गुरु सदैव अपने शिष्य के ह्रदय में बसते हैं। केवल गुरु ही अपने योग्य शिष्य को दिव्य प्रकाश दिखा सकते हैं। गुरु अपने शिष्य को असत्य में से सत्य में, मृत्यु में से अमरत्व में, अंधकार में से प्रकाश में और भौतिकता में से आध्यत्मिकता में ले जा सकते हैं।
संसार में गोताखोर एक से एक होंगे। जिन्होंने समुद्र की तली को हजारों बार चूमा होगा। लेकिन क्या प्रेम के सागर की गहराई को कोई माप पाया है…? आसमान अपनी विशालता का कितना भी ढिंढोरा क्यों न पिटे, लेकिन गुरुभक्तों के ह्रदय के विशालता के आगे तो वह आसमान भी मौन हो जाता है।
नख से शिख तक लबालब पानी से भरे बदरा कितना भी गर्व क्यूँ न कर लें, लेकिन विरह में बहे, एक आँसू में जो ठंडक होगी वह पूरे सावन के मेघों में भी मिलकर कहाँ? प्रेम ,समर्पण और विरह ऐसे आभूषण हैं जो चाँदी के श्रृंगार पेटिका में कैद किसी राणी-पटरानी की निजी सम्पदायें नहीं।
आज लाहौर की इस गरीब सी बस्ती में बसते समन और उसका पुत्र मुसन भी ऐसे ही भक्तों के पुष्पमाला की एक सुंदर कड़ी है।समन ने कहा पुत्र… उन दिनों लाहौर की गलियों में गुरु अर्जुनदेवजी घर-घर जाकर भजन औऱ सत्संग की गंगा प्रवाहित कर रहे थे। यह देख समन ने कहा कि, “पुत्र! तुझे पता है, कल श्रीगुरुदेव मेरे सपने में आये। मैंने देखा कि वे हमारे घर में है। उनके सामने संगत सजी है , खूब भजन-कीर्तन, सत्संग हो रहा है और भंडारा भी चल रहा है। जिसमें पूरा नगर इकठ्ठा हुआ है।”
पुत्र मुसन ने कहा कि, “पिताजी! निःसंदेह आपका सपना अगर सच हो जाये तो सातों जन्मों की प्यास बूझ जाय। लेकिन अफसोस की गरीब के सपने कब पूरे हुआ करते हैं? ये तो एक न एक दिन टूट ही जाते हैं। इसलिए पिताजी इन सपनों को जरा समझा दो की गरीबों की आँखों में कम ही आया-जाया करे।”
समन ने कहा,” पुत्तर! मुझे तो नसीहत दे रहा है, लेकिन सच-2 बता कि तेरी आँखे क्या यह सपना नहीं देख रही कि गुरुदेव हमारे घर आये। मेरी आँखों ने तो फिर भी बंद होने के बाद यह सपना देखा है, परन्तु तेरी आँखे तो खुली रहकर ही 24 घण्टे यह सपना देखती है। क्या यह नसीहत तूने कभी अपनी आँखों को नहीं दी?”
बाप और बेटे यह विचार में थे कि क्या वे कभी गुरुदेव का सत्संग अपने घर में आयोजित करवा पायेंगे? इतने में पुत्र मुसन को बाहर सड़कपर से गाँव का एक नगरसेठ गुजरता दिखाई दिया। मुसन कहा, “पिताजी! ब्याज पर वह सेठ कर्ज तो देता ही है। तो क्यों न हम भी उससे कर्ज लेकर सारे प्रबंध करले। फिर बाद में हम लौटा देंगे। भले ही इसके लिए हमे दिन-रात मजदूरी क्यूँ न करनी पड़े।”
इधर गुरुदेव की कृपा भी देखिए कि जैसे ही सेठ ने उनकी बिनती सुनी तो बिना कुछ गिरवी रखवाये वह कर्ज देने को राजी हो गया। उसने कहा आप कार्यक्रम से एक दिन पहले आकर निर्धारित रक्म मुझसे प्राप्त कर लेना।
बस अब रकम मिलना तो निश्चित था। लेकिन गुरुदेव कौनसे दिन उनके यहा आकर उन्हें धन्य करेंगे, यह निश्चित नहीं था। यही सुनिश्चित करने वे सीधे धर्मशाला पहुँच गए, जहाँ गुरुदेव ठहरे थे। दोनों गुरुदेव के कक्ष के सामने खड़े हो गए, ताकि गुरुदेव जैसे ही बाहर निकलें वे अपनी प्रार्थना उनके चरणों में रख दें।
थोडी देर बाद जब गुरुदेव बाहर आकर खड़े हुए, तब समन पुत्र मुसन की तरफ और पुत्र मुसन समन की तरफ देखने लगा।ऐसा होना स्वभाविक ही था। क्योंकि विशाल सागर को कैसे कहे कि मेरी अंजुली में भरे पानी में आकर जरा तैर जाओ!
टूटे-फूटे शब्दों में जैसे-तैसे उन्होंने अपना निवेदन रखा। परन्तु यह क्या? स्वीकृति तो जैसे गुरु महाराज जी के होठों पर रखी थी। गुरुदेव ने एक सप्ताह बाद ही उनके घर पधारने का आश्वासन दे दिया।
समन और मुसन नाचते-कूदते घर पहुँचे। उसी दिन से वे पूरे नगर में घर-2 जाकर निमंत्रण देने लगे कि फलाने दिन हमारे घर में श्रीगुरुदेव का आगमन होना है। संगत जुटेगी कृपया आप भी अवश्य पधारे।
दिन बीतते-2 छठा दिन आ पहुँचा। अगले दिन गुरु महाराज जी का आगमन होना था। आज इन्हें इन्तजाम करने के लिए नगरसेठ से रकम लानी थी। सो सुबह-2 ही समन और उसका पुत्र मुसन सेठ की हवेली पर पहुँच गये। लेकिन आज सेठ के चेहरे पर सुंदर भावों की जगह चिड़चिड़ेपन की उलझी लकीरें थी।
सेठ ने कहा, “सुनो! मैं यहाँ सम्पत्ति बनाने बैठा हूँ, लुटाने नहीं बैठा। मुझे अच्छी तरह से पता है कि कौनसे पात्र में खीर डालनी है और कौनसे में खमीर अर्थात खटाई डालनी है। रही बात तुम्हारी तो तुम्हें तो मैं किसी भी तरह का पात्र तक नहीं मान सकता।”
पुत्र मुसन बोला कि, “आपके कहने का क्या मतलब है सेठजी?”
सेठ ने कहा, “अपना यह कटोरा किसी और कि तिजोरी के आगे फैलाओ शायद कुछ सिक्के खैंरात में मिल जाये। अब यूँ खड़े-2 मेरा मुँह क्या ताक रहे हो? जाओ भागो यहाँ से भिखारी कहीं के! पता नहीं कहा-2 से चले आते हैं सुबह-2।”
सेठ के यह शब्द मानो शब्द न होकर 1-1 टन के घन थे , जिन्होंने समन और मुसन की खोपड़ी पर पूरी ताकत से प्रहार किया। कदम अपना फर्ज निभाते हुए समन-मुसन के मुर्दे से हो चुके शरीरों को वापिस घर तक ढ़ो लाये।
अब घर घर नहीं लग रहा था। उसमें स्मशान का सा सन्नाटा था। पिता-पुत्र के बीच कोई बातचीत जन्म नहीं ले पा रही थी। दोनों ही चुपचाप बैठे हुए थे। गुजरती रात के हर पल के साथ समन और उसका पुत्र मुसन के धैर्य की हद भी गुजरती जा रही थी।
उन्हें कल के सूर्य के किरण से पहले आशा की कोई किरण चाहिए थी। जिसका दूर-2 तक अता-पता नहीं था। लेकिन तभी मुहल्ले का चौकीदार “जागते रहो -2। चोरों से सावधान रहो।” यह बोलता हुआ गुजरा।
पुत्र मुसन ने कहा,” पिताजी! समाधान मिल गया। “
“कैसा समाधान?”
मुसन ने अपनी योजना पिता को सुना दी। समन ने कहा, “तू पागल हो तो नहीं गया जो ऐसी बकवास कर रहा है। ऐसा काम तो हमारे खानदान के इतिहास में किसीने नहीं किया और तू है कि हमारी इज्जत ख़ाक करने की तैयारी कर रहा है।”
पिताश्री! आज सवाल हमारी इज्जत का नहीं गुरुदेव की इज्जत का है। लोग कल क्या कहेंगे कि कैसे गुरु है जो अपने शिष्यों के शब्दों का मान नहीं रख पाएँ, उनको इतना समृद्ध भी नहीं कर पाएँ कि वे अपने गुरु को भोजन करा सके? क्या लोग कल हमारे कारण गुरुश्री पर उँगली नहीं उठायेंगे? और क्या आप यह सब सुन पाएँगे?
पिता समन ने कहा कि, “पुत्तर! पकड़े जाने पर पूरा नगर हमारे मुँह पर थूकेगा। क्योंकि दुनिया भावना नहीं कर्म की भाषा समझती हैं। दुनिया तो मजे ले-लेकर यहीं गीत गायेगी कि ये हैं श्रीगुरु अर्जुनदेव जी के परम शिष्य जो पकड़े गये कुकर्म करते हुए। सोच मुसन! दुनिया ज्ञान पर उँगली उठायेगी। गुरु पर दोष लगेंगें। निश्चित है कि इसे सुन जो लोग अभी गुरुज्ञान से जुड़े भी नहीं ,वे जुड़ने से पहले ही टूट जायेंगे। बता, क्या तू इस महापाप का प्रायश्चित कर पायेगा? क्या है हिम्मत तुझमें इस पाप की गठरी को ढोने की बता?”
पिताश्री! आपकी बात किसीभी प्रकार से गलत नहीं। लेकिन हमारे पास इसके सिवाय कोई और चारा भी तो नहीं। हाँ, हम इतना कर सकते हैं कि सत्संग व लंगर खत्म होनेपर स्वयं श्रीगुरु के श्रीचरणों में अपना गुनाह कबूल कर लेंगे। फिर वे हमें मारे अथवा जिंदा रखें, हम हर दंड स्वीकार करेंगे।
पिता समन की आँखो में रजामंदी के कुछ रँग उभर आये और पुत्र मुसन को भी शब्दों में लिपटी हाँ की आवश्यकता नहीं थी। पिता की मौन स्वीकृति वह समझ चुका था। दूसरे ही पल पुत्र मुसन एक सब्बल ,चाकू और गठरी बाँधने के लिए कमरकस्सा ले आया। फिर दोनो घर की दहलीज लाँघकर निकल पड़े, लेकिन कहाँ के लिए और किस कार्य के लिए यह लाहौर का कोई व्यक्ति नहीं जानता था।
दरअसल वे वह कार्य करने जा रहे थे जिसे गुरु का प्रेम और मार्गदर्शन मिलने के बाद त्याग दिया जाता है। वे वह कार्य करने जा रहे थे जिसे शास्त्रों में अति निंदनीय श्रेणी में रखा गया है।जिसे करने के बाद चेहरे पर एक ही लेप लगता है और वह भी चन्दन,केसर या हल्दी का नहीं, बल्कि कालिक का लेप। वे चोरी करने जा रहे थे। वे उसी सेठ के घर सेंघ लगाने जा रहे थे, जिसके कारण वे आज इस आफत की घड़ी में थे।
वाह! कैसे अजीब गुरुभक्त थे वो। आजतक ऐसी कथाएँ तो अनेक बार सुनी कि गुरुदेव को खून-पसीने से बनाई हुई रोटी ही रास आती है। फिर भले ही वह बाँसी और नमक लगी ही क्यों न हो। वे चोरी-डाके की कमाई कभी नहीं खाते। लेकिन यहाँ तो गंगा ही उल्टी बहने जा रही थी। गुरुदेव को चोरी की रोटी खिलाने के लिए समन व उसका पुत्र मुसन अपनी जान हथेली पर रख रहे थे। शायद कही ऐसा तो नहीं कि प्रेमसगाई में चोरी की भी एक रस्म हो जिसे आजतक निभाने का किसी भक्त को अवसर ही न मिला हो और यह रस्म निभानी इन्हीं के भाग्य में लिखा हो।
आखिरकार समन व उसका पुत्र मुसन उस सेठ की हवेली पहुँच ही गये। अब कुदरत ने फिर सहयोग दिया। चाँद के आगे अचानक काले बादल घिर आये और हर ओर अँधेरा हो गया। इस अँधेरे का लाभ उठा समन और उसका पुत्र मुसन दीवार लाँघकर हवेली की उसी छत पर चढ़ गये जो तिजोरीवाले कमरे के ऊपर थी। अब मुसन ने बड़ी ऐतियाद से छत की जमीन पर सब्बल से प्रहार किया। जमीन भी शायद इस महायज्ञ में अपनी आहुति देना चाहती थी। इसलिए वह कठोर जमीन भी मिट्टी सी नरम हो गई और 2-3 प्रहार पड़ते ही उसमें एक बड़ा छेद हो गया।
योजना के अनुसार पुत्र मुसन को नीचे उतरकर आवश्यक मुद्रायें गठरी में बाँधनी थी और पिता समन को ऊपर रहकर ही चारों तरफ नजर रखनी थी। समन ने पुत्र मुसन की बाजू पकड़कर उसे नीचे कमरे में उतारा और बस इतना ही कहा, “जा पुत्तर! तेरा गुरु राखा। थोड़ा ध्यान रखना गुरु भली करेगा। ” साथमें अपनी पानी भरी आंखों से यह भी कह दिया कि, “पुत्तर!आज मैं तुझे इस कमरे में नहीं बल्कि एक युद्धक्षेत्र में उतार रहा हूँ। अब देखना यह है कि तू जीतके आता है या हार के।”
हम कल जानेंगे की समन और उसका पुत्र मुसन के साथ गुरुसेवा के व्रत में क्या घटित हुआ…