वह बालक वन में भटक चुका था, सामने थी अंजना गुफा….

वह बालक वन में भटक चुका था, सामने थी अंजना गुफा….


गुरू के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए। गुरु सेवा के लिए पूरे हृदय की इच्छा ही गुरू भक्ति का सार है। शरीर या चमड़ी का प्रेम वासना कहलाती है। जब कि गुरु के प्रति प्रेम भक्ति कहलाता है। ऐसा प्रेम! प्रेम के खातिर होता है गुरू के प्रति भक्ति भाव, ईश्वर के प्रति भक्ति भाव का माध्यम है। गुरु की सेवा आपके जीवन का एकमात्र लक्ष्य और ध्येय होना चाहिए।

संत ज्ञानेश्वर और उनके परिवार को समाज द्वारा दु:ख दिये जाने की बहुत सी कथाए इतिहास मे प्रचलित हैं। जिनमे बताया गया है कि उन्हे कैसे कैसे दु:ख मिले। फिर भी वह सत्य के मार्ग से नही हटे। बल्कि सत्य पर विश्वास रखकर अपनी साधना जारी रखी। उन्होंने अपने परिवार के भीतर ही दुख मे भी सुख खोज लिया। यह कहानियाँ हम इंसान को प्रेरणा देती है कि दुःखों मे खुश कैसे रहा जा सकता है कैसे सत्य की ताकत से दुःखों की ताकत को कम किया जा सकता है। व्यक्ति मे जिस चीज को पाने की पात्रता होती है वह उस तक पहुंच ही जाती है। जब शिष्य की पात्रता तैयार हो जाती है तब गुरु को आना ही पड़ता है।

विट्ठल और रुक्मणी की परवरिश में चारो बच्चो की भी अंतिम सत्य पाने की पात्रता बढ़ती गयी। विशेषकर निवृत्तिनाथ का ज्ञान उनके संवाद और उनके भीतर संतो के गुण देखकर विट्ठल और रुक्मणी बहुत खुश होते थे। सात से आठ वर्ष की उम्र मे निवृत्ति ज्ञान ग्रहण करने के लिए पूर्ण रूप से पात्र हो चुके थे।

एक रात जब पूरा परिवार तीर्थ यात्रा पर जा रहा था तब निवृत्ति गलती से जंगल मे रास्ता भटककर अपने परिवार से अलग हो गये। वे तुरंत जंगल से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ रहे थे। भागते-भागते निवृत्तिनाथ अंजनी पर्वत पर स्थित एक गुफा के नजदीक पहुंचे और सुरक्षा के लिए उस गुफा के अंदर चले गये। अंदर जाते ही उन्हे देखा कि सामने एक योगी अपने दो शिष्यो के साथ ध्यान मे लीन होकर बैठे हुए हैं।

यह योगीनाथ सम्प्रदाय के गुरु गहनीनाथ थे। गहनीनाथ ने निवृत्ति को देखते ही उनकी प्रतिभा और तेज को पहचान लिया। उन्होंने निवृत्तिनाथ को अपना परिचय दिया गहनीनाथ जैसे महान योगी का परिचय पाकर निवृत्तिनाथ प्रसन्न हुए मानो एक शिष्य अपने गुरु को और गुरु अपने शिष्य को पाने हेतु आतुर थे। गहनीनाथ ने उन्हे अपना शिष्य बना लिया। और उन्हे ज्ञान एवं योगमार्ग की शिक्षा दी थी तभी से निवृत्त निवृत्तिनाथ कहलाने लगे।

जो शिष्य वाकई पात्र होता है उसके लिए गुरु का एक मंत्र या एक वचन या एक प्रवचन ही आत्मबोध पाने के लिए काफी होता है। निवृत्तिनाथ भले ही नौ से दस वर्ष के थे लेकिन उनकी तैयारी इतनी थी कि गुरु से पहली मुलाकात और उनका पहला उपदेश ही उनकी सत्य प्राप्ति के लिए काफी था।

निवृत्तिनाथ अगले सात दिनो तक गुरु के सान्निध्य मे ही रहकर शिक्षा प्राप्त करते रहे अंत मे उन्होंने अंतिम सत्य पाकर स्वअनुभव प्राप्त किया। सत्य प्राप्त करने के बाद निवृत्तिनाथ गुरु से आज्ञा लेकर वापस अपने माता-पिता के पास चले गए।

जब उन्होंने देखा कि छोटा भाई ज्ञानदेव भी अंतिम सत्य पाने की पात्रता तैयार कर चुका है तो उन्होंने ज्ञानदेव को भी दीक्षित किया। ज्ञानदेव ने भी अल्प आयु मे ही योग मे निपुणता प्राप्त कर ली और अद्वैत का गहरा अर्थ समझ लिया और आगे चलकर ज्ञानदेव ही संत ज्ञानेश्वर के नाम से विख्यात हुए।

संत ज्ञानेश्वर ने हर स्थान पर अपने गुरु की स्तुति की है। आगे चलकर तो उन्होंने अमृतानुभव नामक ग्रंथ मे गुरु की अपार स्तुति गायी है। उन्होंने उसमे कहा कि “ज्ञान गूढ़ गम्य ज्ञानदेव लाभले।
निवृत्ति ने दिलो माझिया हाति।।”
इसका अर्थ है कि जो मुझे ज्ञान का गूढ रहस्य मिला वह निवृत्ति ने ही दिया है यही उपदेश निवृत्ति नाथ ने सोपानदेव और मुक्ता बाई को भी दिया।

इस तरह बहुत ही छोटी आयु मे चारो को सद्गुरु की प्राप्ति हुई और अपनी उच्च पात्रता के चलते ये चारो ही सत्य मे स्थापित हो गये। महापुरुषों की यही विशेषता होती है कि जब वे जनकल्याण के लिए इस अवनि पर अवतरित होते हैं वो बड़े ही अल्पकाल मे ज्ञाननिष्ठ हो जाते हैं।

जैसे हमारे पूज्य बापूजी बहुत ही अल्पकाल में अपने गुरुदेव पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज को आत्मसात कर गये हम सभी जानते हैं कि बहुत ही कम अवधि बीती हमारे बापूजी की अपने गुरु चरणो मे।

बापूजी का मात्र जाना ही हुआ बृजेश्वरी में और घटना घट गयी। श्री आशारामयणजी की कई पंक्तियाँ हमारे पूज्य बापूजी की बाल्यकाल मे ही तैयारियो को दर्शाती हैं। जैसे बापूजी का आगमन तीन बहनो के बाद हुआ फिर भी लोकमान्यताओ के विपरीत घर मे मंगल और समृद्धि की वृद्धि हुई जब कि लिखा है कुबेर ने भंडार ही खोला। कुलगुरू परशुराम जी की भविष्यवाणी कि यह तो महान संत बनेगा।

इस काल मे तो गुरुदेव अपनी माता की गोद मे थे। तभी कुलगुरू ने भविष्यवाणी कर दी थी। बाल्यकाल मे ही हमारे नन्हे बापूजी को अपनी मां के द्वारा ध्यान सिखाया गया तो फिर
“ध्यान का स्वाद लगा तब ऐसे कि रहे न मछली जल बिन जैसे”।
फिर वही आगे की पंक्ति दिखाती है हमे कि
“हुए ब्रह्म विद्या से युक्त वे” यह सब गुरुदेव की पूर्व तैयारी को दर्शाती है। बाल्यकाल मे ही दैवी लक्षणो को दर्शाती है। फिर तो मात्र गुरुदेव का अपने गुरुदेव से मिलन हुआ और गुरुगुरुत्व की पूर्णता प्राप्त हो गयी।

यहाँ पर दस बारह साल का लड़का महान योगी है जो निवृत्तिनाथ जो आठ साल की उम्र के अन्य बच्चो को भी दीक्षित कर रहा है। इस उम्र मे बच्चो से उम्मीद भी नही की जा सकती है कि वे ऐसा ज्ञान सुनकर उसे समझ पाएं। मगर ऐसा हुआ महापुरुषो के जीवन मे ऐसा देखा गया ऐसे विलक्षण बच्चो को देखते हुए कहा जा सकता है कि मुर्ति महान पड़ कीर्ति महान। यानी कि छवि, उम्र और बड़ी कीर्ति बच्चे भी ऐसा ले पाये। इसके लिए भी जरूरी है कि उनके माता-पिता उस ज्ञान को अपने जीवन मे जीएं।

हम सभी के सच्चे मात पिता हमारे गुरुदेव ही हैं। फिर चाहे हम आश्रम वासी हों या गृहस्थ हों। और हम सभी के गुरु रूपी माता-पिता तो सदैव ज्ञान मे जीते हैं। सत्य मे जीते हैं। और बच्चे अपने माता-पिता का ही अनुसरण करते हैं।
जैसा उन्हे देखते हैं। तो हमारी निष्ठा मे और भक्ति मे यदि कमी है तो शायद हमारी दृष्टि हमारे माता पिता अर्थात हमारे गुरुदेव पर न होकर कहीं और है।

उन चारो ने अपने माता-पिता को कठिन परिस्थितियो मे भी ज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलते हुए पाया। इसलिए उन्होंने सीखा कि जीवन जीने का यही तरीका है। जो आगे चलकर उनकी अभिव्यक्ति मे काम आया। साथ ही साथ उनके ज्ञान पाने की पात्रता भी तैयार है। संत ज्ञानेश्वर ने अपनी रचनाओ मे अपने गुरु निवृत्ति नाथ का बड़ा गुणगान किया हालांकि वे उनके भाई थे। और बस उनसे दो साल बड़े थे। उन्होंने गुरु के महत्व को उनके स्थान को जरा भी कम न आंका उन्होंने गुरु की प्रशंसा करते हुए लोगो से कहा कि तुम उन्हे मात्र निवृत्ति मत समझो। मेरे गुरुदेव वृत्ति और निवृत्ति दोनो से परे हैं।

मेरे गुरुदेव प्रवृति हैं मेरे गुरुदेव हर अवस्था से पार हैं। उन्हे बंधनो से मुक्त भी मत कहो क्योंकि मेरे गुरुदेव बंधन और मुक्ति दोनो से पार हैं।

संत ज्ञानेश्वर शिष्य की विशेषता बताते हुए आगे कहते हैं कि सच्चा शिष्य कपूर की तरह होता है कपूर ऐसा पदार्थ होता है कि जो अग्नि के संपर्क मे आकर जल जाता है ।
और धुआँ बनकर उड़ जाता है। जलने के बाद उसका कोई अवशेष भी नही रहता वे कहते हैं कि सच्चा शिष्य कपूर की तरह होता है कि जो गुरु रूपी अग्नि के संपर्क मे आकर अग्नि ही हो जाता है।उसी मे विलीन हो जाता है गुरू तत्व मे लय हो जाता है।

यानि एक ऐसी अवस्था जहाँ गुरु शिष्य दो नही बल्कि एक हो जाते हैं। बाद मे न कपूर बचता है न आग रहती है न कोई गुरु बचा न कोई शिष्य बचा। यह एक परम अवस्था है। यही गुरु से एकात्मा है अर्थात जब तक अग्नि ने कपूर को पकड़ा नही तब तक कपूर अलग दिखता है । जैसे ही कपूर अग्नि के संपर्क मे आता है। दो का भाव समाप्त हो जाता है। वहाँ एक और एक ही रह जाता है। ऐसे ही जब तक शिष्य के प्रति पूर्ण समर्पित नही रहता तब तक उसमे द्वैत का भाव बना रहता है।

गुरु शिष्य से अलग होकर उसे ज्ञान देकर उसकी पात्रता बढ़ाते रहते हैं। और तब तक बढ़ाते हैं जब तक वह कपूर जैसा बनकर विलीन होने को तैयार नही हो जाता। अपने अलग होने का भाव छोड़कर तैयार नही हो जाता।

शिष्य जब मिटने के लिए मुक्त होने के लिए तैयार हो जाता है। तब गुरु उसे पकड़ लेते हैं। वर्ना तब तक तो दुर से ही बात होती है फिर चाहे वह शिष्य गुरु के पास वर्षो तक क्यो न रहे और घंटो तक बात क्यो न होती रहे। तब तक तो दुर से ही बात हो रही है ।

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