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गुरु की विचित्र आज्ञा ने पूरे गाँव को उस सन्यासी का शत्रु बना दिया….


आत्मसाक्षात्कारी गुरु इस जमाने में सचमुच बहुत दुर्लभ हैं। जब योग्य साधक आध्यात्मिक पथ की दीक्षा लेने के लिए गुरु की खोज मे जाता है। तब उसके समक्ष ईश्वर गुरु के स्वरूप मे दिखते हैं और उसे दीक्षा देते हैं।
जो मुक्त आत्मा गुरु हैं वे एक निराली जागृत अवस्था मे रहते हैं।
जिसे तुरीयावस्था कहा जाता है। जो शिष्य गुरु के साथ एकता स्थापित करना चाहता हो उसे संसार की क्षणभंगुर चीजो के प्रति संपूर्ण वैराग्य का गुण विकसित करना चाहिए।

मुक्त आत्मा गुरु की सेवा, उनकी लिखी हुई पुस्तको का अभ्यास और उनकी पवित्र मुर्ति का ध्यान यह गुरू भक्ति विकसित करने का सुनहरा मार्ग है।

विट्ठल पंत को अत्यंत वैराग्य था इस संसार से। इसलिए वह काशी चले गए और सन्यास की दीक्षा लेकर वहीं रहने लगे। अपने पति विट्ठल पंत के चले जाने के बाद रुक्मणी बड़े दुःख मे थी। दुखी रुक्मणी ने अपना जीवन ईश्वर भक्ति मे रमा दिया। वह प्रतिदिन सूर्योदय के समय इन्द्रायणी नदी मे स्नान करके मंदिर जाती और ईश्वर से प्रार्थना करती रहती। वे ईश्वर से यही पूछती कि आखिर मेरे जीवन का क्या अर्थ है क्योंकि संतान और पति के बिना उन्हे अपने जीवन की कोई उचित दिशा दिखाई नही दे रही थी।

एक बार सद्गुरु रामानंद स्वामी अपने शिष्यो के साथ रामेश्वर की यात्रा करने जा रहे थे। तो संयोग से वे आलंदी के एक मंदिर मे रूक गये और संयोग से रुक्मिणी भी उस समय मंदिर मे ही थी। उन्होंने संत प्रवर को प्रणाम किया ।प्रणाम के जवाब मे गुरुदेव ने उन्हे आशीर्वाद दिया कि #संत संतानवती भवः ।

दरअसल इस आशीर्वाद मे रुक्मणी के जीवन का अर्थ छिपा था यह आशीर्वाद सुनकर रुक्मणी की आंखे भर आई। वह कहने लगी महाराज मेरे पति तो काशी जाकर सन्यासी बन चुके हैं अतः आपका आशीर्वाद फलित नही होगा। रुक्मणी की यह बात सुनकर रामानंद स्वामी को आश्चर्य हुआ क्योंकि यह आशीर्वाद फलित नही होना था तो उनके मुख से कैसे निकला क्योंकि वे तो ब्रह्म मे स्थित हैं वे स्वअनुभव पर स्थापित हैं उनके वचन स्व से आने वाले वचन थे।

वे जान गए कि जरूर उनके आशीर्वाद मे ईश्वर की कोई दिव्य योजना छिपी है तभी ऐसा आशीर्वाद निकला है। जरूर यह कोई ईश्वरीय संकेत ही है। रामानंद स्वामी ने रुक्मणी से उनके पति के बारे मे सारी जानकारी ली। सभी बाते सुनकर वे समझ गए कि उनका शिष्य विट्ठल पंत ही इस स्त्री का पति विट्ठल है।

वे अपनी रामेश्वर यात्रा छोड़कर तुरंत काशी लौट गये। गुरु के पूछने पर विट्ठल ने अपना कपट स्वीकार किया और वह माफी मांगते हुए अपने गुरु के पैर पकड़ लिये तब गुरूदेव ने विट्ठल को घर वापस जाने और वैवाहिक जीवन प्रारंभ करने की आज्ञा दी।

गुरूदेव ने उनसे कहा मैने तुम्हारी पत्नी को #संत संतान भव: का आशीर्वाद दिया है । तुम्हे वैवाहिक जीवन मे वापस लौटकर जाना है और ईश्वरीय वचनो को पूरा करना है गुरू की यह आज्ञा और उपदेश पाकर विट्ठल आलंदी लौट आए।

उस समय के समाज मे एक ग्रहस्थन स्त्री के जीवन का यही अर्थ होता था कि बच्चो का लालन पालन, पति की सेवा यही अर्थ समझाकर माता पिता अपनी पुत्री का विवाह करते थे। मगर रुक्मणी के जीवन का यह अर्थ छीन चुका था। वह नि:संतान थी पति भी चला गया था तो वह अब उसके जीवन का क्या अर्थ बचा यही सवाल लेकर वह ईश्वर के सामने रोज जाया करती।

परंतु स्वामी रामानंद के वचनो के अनुसार उनको चार संत संतानो के आगमन का निमित्त बनना था। इन संतानो को आत्मसाक्षात्कारी संत बनने की यात्रा मे मदद करनी थी। उनको इतना प्रेम देना था कि उन्हे अभाव मे भी सुखी और संतुष्ट रहने का हौसला आ जाय।कष्टो मे आनंदित होने की कला आ जाय। उनके जीवन का उद्देश्य ईश्वर की भक्ति।

उस भक्ति की क्रिया मे अभिव्यक्ति बन जाय। गुरु की आज्ञा मानकर विट्ठल पंत ने संन्यास छोड़कर वापस ग्रहस्थ धर्म अपना लिया। इस कारण से उन्हे सपरिवार समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना सहनी पड़ी। उस समय की सामाजिक मान्यता के अनुसार एक सन्यासी का वापस ग्रहस्थ हो जाना एक महान पाप था जिसका प्रायश्चित भी संभव न था। अतः ब्राह्मण समाज ने विट्ठल पंत और उनकी पत्नी को अपने समाज से बाहर निकाल दिया।उन्हे सपरिवार अशुद्ध घोषित कर दिया गया ।

समाज से मिल रही प्रताड़नाओं के बावजूद भी विट्ठल और रुक्मणी घबराये नही क्योंकि उन्हे गुरु आज्ञा मे ही अपने जीवन का अर्थ मिल गया था।उन्हे अपने जीवन की भूमिका का संपूर्णतः गुरु आज्ञा पर ही और गुरु ज्ञान पर ही आश्रित रहना था।उनकी दृष्टि मे यह ईश्वर की दिव्य योजना और गुरु आज्ञा थी। अतः कठिन परिस्थितियो मे भी पूरे स्वीकार भाव मे जीकर अपनी साधना कर रहे थे।

कुछ समय बाद दो-दो वर्ष के अंतर से उनके घर मे चार संतानो का अवतार हुआ। सबसे पहले निवृत्ति का जन्म हुआ, फिर दो साल बाद ज्ञानदेव का, इसके दो साल बाद सोपान का अंत मे मुक्ता का जन्म हुआ।

उन बच्चो के अंदर गर्भकाल से ही ज्ञान एवं वैराग्य से भरपूर गर्भसंस्कार हुए। बहिष्कृत होने के कारण विट्ठल और रुक्मणी का ज्यादातर समय घर पर ही बीतता था इस समय का उपयोग वे अपने बच्चो को वेद वेदांत और शास्त्रो का गहरा ज्ञान देने मे करते थे।अपने बच्चो के लिए वे माता पिता के साथ साथ शिक्षक भी थे। उनकी संताने तेजस्वी थी और बहुत ही सहजता से सारा ज्ञान ग्रहण कर रही थी।

समाज के लोग उनके परिवार से कोई संबंध नही रखते थे। और उन्हे निम्न व हीन दृष्टि से देखा जाता था। उन्हे हर कदम पर अपमानित किया जाता था । लोग उन बच्चो को सन्यासी का बेटा कहकर चिढ़ाते थे। ऐसे विपरीत माहौल मे पूरा परिवार हर रोज लोगो का अपमान सहकर कठिनतम जीवन जीता रहा। और इसे हरि की इच्छा मानकर भक्ति और साधना करता रहा।

विट्ठल रुक्मणी के परिवार का समाज मे तो कोई नही था। मगर वे सभी एक दूसरे के सहारे थे।उनके पास नि:स्वार्थ और आपसी प्रेम, सरलता, सच्चाई, निश्छलता, निष्कपटा, ज्ञान, भक्ति, संतोष और सब्र की अमूल्य दौलत थी।समाज एवं गांव से बहिष्कृत होने के कारण इन बच्चो को अन्य किसी का संग नही मिला बच्चो को यह कहने वाला कोई नही था कि ईश्वर प्राप्ति या आत्म बोध कठिन है। इतनी कम आयु मे संभव नही है। यह बहुत बड़ा है यह कहने वाला कोई न था । दरअसल इंसान के मन मे यह मान्यताए बचपन से डाल दी जाती है कि फलाना कार्य बहुत ही कठिन या असंभव है। फलतः बड़े होने के बाद भी व्यक्ति उस कार्य को कठिन या असंभव मानता है जब कि बच्चो मे ऐसी कोई मान्यता नही होती। और यदि उनमे कोई मान्यता न डाली जाए तो ऐसे बच्चे बड़े होकर कुछ अलग प्रयास कर असंभव लगने वाले कार्य भी कर गुजरते है।
देखा जाए तो विट्ठल- रुक्मणी के परिवार का जो जीवन चल रहा था उसमे सभी की इच्छाए या प्रार्थनाए पूरी हो रही थी।

विट्ठल पंत ने कभी भी आम इंसानो की भांति सुख सुविधाओ की कामना न की थी। वे ईश्वर भक्ति मे लीन रहकर सन्यासी जीवन जीना चाहते थे। अतः समाज ने उन्हे बहिष्कृत कर संसार मे ही उन्हे सन्यासियों का जीवन दे दिया। लोग तो समाज से ही दूर जंगल मे जाकर सन्यास लेकर भक्ति करते है जबकि विट्ठल और परिवार समाज मे रहकर ही सन्यासी जीवन का लाभ ले रहा था।

रुक्मणी अपने पति और बच्चो का संग चाहती थी। उनके प्रेम और सेवा में जीवन बिताना चाहती थी।वो उसकी भी इच्छा पूरी हो रही थी। साथ ही वे दोनो यह चाहते थे कि उनके बच्चे सुसंस्कारी ज्ञानी संत बनकर स्वअनुभव करे। और उसकी भी तैयारी हो रही थी। और इस तरह दुखो और अभावो मे भी कुदरत उनकी इच्छा पूरी कर रही थी। दरअसल यह परिवार पूरी समझ के साथ गुरू आज्ञा पर अपना जीवन यापन कर रहे थे। और यह परिवार आध्यात्मिक रूप से बहुत उन्नत था। और अध्यात्मिक ज्ञान को संसारी जीवन मे भलि भाति उतार भी रहा था। इसलिए वे सभी कष्टो मे भी सुखी और संतुष्ट थे।

अब दूसरा पहलू देखा जाय तो यहाँ विट्ठल पंत और उनके समस्त परिवार पर दृष्टि डाले तो इनकी यह कष्ट और पीड़ायुक्त दशा गुरु की आज्ञा पालन के कारण मिली थी। परंतु यह एक संसारी की दृष्टि है कि विट्ठल का परिवार गुरु के कारण कष्ट मे था। वही साधक विट्ठल की समझ सांसारिक दृष्टि के पार है उन्होंने अपने जीवन मे गुरु आज्ञा को ही महत्त्व दिया।

एक तरफ पूरा समाज, गांव खड़ा है और दुसरी तरफ विट्ठल और उनका परिवार। लेकिन गुरु की आज्ञा और गुरु के वचन सदैव जनकल्याण के कारण ही होते है। जब साधक ही गुरू वाक्यो के प्रति दृढ़ होता है। वही अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गुरु आज्ञा के प्रति दृढ़ता हम अपने गुरुदेव के प्रति प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

बापूजी को तीव्र तड़प थी ईश्वर प्राप्ति की। सांई लीलाशाह जी महाराज के आश्रम मे पहुंचे और वहाँ भी सत्तर दिनो के बाद महाराज के दर्शन हुए। दर्शन के बाद गुरूदेव ने पूज्य श्री से कहा वापस घर लौट जाओ। अब यहाँ सांसारिक की दृष्टि से देखें तो बड़ी ही कठोरता और निष्ठुरता दिखेगी महापुरुषो मे गुरु मे।

परंतु जिसने गुरु आज्ञा और गुरु को ही महत्त्व दिया वही कृत्य हुआ। बापूजी गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर वापस लौट आये। ऐसे अनेक प्रसंग गुरु की दृढ़ता के बारे मे हम पूज्य श्री के जीवन मे देख सकते हैं । पूज्य श्री सात वर्षो तक डीसा के विपरीत माहौल मे डटे रहे। यह गुरू आज्ञा मे दृढता ही है । आज भी पूज्य श्री हमारे बीच मे हैं तो वह भी गुरु आज्ञा के कारण ही हैं। अतः गुरु के वचन, गुरु की आज्ञा यह परिणामस्वरूप सदैव कल्याणकारी और साधक की उन्नति के लिए ही होती है।

वह बालक वन में भटक चुका था, सामने थी अंजना गुफा….


गुरू के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए। गुरु सेवा के लिए पूरे हृदय की इच्छा ही गुरू भक्ति का सार है। शरीर या चमड़ी का प्रेम वासना कहलाती है। जब कि गुरु के प्रति प्रेम भक्ति कहलाता है। ऐसा प्रेम! प्रेम के खातिर होता है गुरू के प्रति भक्ति भाव, ईश्वर के प्रति भक्ति भाव का माध्यम है। गुरु की सेवा आपके जीवन का एकमात्र लक्ष्य और ध्येय होना चाहिए।

संत ज्ञानेश्वर और उनके परिवार को समाज द्वारा दु:ख दिये जाने की बहुत सी कथाए इतिहास मे प्रचलित हैं। जिनमे बताया गया है कि उन्हे कैसे कैसे दु:ख मिले। फिर भी वह सत्य के मार्ग से नही हटे। बल्कि सत्य पर विश्वास रखकर अपनी साधना जारी रखी। उन्होंने अपने परिवार के भीतर ही दुख मे भी सुख खोज लिया। यह कहानियाँ हम इंसान को प्रेरणा देती है कि दुःखों मे खुश कैसे रहा जा सकता है कैसे सत्य की ताकत से दुःखों की ताकत को कम किया जा सकता है। व्यक्ति मे जिस चीज को पाने की पात्रता होती है वह उस तक पहुंच ही जाती है। जब शिष्य की पात्रता तैयार हो जाती है तब गुरु को आना ही पड़ता है।

विट्ठल और रुक्मणी की परवरिश में चारो बच्चो की भी अंतिम सत्य पाने की पात्रता बढ़ती गयी। विशेषकर निवृत्तिनाथ का ज्ञान उनके संवाद और उनके भीतर संतो के गुण देखकर विट्ठल और रुक्मणी बहुत खुश होते थे। सात से आठ वर्ष की उम्र मे निवृत्ति ज्ञान ग्रहण करने के लिए पूर्ण रूप से पात्र हो चुके थे।

एक रात जब पूरा परिवार तीर्थ यात्रा पर जा रहा था तब निवृत्ति गलती से जंगल मे रास्ता भटककर अपने परिवार से अलग हो गये। वे तुरंत जंगल से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहे थे। भागते-भागते निवृत्तिनाथ अंजनी पर्वत पर स्थित एक गुफा के नजदीक पहुंचे और सुरक्षा के लिए उस गुफा के अंदर चले गये। अंदर जाते ही उन्हे देखा कि सामने एक योगी अपने दो शिष्यो के साथ ध्यान मे लीन होकर बैठे हुए हैं।

यह योगीनाथ सम्प्रदाय के गुरु गहनीनाथ थे। गहनीनाथ ने निवृत्ति को देखते ही उनकी प्रतिभा और तेज को पहचान लिया। उन्होंने निवृत्तिनाथ को अपना परिचय दिया गहनीनाथ जैसे महान योगी का परिचय पाकर निवृत्तिनाथ प्रसन्न हुए मानो एक शिष्य अपने गुरु को और गुरु अपने शिष्य को पाने हेतु आतुर थे। गहनीनाथ ने उन्हे अपना शिष्य बना लिया। और उन्हे ज्ञान एवं योगमार्ग की शिक्षा दी थी तभी से निवृत्त निवृत्तिनाथ कहलाने लगे।

जो शिष्य वाकई पात्र होता है उसके लिए गुरु का एक मंत्र या एक वचन या एक प्रवचन ही आत्मबोध पाने के लिए काफी होता है। निवृत्तिनाथ भले ही नौ से दस वर्ष के थे लेकिन उनकी तैयारी इतनी थी कि गुरु से पहली मुलाकात और उनका पहला उपदेश ही उनकी सत्य प्राप्ति के लिए काफी था।

निवृत्तिनाथ अगले सात दिनो तक गुरु के सान्निध्य मे ही रहकर शिक्षा प्राप्त करते रहे अंत मे उन्होंने अंतिम सत्य पाकर स्वअनुभव प्राप्त किया। सत्य प्राप्त करने के बाद निवृत्तिनाथ गुरु से आज्ञा लेकर वापस अपने माता-पिता के पास चले गए।

जब उन्होंने देखा कि छोटा भाई ज्ञानदेव भी अंतिम सत्य पाने की पात्रता तैयार कर चुका है तो उन्होंने ज्ञानदेव को भी दीक्षित किया। ज्ञानदेव ने भी अल्प आयु मे ही योग मे निपुणता प्राप्त कर ली और अद्वैत का गहरा अर्थ समझ लिया और आगे चलकर ज्ञानदेव ही संत ज्ञानेश्वर के नाम से विख्यात हुए।

संत ज्ञानेश्वर ने हर स्थान पर अपने गुरु की स्तुति की है। आगे चलकर तो उन्होंने अमृतानुभव नामक ग्रंथ मे गुरु की अपार स्तुति गायी है। उन्होंने उसमे कहा कि “ज्ञान गूढ़ गम्य ज्ञानदेव लाभले।
निवृत्ति ने दिलो माझिया हाति।।”
इसका अर्थ है कि जो मुझे ज्ञान का गूढ रहस्य मिला वह निवृत्ति ने ही दिया है यही उपदेश निवृत्ति नाथ ने सोपानदेव और मुक्ता बाई को भी दिया।

इस तरह बहुत ही छोटी आयु मे चारो को सद्गुरु की प्राप्ति हुई और अपनी उच्च पात्रता के चलते ये चारो ही सत्य मे स्थापित हो गये। महापुरुषों की यही विशेषता होती है कि जब वे जनकल्याण के लिए इस अवनि पर अवतरित होते हैं वो बड़े ही अल्पकाल मे ज्ञाननिष्ठ हो जाते हैं।

जैसे हमारे पूज्य बापूजी बहुत ही अल्पकाल में अपने गुरुदेव पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज को आत्मसात कर गये हम सभी जानते हैं कि बहुत ही कम अवधि बीती हमारे बापूजी की अपने गुरु चरणो मे।

बापूजी का मात्र जाना ही हुआ बृजेश्वरी में और घटना घट गयी। श्री आशारामयणजी की कई पंक्तियाँ हमारे पूज्य बापूजी की बाल्यकाल मे ही तैयारियो को दर्शाती हैं। जैसे बापूजी का आगमन तीन बहनो के बाद हुआ फिर भी लोकमान्यताओ के विपरीत घर मे मंगल और समृद्धि की वृद्धि हुई जब कि लिखा है कुबेर ने भंडार ही खोला। कुलगुरू परशुराम जी की भविष्यवाणी कि यह तो महान संत बनेगा।

इस काल मे तो गुरुदेव अपनी माता की गोद मे थे। तभी कुलगुरू ने भविष्यवाणी कर दी थी। बाल्यकाल मे ही हमारे नन्हे बापूजी को अपनी मां के द्वारा ध्यान सिखाया गया तो फिर
“ध्यान का स्वाद लगा तब ऐसे कि रहे न मछली जल बिन जैसे”।
फिर वही आगे की पंक्ति दिखाती है हमे कि
“हुए ब्रह्म विद्या से युक्त वे” यह सब गुरुदेव की पूर्व तैयारी को दर्शाती है। बाल्यकाल मे ही दैवी लक्षणो को दर्शाती है। फिर तो मात्र गुरुदेव का अपने गुरुदेव से मिलन हुआ और गुरुगुरुत्व की पूर्णता प्राप्त हो गयी।

यहाँ पर दस बारह साल का लड़का महान योगी है जो निवृत्तिनाथ जो आठ साल की उम्र के अन्य बच्चो को भी दीक्षित कर रहा है। इस उम्र मे बच्चो से उम्मीद भी नही की जा सकती है कि वे ऐसा ज्ञान सुनकर उसे समझ पाएं। मगर ऐसा हुआ महापुरुषो के जीवन मे ऐसा देखा गया ऐसे विलक्षण बच्चो को देखते हुए कहा जा सकता है कि मुर्ति महान पड़ कीर्ति महान। यानी कि छवि, उम्र और बड़ी कीर्ति बच्चे भी ऐसा ले पाये। इसके लिए भी जरूरी है कि उनके माता-पिता उस ज्ञान को अपने जीवन मे जीएं।

हम सभी के सच्चे मात पिता हमारे गुरुदेव ही हैं। फिर चाहे हम आश्रम वासी हों या गृहस्थ हों। और हम सभी के गुरु रूपी माता-पिता तो सदैव ज्ञान मे जीते हैं। सत्य मे जीते हैं। और बच्चे अपने माता-पिता का ही अनुसरण करते हैं।
जैसा उन्हे देखते हैं। तो हमारी निष्ठा मे और भक्ति मे यदि कमी है तो शायद हमारी दृष्टि हमारे माता पिता अर्थात हमारे गुरुदेव पर न होकर कहीं और है।

उन चारो ने अपने माता-पिता को कठिन परिस्थितियो मे भी ज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलते हुए पाया। इसलिए उन्होंने सीखा कि जीवन जीने का यही तरीका है। जो आगे चलकर उनकी अभिव्यक्ति मे काम आया। साथ ही साथ उनके ज्ञान पाने की पात्रता भी तैयार है। संत ज्ञानेश्वर ने अपनी रचनाओ मे अपने गुरु निवृत्ति नाथ का बड़ा गुणगान किया हालांकि वे उनके भाई थे। और बस उनसे दो साल बड़े थे। उन्होंने गुरु के महत्व को उनके स्थान को जरा भी कम न आंका उन्होंने गुरु की प्रशंसा करते हुए लोगो से कहा कि तुम उन्हे मात्र निवृत्ति मत समझो। मेरे गुरुदेव वृत्ति और निवृत्ति दोनो से परे हैं।

मेरे गुरुदेव प्रवृति हैं मेरे गुरुदेव हर अवस्था से पार हैं। उन्हे बंधनो से मुक्त भी मत कहो क्योंकि मेरे गुरुदेव बंधन और मुक्ति दोनो से पार हैं।

संत ज्ञानेश्वर शिष्य की विशेषता बताते हुए आगे कहते हैं कि सच्चा शिष्य कपूर की तरह होता है कपूर ऐसा पदार्थ होता है कि जो अग्नि के संपर्क मे आकर जल जाता है ।
और धुआँ बनकर उड़ जाता है। जलने के बाद उसका कोई अवशेष भी नही रहता वे कहते हैं कि सच्चा शिष्य कपूर की तरह होता है कि जो गुरु रूपी अग्नि के संपर्क मे आकर अग्नि ही हो जाता है।उसी मे विलीन हो जाता है गुरू तत्व मे लय हो जाता है।

यानि एक ऐसी अवस्था जहाँ गुरु शिष्य दो नही बल्कि एक हो जाते हैं। बाद मे न कपूर बचता है न आग रहती है न कोई गुरु बचा न कोई शिष्य बचा। यह एक परम अवस्था है। यही गुरु से एकात्मा है अर्थात जब तक अग्नि ने कपूर को पकड़ा नही तब तक कपूर अलग दिखता है । जैसे ही कपूर अग्नि के संपर्क मे आता है। दो का भाव समाप्त हो जाता है। वहाँ एक और एक ही रह जाता है। ऐसे ही जब तक शिष्य के प्रति पूर्ण समर्पित नही रहता तब तक उसमे द्वैत का भाव बना रहता है।

गुरु शिष्य से अलग होकर उसे ज्ञान देकर उसकी पात्रता बढ़ाते रहते हैं। और तब तक बढ़ाते हैं जब तक वह कपूर जैसा बनकर विलीन होने को तैयार नही हो जाता। अपने अलग होने का भाव छोड़कर तैयार नही हो जाता।

शिष्य जब मिटने के लिए मुक्त होने के लिए तैयार हो जाता है। तब गुरु उसे पकड़ लेते हैं। वर्ना तब तक तो दुर से ही बात होती है फिर चाहे वह शिष्य गुरु के पास वर्षो तक क्यो न रहे और घंटो तक बात क्यो न होती रहे। तब तक तो दुर से ही बात हो रही है ।

उसने सोचा न था, गुरु से किए कपट का इतना भयानक दंड भी हो सकता है…


गुरू भक्ति योग के निरन्तर अभ्यास के द्वारा मन की चंचल वृत्ति को निर्मूल करो। सच्चा साधक गुरु भक्ति योग के अभ्यास मे लालायित रहता है। गुरु की सेवा और गुरु के ही विचारो से दुनिया विषयक विचारो को दूर रखो। अपने गुरु से ऐसी शिकायत नही करना कि आपके अधिक काम के कारण साधना के लिए समय नही बचता। नींद तथा गपशप लगाने के समय मे कटौती करो। और कम खाओ तो आपको साधना के लिए काफी समय मिलेगा।

आचार्य की सेवा ही सर्वोच्च साधना है। जीवन थोड़ा है मृत्यु कब आएगी निश्चित नही है अतः गंभीरता से गुरु सेवा मे लग जाओ। अध्यात्मिक मार्ग तेज धार वाली तलवार का मार्ग है। जिनको इस मार्ग का अनुभव है ऐसे गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है।

महाराष्ट्र के आपे नामक गांव मे संत ज्ञानेश्वर के पूर्वज ब्राह्मण जाति की पीढ़ीयो से पटवारी थे। उनके पिता विट्ठल पंत बचपन से ही सात्त्विक प्रवति के थे। जैसे जैसे विट्ठल बड़े होने लगे उनकी अध्यात्म मे रूचि बढ़ती गई। उन्होंने अनेक तीर्थ यात्राएं की जिससे उन्हे साधु संतो सनयासियों की संगति की। तीर्थ यात्रा पूरी करके वे पूणे के पास आलन्दी नामक गांव मे आये। उस समय एक सिध्दोपंत नामक एक सदाचारी ज्ञानी ब्राह्मण वहाँ के पटवारी थे।

वह इस अतिथि के ज्ञान सदाचारी भाव को देखकर प्रभावित हो गये। और उन्होंने अपनी पुत्री रुक्मणी का विवाह विट्ठल पंत से कर दिया। विवाह के पश्चात लम्बे समय तक विट्ठल को संतति प्राप्त न हो सकी। कुछ वर्षो के बाद विट्ठल के माता-पिता का देहांत हो गया। और अब परिवार की पूरी जिम्मेदारी विट्ठल के कंधो पर आ गयी। मगर परिवार के रहने के बावजूद भी विट्ठल का मन सांसारिक बातो मे नही लगता था उनका अधिकांश समय ईश्वर स्तुति मे ही गुजरता।

सिध्दोपंत ने यह जान लिया कि उनके दामाद का झुकाव दुनियादारी मे न होकर अध्यात्म मे है। इसलिए वो विट्ठल और रुक्मणी दोनो को अपने साथ आलन्दी ले आये। विट्ठल अब सन्यास गृहण कर वैवाहिक जीवन के बंधन से मुक्त होना चाहते थे। मगर इसके लिए पत्नी की सहमति जरूरी थी। उन्होंने रुक्मणी से सन्यास लेने के लिए अनुमति मांगना शुरू किया। रुक्मणी के कई बार मना करने और समझाने के बावजूद भी विट्ठल पंत बार बार उनसे अनुमति मांगते रहे ।

एक दिन तंग आकर रुक्मणी ने क्रोध मे कह दिया जाओ चले जाओ। विट्ठल तो सन्यास गृहण करने के लिए तो उतावले थे ही। इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी के इन क्रोध पूर्ण शब्दो को ही उनकी अनुमति मान लिया। और तुरंत ही काशी की ओर रवाना हो गए। काशी मे उन्होंने महागुरू (यहाँ महागुरू रामानंद स्वामी को कह रहे है।) के पास जाकर उनसे आग्रह किया वे उन्हे सन्यास दीक्षा दें। यहाँ तक कि उन्होंने महागुरू से झूठ बोल दिया कि वे अकेले हैं और उनका कोई घर परिवार नही है क्योंकि उस समय किसी संसारी को सन्यासी बनाने की प्रथा नही थी।

महागुरू ने विट्ठल को अकेला जान अपना शिष्य बनाकर सन्यास की दीक्षा दी । अब यहाँ पर प्रश्न रहता है कि किसी बात की पात्रता पाने के लिए कपट करना जरूरी है, आवश्यक है! उस समय के समाज मे एक व्यक्ति के सन्यासी बनने की पात्रता थी कि उसका ग्रहस्थ न होना और यदि कोई ग्रहस्थ व्यक्ति सन्यास की दीक्षा लेना भी चाहता हो तो इस निर्णय मे पत्नी की पूरी सहमति होनी आवश्यक थी। और विट्ठल पंत इन दोनो की पात्रता पर खरे नही उतरे थे। उनकी पत्नी ने उन्हे सही मायने मे सन्यासी बनने की अनुमति नही दी थी। वे सिर्फ क्रोध मे निकले बोल थे जो सच्चे नही थे।

दरअसल विट्ठल पंत अपनी इच्छा पूरी करने के लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के मुंह से वही सुना जो वे सुनना चाहते थे। वह नही जो रुक्मणी कहना चाहती थी।

यहाँ हमारा उद्देश्य भक्त हृदय विट्ठल पंत की आलोचना करना नही बल्कि मानव मात्र को समझना है कि वह कैसे अपना मनचाहा पाने के लिए उसकी पात्रता को एक तरफ रखकर अपनी चलाता है। और कपट करने से भी नही चुकता उसके कान वही सुनते है जो उसकी इच्छा पूर्ति मे सहायक हो। उसकी आंखो को वही दिखाई देता है जो वह देखना चाहता है। विट्ठल पंत सन्यास लेने की बाहरी पात्रता पर खरे नहीं उतरे थे। जब कि आंतरिक प्यास के अनुसार वे एक योग्य साधक थे। उन्होंने कपट किया लेकिन उनके भाव शुद्ध थे। वे भक्त थे । सन्यास लेकर सत्य प्राप्त करना चाहते थे । मगर सत्य और कपट दोनो विपरीत बातें हैं।

जिस तरह व्यक्ति के अच्छे कर्मो का फल आता है वैसे ही बुरे कर्मो का फल आता है। विट्ठल पंत की भक्ति का फल उन्हे मिला। उन्हे चार आत्मसाक्षात्कारी संतानो के मिलने का गौरव प्राप्त हुआ। ऐसी विलक्षण संतानो मे ज्ञान और भक्ति के बीज रोपने का अवसर मिला। जिसके बारे मे आगे हम जानेगे। मनुष्य अपने लाभ के लिए जाने अनजाने कपट करता है। सेवा मे अथवा आफिस मे पहुंचने मे देर हो गई तो फटाफट कोई झूठ बहाना गढ़ दिया। किसी दुसरे के कार्य का क्रेडिट खुद ले लिया। यह कपट कहाता है। यदि व्यक्ति अपने पूरे दिन की गतिविधियो पर कपट मुक्त होकर मनन करे तो उसे पता चलेगा कि वह दिनभर मे कितना कपट करता है। दुसरो के साथ भी और खुद के साथ भी । खुद के साथ इस तरह किया वह अपनी गलतीयो को छिपाने के लिए स्वयं से ही झूठ बोलता है मगर क्या आप जानते है कि सबसे बड़ा कपट कौन सा होता है।

वह कपट जो उच्च चेतना के साथ किया जाता है। किसी सच्चे अच्छे व्यक्ति के साथ किया जाता है । फलतः जितनी ऊंची सामने वाले की चेतना कपट भी उतना ही बड़ा आता है सबसे उच्च चेतना तो सद्गुरु की होती है ।
इसलिए सद्गुरु के साथ किया गया कपट सबसे बड़ा कपट माना गया है इसलिए इसे महाकपट कहा गया है। और विट्ठल पंत से यही महाकपट हुआ। उन्होंने अपने महागुरू से अपने सद्गुरु से अपने विवाहित होने की बात छिपाई। इस महाकपट का प्रायश्चित आगे चलकर उन्हे अपने प्राण देकर करना पड़ा। हमारे पूर्वज संतों ने इसी बात को अनेक पौराणिक कथाओ के माध्यम से समझाया है।

महाभारत की कथा का पात्र कर्ण, अर्जुन की तरह एक महान योद्धा था। मगर उसने अपने गुरु परशुराम से शास्त्र विद्या सिखने के लिए कपट किया। और अपना छिलाया उसे इस महाकपट का फल एक श्राप के रूप मे मिला कि जिस दिन इसे इस विद्या की सबसे अधिक जरूरत होगी उसी दिन यह विद्या उसके काम नही आएगी।

श्री कृष्ण उच्चतम चेतना के स्वामी थे उनके गुरुकुल के सहपाठी मित्र सुदामा धर्म परायण और संतोषी स्वभाव के थे। मगर एक बार सुदामा ने भूख के वश होकर श्री कृष्ण से कपट किया था। उन्होंने अपने बाल सखा के हिस्से के चने उनसे झुठ बोलकर खा लिये थे। कथा के अनुसार श्री कृष्ण जैसे उच्च चेतना के संग कपट करने का परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर सुदामा को अपने दिन बड़ी गरीबी और अभाव मे गुजारने पड़े। उनकी गरीबी तब दुर हुई जब उन्होंने अपनी समस्त सम्पति जो कि कुछ मुठ्ठी चावल थे। उन्होंने श्री कृष्ण को अर्पण कर दिये थे।

जिस तरह डाक्टर से रोग छिपाकर या बढ़ा चढ़ाकर बताने से रोगी का ही नुकसान होता है।
ठीक ऐसे ही सद्गुरु से कपट करना साधक की अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर है इसलिए स्वयं को ही नुकसान से बचाने के लिए साधक को यह प्रण अवश्य करना चाहिए। कम से कम खुद से और गुरु से कपट न हो। कपट करके कुछ मिल भी गया तो क्या लाभ? क्योंकि वह जीवन को पतित कर देगा।

यदि साधक कपट कर रहा है तो इसका अर्थ यह है कि वह ज्ञान लेने का पात्र ही नही बना। अपनी कमियाँ छिपाने के लिए गुरु को चार बाते छिपाकर बताना यह अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए चार बाते बढ़ाकर बताने की जरूरत ही नही है। क्योंकि गुरु सर्वज्ञ है।

एक बात और गुरु यह आपसे आशा कभी नही रखते कि आप परफेक्ट बनकर उनके सामने आएं। यदि आप परफेक्ट होते तो आवश्यकता ही क्या रहती। गुरु मानव की कमजोरियां, चालाकियाँअच्छी तरह समझते हैं आपके मन के नाटक को वे अपना नाटक नही समझते बल्कि मन का नाटक समझते हैं और गुरु इसी मन को साधना सिखाते हैं इसी मन को कपट मुक्त करना चाहते हैं इसलिए गुरु के आगे गलतियाँ छिपाना व्यर्थ है वे आपको वही जानकर दिखते है जो आप वास्तव मे घटनाओ से घिरकर सम्भलकर गल्तीया करके और उन्हे सुधारकर ही परफेक्ट अवस्था की ओर साधक बढ़ता जाता है। इसलिए कपट की कोई आवश्यकता ही नही। जो है जैसा है उसे स्वीकार करे। और सब सीखकर आगे बढ़े। शायद हम सभी से हमारे गुरुदेव भी यही आशा रखते हैं!