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भाई भिखारी की यह कथा सभी भक्तों व साधकों को जरूर पढ़नी चाहिए….


गुरुदेव की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करने के लिए अपने अंतः कर्ण की गहराई से उनको प्रार्थना करो, ऐसी प्रार्थना चमत्कार कर सकती है । जिस शिष्य को गुरुभक्तियोग का अभ्यास करना है, उसके लिए कुसंग एक महान शत्रु है । गुरुभक्तियोग शुद्ध विज्ञान है, वह निम्न प्रकृति को वश में लाने की एवम् परम आनंद प्राप्त करने की रीति सिखाता है ।

गुरू में दृढ़ श्रद्धा साधक को अनंत ईश्वर के साथ एकरूप बनाती है । श्री अर्जुनदेव जी आज अपने आसन पर कुछ ऐसे दैदीप्यमान हो रहे थे, जैसे आसमान के सिंहासन पर पूर्णमासी का चंद्रमा और जैसे तारे दूर-2 से सिमट कर आसमान की गोद में झुरमुट बना लेते हैं, वैसे ही दूर-दराज से पधारे भक्त गुरुदेव के श्रीचरणों में सिमटे बैठे थे । एकाएक एक साधक ने प्रश्न किया कि गुरुदेव आज आपके दरबार में हजारों की तादाद में संगत बैठी है, परन्तु मैं जानना चाहता हूं कि इनमें से ऐसे कितने शिष्य हैं जो आपकी रजा में अपनी रजा मानते हैं ।

यह सुन गुरुदेव के मुख पर आयी प्रसन्नता एकदम गंभीरता में बदल गई और उनकी नज़रें संगत पर दौड़ने लगीं, लेकिन कहीं ठहरी नहीं और अंततः वापिस पुतलियों में आकर सिमट गई । यह देख सभी भक्तों के दिल थम गए क्योंकि इसका मतलब था इन सबमें से कोई भी नहीं । गुरुदेव ने कहा, हालांकि सम्पूर्ण आसमान में लाखों सूर्य हैं, लेकिन जैसे तुम्हें एक ही सूर्य दिखाई पड़ता है, वैसे ही मुझे भी इस घड़ी दूर गुजरात की धरती पर #भाई भिखारी के रूप में एक ही ऐसा शिष्य दिखाई पड़ रहा है ।

गुरुदेव का यह कथन सुनकर तो उस साधक की जिज्ञासा और भी प्रबल हो गई । अगले ही दिन भाई भिखारी से मिलने की चाह लिये वह गुजरात की तरफ कूच कर गया । उसके घर पहुंचा तो पता चला कि दो दिन बाद ही उसके सुपुत्र की शादी है, इसलिए सारा घर दुल्हन की तरह सजा था, सब लोग अपनी ही मस्ती में झूम रहे थे । उन्हें लगा कि वह जिज्ञासु साधक भी बाराती है, खैर किसी तरह पूछता-पाछता वह जिज्ञासु भाई भिखारी के पास पहुंचा और बोला मैं गुरुदरबार से आया हूं, गुरू अर्जुनदेव जी का शिष्य हूं ।

भाई भिखारी ने ज्यों-ही यह सुना तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव भर आये, अरे आप खड़े क्यूं हैं आइये बैठिये । उस सज्जन पुरुष ने अपनी पत्नी से कहा कि जल्दी से भोजन और पानी का प्रबंध करो, हमारे गुरुभाई आये हैं इतनी दूर से चलकर । जिज्ञासु को ऐसा स्नेह प्राप्त कर अच्छा-सा लगा, लेकिन वह थोड़ा उलझन में भी था, कारण कि भाई भिखारी ने उसका सत्कार तो किया लेकिन अपना काम छोड़ कर खड़ा नहीं हुआ, और काम भी क्या कोई खास नहीं, मामूली-सा टाट बुनने का ।

वह टाट बुन रहा था और उसे बुनता ही रहा, वह भी इतना जल्दी -2 जैसे कि वह टाट शीघ्र ही चाहिए हो । फिर जिज्ञासु ने यह सोचा कि हो सकता है इनके रीति-रिवाज के अनुसार ऐसी टाट की आवश्यकता होती होगी, लेकिन यह छोटा काम तो मजदूर से करवाना चाहिए । बेटे की शादी हो और पिता इतने मामूली से कार्य में लगा रहे, यह तो कोई बात ना हुई । जिज्ञासु के मस्तिष्क में कहीं-ना-कहीं यह बात चुभ सी गई, लेकिन भूख और लंबे सफर की थकान ने कहा कि अभी खा-पीकर कुछ आराम कर लिया जाए ।

कई घंटों की नींद के बाद जब जिज्ञासु तरो-ताजा होकर उठा तो कुछ बातचीत करने के इरादे से फिर भाई भिखारी के पास पहुंचा, परंतु वहां पहुंचकर हैरान रह गया, क्योंकि भाई भिखारी तो अब भी टाट ही बुन रहा था । उसके पास ही खाने की थाली पड़ी थी, उसमें ठंडी सब्जी और सुखी रोटियां साफ कह रही थी कि थाली कब से उसके पास रखी थी । भोजन करना तो दूर उसने उसको सूंघ कर भी नहीं देखा था । जिज्ञासु का दिमाग अब प्रश्नों की उलझन में उलझे बिना ना रह सका, वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर शादी के अवसर पर इस टाट का क्या काम, क्योंकि टाट को तो जमीन पर बिछाकर उस पर बैठा जाता है और शादी में नीचे बैठना तो वैसे भी महा-अशुभ है ।

कारण कि नीचे तो तब बैठा जाता है जब घर में कोई मृत्यु हो जाए और ऐसे अशुभ की तो कोई सोच भी नहीं सकता, परंतु जिज्ञासु की भाई भिखारी से कुछ पूछने की हिम्मत ना हुई । यूं ही पूरा दिन बीत गया, फिर रात भी बीत गई लेकिन नहीं बीती तो वह कल वाली कहानी, टाट की कहानी । सुबह भी भाई भिखारी उस टाट को ही बुनने में लगा था, कितनी अजीब सी बात थी । ऐसी तन्मयता थी भाई भिखारी की टाट बुनने में, जैसे कोई लड़की अपने दहेज का सामान तैयार कर रही हो, वह दिन और रात भी उसी टाट की भेंट चढ़ गये ।

अगली सुबह हुई, आज भाई भिखारी के बेटे ने तैयारी कर ली घोड़ी चढ़ने की, जिज्ञासु को पूरा यकीन था कि आज तो भाई भिखारी को वह टाट के बिना देख पायेगा, लेकिन जिज्ञासु आवाक रह गया, उसका यकीन गलत निकला । वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उस टाट का इस शगुन के अवसर पर क्या अर्थ है, अब जिज्ञासु खुद को रोक नहीं पाया और उसने पूछा ही लिया कि भाई भिखारी आखिर इस टाट में ऐसा क्या है ? तुम इस अवसर पर इसे क्यूं बुन रहे हो ? आने वाले कल की तैयारी हो रही है गुरूभाई ! बस इतना ही भाई भिखारी ने कहा और दोबारा टाट बुनने में लग गया ।

अब तो जिज्ञासु को लगने लगा कि अवश्य ही में किसी गलत व्यक्ति के घर चला आया हूं । यह तो निरा पागल दिखता है, परंतु फिर गुरुदेव ने लाखों को छोड़ इस अकेले का नाम क्यूं लिया । जिज्ञासु गुरुदेव के वचनों और अपनी बुद्धि के निर्णयों के बीच पिसता जा रहा था, इसी कशमकश में शादी का दिन भी गुजर गया । भाई भिखारी ने पूरा दिन शादी के रीति-रिवाजों में कोई रुचि नहीं दिखाई, उसका तो पूरा ध्यान अपनी टाट में ही था । जिज्ञासु ने अब यह सोचा कि मेरा यहां आना व्यर्थ हो गया, मुझे कल सुबह ही निकल जाना चाहिये, चलो भाई भिखारी को अपने जाने के बारे में बता दूं ।

रात्रि का पहला प्रहर बीतने को ही था, जिज्ञासु भाई भिखारी के पास पहुंचा तो पाया की वह लंबी चैन की सांस ले रहा है, उसकी टाट बनकर तैयार हो चुकी थी । जिज्ञासु ने जब सुबह उससे अपने लौटने की बात कही तो वह तुरंत बोला , नहीं भैया ! कल आप नहीं जा पायेंगे, इतना कहकर भाई भिखारी टाट समेटने लगा । अब जिज्ञासु ने कहा कि भाई माना कि तुम अपनी मर्ज़ी के मालिक हो लेकिन फिर भी क्या बताने का कष्ट करोगे की आखिर इस टाट का क्या रहस्य है ? भाई भिखारी बोला कुछ नहीं बस कर्ज चुकता करने का समय बिल्कुल मेरे सिर पर आ चुका था।

शुक्र है प्रभु का, कि मैंने तैयारियां मुक्कमल कर लीं । यह उत्तर सुनना था कि जिज्ञासु की खीज की हद ना रही और वह पैर पटकता हुआ अपने कक्ष में चला गया । सुबह होने को ही थी कि जिज्ञासु की नींद अचानक विलाप के शोर से खुल गई, वह दौड़ कर बरामदे में गया, वहां नवविवाहिता जोर -2 से रो रही थी । घर की अन्य स्त्रियां भी चीख चिल्ला रही थी, जिज्ञासु को कुछ समझ ना आया, वह दौड़ कर कमरे तक पहुंचा तो पता चला कि भाई भिखारी के बेटे के अचानक पेट में पीड़ा हुई और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । खबर फैलते ही पूरा मौहल्ला इकट्ठा हो गया, सब जल्द से जल्द पहुंच गए ।

सब थे वहां बस एक को छोड़ कर भाई भिखारी को, आखिर कहां था भाई भिखारी ! यह कैसे हो सकता है, अरे वह पिता था उस जवान लड़के का जो अभी -2 मृत्यु को प्राप्त हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी कमरे में छिप कर रो रहा हो । इस विचार के आते ही जिज्ञासु को भाई भिखारी से सुहानुभूति हुई, वह बोल पड़ा अरे कोई जाकर भाई भिखारी को भी तो संभालो । कहीं वह कुछ…. हां हां बहुत से पिता ऐसे सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाते, फिर उनकी कहीं से रोने धोने की आवाज़ भी तो नहीं आ रही है ।

मैं देखता हूं उन्हें, हे गुरुदेव उन्हें शक्ति दो । हड़बड़ाहट में जिज्ञासु ने एक-2 करके सारे कमरों में देखा, परन्तु उसे भाई भिखारी कहीं नहीं मिला, फिर दोबारा आंगन में आया तो भाई भिखारी को वहां पाया । इसे देख कर जिज्ञासु हैरान रह गया, वह ना रो रहा था ना दुखी परेशान लग रहा था बिल्कुल शांत था जैसे कुछ हुआ ही ना हो । और तो और उसके हाथों में अब भी वही टाट थी परन्तु अब उस टाट का औचित्य सबको समझ आ रहा था । भाई भिखारी ने आंगन से अन्य वस्तुएं हटाकर उसी टाट को बिछा दिया, फिर बेटे का मृतक शरीर उस टाट पर रख दिया गया।

परंतु जिज्ञासु के मन में अब भी एक दुविधा थी कि यह कैसा पिता है जवान बेटा मर गया और इसकी आंखों में अश्रु तक नहीं । क्या कोई दुख नहीं है इसको ? वरना चेहरे पर इतनी सहजता और बेफिक्री कैसी और यही भाव प्रश्न बन कर जिज्ञासु के होंठो पर आ गया । उत्तर में भाई भिखारी बस इतना ही बोला चलो अच्छा हुआ कर्ज चुक गया । जिज्ञासु ने हैरानी से कहा मतलब ! यही शब्द तो तुमने कल कहे थे, तुमने यह भी कहा था कि टाट आने वाले कल की तैयारी है, तो क्या इसी क्षण के लिए तुमने टाट बुनी थी ? क्या तुमको पहले ही सब पता था ? पता था गुरू भाई पता था तो तुमने अपने बेटे को बचाना क्यूं नहीं चाहा, बचाया क्यूं नहीं उसे ?

भाई भिखारी ने कहा कि वह मेरा बेटा नहीं था बल्कि प्रभु का था, मेरी तो प्रभु ने पिता का दायित्व निभाने की सेवा लगाई थी, जो आज पूर्ण हुई । जिज्ञासु यह सुनकर लगभग रो-सा दिया और कहा परन्तु तुम उसे बचा भी तो सकते थे अपने गुरुदेव से प्रार्थना करते । गुरुदेव सर्वसमर्थ हैं वे अपने प्यारों की पुकार अवश्य सुनते हैं, वे अवश्य ही तुम्हारे बेटे की मृत्यु टाल देते, अभी-2 तो शादी हुई कल और आज बेटे की मृत्यु हो गई । जब तुम्हें पता था तब गुरूदरबार में आ जाते या प्रार्थना करते गुरुदेव से, तुमने उनसे बेटे का जीवन क्यूं नहीं मांगा ?

भाई भिखारी ने कहा नहीं गुरूभाई नहीं ! भला मैं गुरुदेव के इंसाफ में बाधा कैसे डाल सकता हूं । सोचो क्या वे कभी गलत कर सकते हैं क्या ! क्या अब मैं उन्हें बताऊं की वे ऐसा नहीं ऐसा करें, यह तो मूर्खता होगी गुरुभाई । क्या गुरुदेव नहीं जानते कि मेरा हित-अहित किसमे है । मुझे पता है कि जो मुझे मिल रहा है वह गुरुदेव का ही तो प्रसाद है और नश्वर वस्तुओं के लिए प्रार्थना थोड़े ना हुआ करती है, प्रार्थना तो होती है आत्मिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए, इसलिए तुम शोक मत करो, सुमिरन करो गुरू की रजा में राजी रहो । इतना कह भाई भिखारी तो अंतिम संस्कार के कार्यों में लग गया लेकिन जिज्ञासु का शरीर पत्थर-सा हो गया, क्योंकि उसने प्रत्यक्ष देख लिया, कि गुरू की रजा में यूं राजी रहना आसान नहीं है ऐसा कार्य तो सच में विरले गुरुभक्त सतशिष्य ही सकते हैं ।

तांत्रिक सिद्धियों के स्वामी कुरेशभट्ट के अहम को गुरु ने कैसे विलीन किया…


गुरुभक्तियोग के निरंतर अभ्यास द्वारा मन की चंचलवृत्ति की निर्मूल करो। इस लोक के आपके जीवन का परम ध्येय और लक्ष्य अमरत्व प्रदान करनेवाली गुरुकृपा प्राप्त करना है। गुरु की सेवा करते समय श्रद्धा, आज्ञापालन और आत्मसमर्पण इन तीनो को याद रखो।

सद्गुरु की कृपादृष्टि शिष्य के लिए एक अमूल्य भेट होती है। सद्गुरु की दृष्टि समस्त कल्याण की जननी है, समस्त साधनाओ और तपस्याओं की परम सिद्धि है। सद्गुरु की दृष्टी साधक की साधना की विश्रामस्थली है।

भगवान शिवजी कहते हैं कि,

सकल भुवन सृष्टि कल्पिता शीश पुष्टिर।
निखिल निगम दृष्टि संपदा व्यर्थ दृष्टि।।

धनभागी हैं वे शिष्य जो निरंतर इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि श्रीगुरु की कृपादृष्टि उनमें नित्य निवास करे। उनका हृदय अपने सद्गुरु की दिव्य दृष्टि की आलोक से आलोकित रहे। श्रीगुरु की कृपादृष्टि से ही समस्त जगत की सृष्टि हुई है। इसी से जगत के समस्त पदार्थों की पुष्टि होती है। समस्त सत्शास्त्रों का मर्म सद्गुरु की कृपादृष्टि में समाया है।

सद्गुरु की दृष्टि शिष्यों के समस्त अवगुणों को धुलकर परिमार्जित करती है। संसार में गुणों को विकसित करनेवाली, मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाली, सकल भुवनों के रंगमंच की स्थापना का परम कारण सद्गुरु की कृपादृष्टि है। सद्गुरु की कृपादृष्टि मोक्ष साधना का आधारस्तंभ है। करुणा रस का वर्णन करनेवाली इस सद्गुरु की कृपादृष्टि में पुरूष एवं प्रकृति, तथा अन्य 24 तत्व समाये है।

समष्टि की रूपमाला सकल समयसृष्टि सच्चिदानंद दृष्टि।
निमष तू मई नित्यं श्रीगुरुर दिव्यदृष्टि।।

समष्टि की रूपमाला जीवन के सभी नियम, काल आदि सभी कारण जिसमें समाये हैं, वह सच्चिदानंद स्वरूप श्रीगुरु की दृष्टि है। इस बारे में अनेक मार्मिक प्रसंग विख्यात है। इनमें से एक सत्य घटना ऐसी है जिसमें इन श्लोकों का मर्म उद्घाटित होता है। यह घटना विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के संस्थापक श्रीरामानुजाचार्य के जीवन की है।

आचार्य की कृपा से अनेकों शिष्य धन्य हुए। इन धनभागी लोगों में कुरेशभट्ट की चर्चा होती है। इन कुरेशभट्ट ने अपने सच्चे शिष्यत्व से, सार्थक समर्पण से, स्वयं की अहंता के विसर्जन से गुरु की कृपादृष्टि को अनुभव किया, जीवन की सारी सार्थकता पाई, सच्चा अध्यात्म लाभ अर्जित किया।

कुरेशभट्ट असाधारण मनुष्य, परम तपस्वी एवं ख्यातिप्राप्त प्रकांड विद्वान थे। उनके तर्को की धार, प्रवाहपूर्ण प्रांजल भाषा पांडित्य मंडली को कुंठित कर देती थी। पंडित समाज में उनका भारी मान था। अनेकों योग एवं तंत्र की सिद्धियाँ उन्हें सहज सुलभ थी,परन्तु अध्यात्म के यथार्थ तत्व से वे वंचित थे। इस बात की कसक उनमें थी। लेकिन साथ ही उनमें कहीं इस बात का सूक्ष्म अहम भी था कि वे परम विद्वान एवं सिद्धिसम्पन्न हैं।

अध्यात्म की जिज्ञासा एवं विद्वता के अहम ने उन्हें द्वंद्व में डाल रखा था। समझ में नहीं आ रहा था कि वे किसे अपना मार्गदर्शक गुरु बनाये। अंत में बड़े सोच- विचार के बाद उन्होंने आचार्य रामानुज की शरण में जाने का निश्चय किया। आचार्य उन दिनों भारत की धरती पर सर्वमान्य विद्वान थे। उनके तप के प्रवाह से समस्त दिशायें प्रकाशित थी।

अपनी जिज्ञासा को लेकर कुरेशभट्ट श्रीरामानुज के पास पहुँच गये। परन्तु उनकी अहमवृत्ति के कारण आचार्य ने उन्हें अस्वीकृत कर दिया। कई बार उन्होंने इसके लिए प्रयास किया, परन्तु हर बार असफल रहे। यहाँ मर्म की बात यह है कि गुरु ही सदैव शिष्य को चुनते हैं। शिष्य में वह योग्यता कहाँ कि गुरु को चुन सके।

एक दिन जब वे आचार्य के पास बैठे थे आचार्य की मुँह बोली बहन अतुला उनके पास आई और बोली,” भैय्या! ससुराल में मुझे रोटी बनाने में बड़ा कष्ट होता है। आपके पास यदि कोई उपयुक्त व्यक्ति हो तो उसे मुझे दे दीजिए। ताकि वह मेरी ससुराल में खाना पका सके। “

कुछ देर सोचने के बाद आचार्य की दृष्टि पास बैठे कुरेशभट्ट की ओर गई और उन्होंने कहा, “कुरेश! मैं तुम्हें अपना शिष्य तो नहीं बना सकता परन्तु यदि तुम चाहो तो मेरी इस बहन के यहाँ रसोई बना सकते हो।”

परम धनवान, महाविद्वान, प्रचंड तपस्वी, सिद्धिसम्पन्न कुरेशभट्ट के लिए ऐसा प्रस्ताव सुनकर पास बैठे हुए लोग चौक पड़े। लेकिन कुरेशभट्ट अहंभाव से भले ग्रस्त हो, परन्तु शास्त्रों के मर्म से वे भलीभाँति परिचित थे। उन्हें सद्गुरु की कृपादृष्टि का मर्म पता था। बिना क्षण के देर लगाये प्रस्ताव स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, “प्रभु! आप शिष्य ना सही मुझे अपना सेवक होने का गौरव दे रहे हैं। यही मेरे लिए सबकुछ है।”

उस क्षण से लेकर दिन, सप्ताह, महीने और वर्षों की कतार बीत गई। वर्षों तक गुरुआज्ञा को शिरोधार्य करे वह अतुला के ससुराल में रोटी बनाते रहे। सबको प्रेमपूर्वक भोजन कराते रहे। साथ ही सेवा के प्रभाव से उनका मन सद्गुरु के ध्यान में सदैव रमा रहता। भाव से, प्रार्थना से और विरह की निरंतरता से उनका सारा अहम धूल गया। उनकी चेतना उनके सद्गुरु से एक हो गई। आत्मज्ञान एवं ब्रम्हज्ञान की विभूतियाँ उनमें आ विराजी।

एक दिन आचार्य उन्हें लेने स्वयं उनके पास आये और बोले, “वत्स! अब तुम स्वतः ही मेरे शिष्य बन गए हो।”

ऐसा कहते हुए आचार्य ने अपनी अमृतवर्षिणी कृपादृष्टि कुरेशभट्ट के ऊपर डालते हुए उसे कृतकृत्य कर दिया। कुरेशभट्ट के सम्पूर्ण सेवा का फल सद्गुरु ने एक दृष्टी में दे दिया। सचमुच ही सद्गुरु की दृष्टी ऐसी है जो शिष्य के जीवन को शुद्धतम कनक बना देती है।

सबसे बड़ा भक्त…. (बोध कथा)


जिज्ञासु ने पूछा गुरूजी क्या आपकी कृपा सार्वजनिक रूप से सब पर बरसती है। या कुछ उन लोगो पर जिनकी कुछ तैयारी होती है क्या कुछ ही पर कृपा होना पक्षपात नही है कृपा करके भागवत भाव के बारे मे कुछ समझाइये।
गुरूदेव ने कहा कि पक्षपात मूढ़ों को लगता है महात्मा को पक्षपात क्या?

सर्वज्ञ नामक एक महान कवि हो गये हैं जिन्होंने तेलगु, कन्नड़ दोनो भाषाओ मे काव्य लिखा। सब उन महर्षि सर्वज्ञ का सम्मान करते थे भगवान की कृपा किस पर होती है किस पर नही एक कविता मे वे समझाते है। भगवान् का पक्षपात क्या या अधिकार भेद क्या? प्रातःकाल मे भगवान सूर्यनारायण के उदय होते ही रात्रि भाग जाती है प्रकाश दौड़ दौड़कर आता है। अपने आप चलकर सुर्य को दोनो के भेद का ज्ञान नही। सुर्य से अंधकार के बारे मे पूछने पर वह इतना ही कहेगा कि अंधकार क्या है हमने देखा भी नही सुना भी नही पढा भी नही क्या है यह वह जानता भी नही कि अंधकार क्या है। वे अपने काव्य मे लिखते हैं कि मोम सुर्य के प्रकाश को देखते ही पिघल जाती है और कीचड़ सुखने लगता है और कौवे की आंख लौटने लगती है। उल्लू की चली जाती है और ब्राह्मण बिंद नाचने लगते है कि सुर्य को अर्घ्य देने का समय आ गया और चोर भाग जाते हैं।

सुर्य किसी बात को जानता नही वह न कौवे को आंख देता है न उल्लू की छीन लेता है न चोर को भगाता है न ब्राह्मण को हर्षित करता है सब अपने अपने स्वभाव के अनुसार सुर्य को अनुकूल प्रतिकूल देखते है सुर्य तो निर्विकार है। इसी पर एक कथा सुनाता हूँ सुनो।

विष्णु के दरबार मे सजे सजाये डीग्री वाले भक्त बहुत थे सबको ऐसा लगता था कि हम नजदीक है हम नजदीक है परंतु क्या पता वे निकटता के अभिमान से कितनी दूर रहते थे। उन्होंने एक दिन भगवान से पूछा प्रभु आपका सबसे प्रिय भक्त कौन है? उन्होंने सोचा था कि भगवान उन मे से ही किसी के विषय मे बोल देंगे कि वह हमे प्रिय है ।
एक दिन सब भक्तो के बीच मे भगवान बैठे थे सब बड़ी डीग्री वाले लोग थे। वे सब अपने अपने विषय मे बढ़ा बढ़ा कर बोल रहे थे।

एक दिन अचानक भगवान के पेट मे दर्द हो गया। वे चिल्लाने लगे हाय हाय मरा। अरे यह तो ज्यादा दुखने लगा। सब लोग सुनते ही भागे। कोई वैद्य लाता कोई डॉक्टर कोई हकीम और कोई होम्योपैथिक को लाया। वहाँ जल्दी ही बड़ा समाज इक्कठा हो गया। दर्द बढ़ता ही गया। अभी मरता अभी मरता हाय हाय भगवान चिल्लाते ही रहे और डाक्टर हो तो ले आओ। किसी के इलाज से फायदा नही हुआ।
दर्द घटने की बजाय बढ़ता ही चला। इतने मे एक नया हकीम आया। सोचता कि भगवान को अच्छा करने से और भी मरीज मिल जाएंगे। हकीम ने कहा इस रोग को हम जानते है बहुत खराब रोग है मगर इस रोग को हम अच्छा कर सकते है सबने कहा क्या रोग है कैसे ठीक होगा? हकीम ने कहा महान विचित्र रोग है नया रोग है। इसका नाम है भक्तो का मीटर। क्या करने से अच्छा होगा कि मनुष्य का कलेजा लाने से अच्छा होगा। हम गारंटी लेते है। कलेजे से हम कुछ दवा बनाकर देंगे।

सब लोग बोले हम लायेंगे हम लायेंगे। सब यह सोचकर भागे कि भगवान को कलेजा बहुत लोग दे देंगे। उनको अपने कलेजे का विचार आया ही नही सब लोग निराश होकर वापस आये। उनको कलेजा मिला ही नही। अब नारद जी ने कहा कि हम लाते है नारद को सबसे बड़ा भक्त माना जाता है नारदजी भी राउण्ड मारकर आ गये लेकिन कुछ हाथ नही लगा।

नारदजी एक स्थान पर बारह बरस पहले गये थे। उनसे एक दम्पति ने अपने लिए पुत्र मांगा नारद ने उनके लिए भगवान से प्रार्थना की। भगवान् ने कहा पुत्र भाग्य मे नही है नही हो सकता। इस बार उधर से निकले तो चार पांच बच्चे खेल रहे थे ।

नारद भगवान के पास आकर बोले भगवान कलेजा तो मिला नही हम भी सहभागी है आपके दर्द मे, लेकिन आपने कहा था कि उस दम्पति के भाग्य मे बच्चे नही है वहाँ तो हमने चार पांच बच्चे देखे। हमे आश्चर्य हो गया आपकी बात कैसे असत्य हो गयाी। नारदजी ऐसे समय मे भी भगवान के रोग को भूलकर उस बात को ही याद करने लगे।

भगवान् कहने लगे नारद बहुत दुखता है जाओ। उससे मिलो पूछो किसने बच्चे दिये? भगवान को कलेजा चाहिए कहाँ से मिल सकता है उसी से पूछो। नारद सब पता लगाकर उस महात्मा के पास गये। वह नदी किनारे कुटी बनाकर ॐ नमः शिवाय धुन मे मस्त बैठा था। उसे ध्यान लगा हुआ था। ध्यान भंग करना शास्त्र मे मना है इसलिए नारद वीणा बजाते हुए बहुत काल तक खड़े हुए।

ध्यान से उठने पर सामने नारदजी को देखकर भक्त ने पूछा नारदजी तुम क्यों आये हो? नारदजी बोले भगवान के पेट मे बहुत दर्द है। मनुष्य का कलेजा चाहिए पर मिलता ही नही भक्त बहुत बिगड़ गया मुर्ख तुमने क्यो इतनी देर की फाड़ कर ले क्यो नही गये मेरा कलेजा। चलो अभी चलो वह नारद के साथ भगवान के पास अस्पताल मे आ गया उसने तभी कलेजा फाड़कर दे दिया। लो भगवान। बस अच्छा हो गया।

भगवान बोले सब लोग हम भगत हम भगत बोलते हो कलेजा तुममे नही था क्या? गुरु को किसी पर विशेष कृपा बरसाने की जरूरत नही पड़ती। विशेष कृपा क्या बरसाना? कृपा बरसाना हमारे अपने हाथ मे नही। साधक का हृदय उनकी शुध्दि ही गुरू की कृपा को खीच देती है ईश्वरीय कृपा को खीच लेती है।

साधक का हृदय गुरु की कृपा का एक आकर्षक केंद्र है भूल यही है कि हम अपनी सांसारिक दृष्टि से गुरु को देखते है जैसे संसार को देखते है समझते है वैसे ही गुरू भी है नही नही। गुरु की विलक्षणता को समझना इतना आसान नही। गुरु को तुम उपरी भक्ति या दिखावे से ठग नही सकते और उपर से तुमको लगे कि गुरु को मैने ठग लिया है तो यह भ्रांति है छलावा है।

गुरू को जिस दिन ठग लिया उस दिन तुम न रह पाओगे सब गुरु ही गुरू होगे। तुमने कहा कि कृपा समान होती है यह पात्र को देखकर तो जिस दिन से तुमको गुरु ने स्वीकार किया उसी दिन से कृपा मैया तुम्हे कृतार्थ करने के लिए तुम्हारे द्वार पर खड़ी हो जाती है। बस अपना दरवाजा खोल दो ताकि गुरु की कृपा अंदर प्रवेश करे तो दरवाजा कैसे खोले? पूर्ण रूप से गुरु के हो जाओ। यही एक मात्र उपाय है। इसके सिवाय कोई उपाय नही।