरुआज्ञा को शिरोधार्य करे वह अतुला के ससुराल में रोटी बनाते रहे। सबको प्रेमपूर्वक भोजन कराते रहे। साथ ही सेवा के प्रभाव से उनका मन सद्गुरु के ध्यान में सदैव रमा रहता। भाव से, प्रार्थना से और विरह की निरंतरता से उनका सारा अहम धूल गया। उनकी चेतना उनके सद्गुरु से एक हो गई। आत्मज्ञान एवं ब्रम्हज्ञान की विभूतियाँ उनमें आ विराजी।

एक दिन आचार्य उन्हें लेने स्वयं उनके पास आये और बोले, “वत्स! अब तुम स्वतः ही मेरे शिष्य बन गए हो।”

ऐसा कहते हुए आचार्य ने अपनी अमृतवर्षिणी कृपादृष्टि कुरेशभट्ट के ऊपर डालते हुए उसे कृतकृत्य कर दिया। कुरेशभट्ट के सम्पूर्ण सेवा का फल सद्गुरु ने एक दृष्टी में दे दिया। सचमुच ही सद्गुरु की दृष्टी ऐसी है जो शिष्य के जीवन को शुद्धतम कनक बना देती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *