गुरु संतकुल के राजा हैं । गुरु मेरे प्राणों के विश्राम-स्थान हैं । इस त्रिलोकी में दृष्टि डालने पर सद्गुरु के सिवाय दूसरा कोई ईश्वर देखने में नहीं आता । गुरु सुख के सागर हैं, प्रेम के भण्डार हैं । गुरु धैर्य के पहाड़ हैं, जो किसी भी अवस्था में डगमगाता नहीं है । गुरु वैराग्य के मूल कारण हैं एवं साक्षात अद्वैत परब्रह्म हैं । सूक्ष्म शरीर में रहने वाली आत्मा-अनात्मा की ग्रंथि को सद्गुरु तत्काल खोल देते हैं । गुरु साधक के लिए सहायक हो जाते हैं । सद्गुरु भक्तों की माता हैं, भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाली कामधेनु गाय हैं जो भक्तों के घर ज्ञान-आनंद-शांतिरूपी दूध देती है । गुरु अपने भक्त के बुद्धिरूपी नेत्र में ज्ञानांजन लगाकर उसे आत्मघन का अनमोल खजाना दर्शाते हैं । गुरु मुमुक्षु को साधना-सेवा का सौभाग्य प्रदान कर ब्रह्मवेत्ता साधुओं के पास जो आत्मबोध (आत्मानुभव) होता है, उसकी प्राप्ति करा देते हैं । गुरु मुक्ति की शोभा हैं । गुरु दुष्टों को दंड (शिक्षा) देते हैं एवं शिष्य के पापों को नाना प्रकार से नष्ट करते हैं । श्री सद्गुरु शिष्य को ‘तुम्हारी देह भी प्रत्यक्ष काशी ही है ।’ ऐसा उपदेश देकर तारक मंत्र देते हैं । इससे रुक्मिणी देवी के पति एवं जगतपिता श्री भगवान के ध्यान में हमारा मन सहज में ही लगा हुआ है ।
गुरु का कार्य क्या है ?
गुरु का मुख्य कार्य शिष्य का हाथ पकड़ना एवं आँसू पोंछना नहीं होता वरन् शिष्य के अहंकार को तथा शिष्य एवं मुक्ति के मध्य जो कुछ अव्यवस्थित है उसे हटाना है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 330
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