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इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों के बदल जाने वाला था (भाग-3)


कुछ दिन पूर्व हम सभी ने यह प्रसंग पढा था कि गुरुदेव निवृति नाथ ने माडे खाने की इच्छा व्यक्त की, तब सौपान देव और ज्ञानदेव दोनों गांव में माड़े के लिए सामग्री इकट्ठा करने के लिए गए । जहां पर विसोबा चाटी द्वारा उनको अपमान एवम् तिरस्कार सहना पड़ा और इकट्ठी की हुई सामग्री भी मिट्टी में मिल गई । ज्ञानदेव वापस आकर अपने कुटीर की फाटक का किवाड़ बंद कर लेते हैं,

तब मुक्ताबाई ज्ञानदेव को ताटी अभंग द्वारा मनाती है, समझाती है, गाते-2 मुक्ताबाई स्वयं भाव-विभोर होकर रोने लगती है । तभी एक ब्राह्मण देव गांव से आकर उन्हें आटा दे जाते हैं, परंतु दुविधा यह है कि आटा तो मिल गया परन्तु बर्तन नहीं होता है । अब माड़े कैसे बनाए जाएं गुरुदेव के लिए, जब संत ज्ञानेश्वर ने मुक्ताबाई को रोते हुये देखा तो उन्होंने उनसे कहा कि मुक्ता तुम माड़े बनाने की तैयारी करो, बर्तन की व्यवस्था मैं कर दूंगा ।

मुक्ताबाई यह सुनकर बहुत खुश हो गई और तैयारी करने लगी, उधर संत ज्ञानेश्वर ने योगसिद्धि से अपनी पीठ को तवे की तरह तपा लिया और मुक्ताबाई से कहा तुम मेरी पीठ पर माड़े सेक लो । मुक्ताबाई ने ऐसा ही किया और बर्तन के बिना माड़े तैयार हो गये, जब गुरुदेव निवृति नाथ ने ज्ञानेश्वर को योग विद्या का प्रयोग करते देखा तो उन्हें समझाया कि योग विद्या एक महान विद्या है।

जिसका असली उद्देश्य मात्र ईश्वर प्राप्ति है, लोक कल्याण है उसे भूख, प्यास जैसी शारीरिक इच्छाओं और स्वार्थपूर्ति के लिए कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए । ज्ञानदेव ने निवृतिनाथ जी की बात को गांठ बांध ली और फिर उन्होंने कभी अपनी योग विद्या का प्रयोग निजी कारणों के लिए नहीं किया । मुक्ताबाई ने अपने भाइयों को बड़े प्रेम से माड़े खिलाये, लेकिन जब उसके खाने की बारी आई तो उसकी थाली से एक काला कुता माड़े उठाकर भाग गया ।

मुक्ता भूखी ही रह गई, मगर फिर भी प्रसन्नचित, तभी गुरुदेव ने कहा अरे मुक्ता वह कुत्ता तेरा खाना उठाकर ले गया, तूने उसे डांटकर भगाया भी नहीं, ऊपर से तू खुश भी है, इस पर मुक्ता बोली किसे डराऊं, गुरुदेव विट्ठल स्वयं मेरे बनाये माड़े लेकर गये हैं, उनको मेरे बनाये माड़े इतने अच्छे लगे कि वे कुत्ते का रूप धर कर उसे खाने आ गये, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात और क्या होगी ।

मुक्ता का जवाब सुनकर गुरुदेव निवृतिनाथ मुस्कुरा उठे, आखिर गुरू उसके भावों की परीक्षा ही तो ले रहे थे । मुक्ता की बात सुनकर संत ज्ञानेश्वर बोले मुक्ता चल मान लिया, तेरा खाना उठाकर भागने वाला विट्ठल है मगर हमें इतना तंग करने वाला विसोबा कौन है मुक्ता बोली विसोबा भी विट्ठल ही है विट्ठल के हर शरीर में अलग-2 मानव स्वभाव हैं मगर उन सभी शरीरों के अंदर चेतना तो एक ही विराजमान है गुरुदेव , गुरुदेव मुझे तो विसोबा में भी विट्ठल के ही दर्शन होते हैं ।

बाहर खड़ा विसोबा झोंपड़ी की दरार से यह सारा दृश्य देख रहा था, वह पहले ही संत ज्ञानेश्वर के योग द्वारा पीठ को तपाने का चमत्कार देखकर आश्चर्यचकित, ऊपर से मुक्ता की बातें सुनकर उसका अहंकार पूरी तरह पिघलने लगा । उसे पहली बार अहसास हुआ कि वास्तव में ये कोई साधारण बच्चे नहीं बल्कि ज्ञान, योग और भक्ति की प्रतिमूर्ति हैं, इनका ज्ञान मेरी तरह किताबी नहीं है बल्कि इनके जीवन में उतर चुका है विसोबा को अपनी कुबुद्धि पर बड़ा पश्चाताप होने लगा ।

वह सोचने लगा कि मैंने ऐसे दिव्य बच्चों को सताने का पाप किया है अब इसका प्रायश्चित कैसे करूं, कैसे अपने पाप कर्मों की क्षमा मांगू । पश्चाताप के आंसू बहाता विसोबा उनकी झोंपड़ी के अंदर आया और संत के चरण पकड़ कर अपने कृत्यों के लिए क्षमा मांगने लगा । उसका अहंकार पूरी तरह से चारों बच्चों के चरणों में समर्पित हो गया, विसोबा संत ज्ञानेश्वर से उसे अपनी शरण में लेने का अनुरोध करने लगा ।

विसोबा का पश्चाताप देखकर सबने उसे क्षमा कर दिया । आगे चलकर निवृतिनाथ ने उन्हें उपदेश दिये और मुक्ताबाई विसोबा की गुरू हुईं । संत संतानों के बताए वास्तविक धर्म के मार्ग पर चलते-2 विसोबा ज्ञान और भक्ति में डूब गये । उनकी चेतना इतनी उच्च हो गई कि आगे चलकर वे संत विसोबा खेचर कहलाए गए । उन्होंने महाविष्णु-चा-अवतार, श्री गुरूमाझा-चा-ज्ञानेश्वर जैसे अभंग भी बनाकर गाये, इस कहानी में आयी तीन महत्वपूर्ण बातें अध्यात्मिक दृष्टि से मनन करने योग्य हैं,

पहली कि संसार में उपस्थित हर इंसान, जीव, वनस्पति और वस्तु में मूल रूप से उसी एकमय को देखना । दूसरी बात कि कभी भी अपनी शक्ति का स्वार्थ के लिए प्रयोग ना करना और तीसरी बात कि हमसे नफरत करने वाले, बुरा बर्ताव करने वाले को भी क्षमा करना, उसे भी भक्ति-युक्त प्रतिसाद देना । निवृतिनाथ परम सिद्ध योगी थे, उन्होंने अभावों को सहना मंजूर किया, मगर अपनी सिद्धियों का कभी भी स्वार्थपूर्ति के लिए दुरूपयोग नहीं किया ।

उन्होंने संत ज्ञानेश्वर के साथ-2 संसार को भी कितनी बड़ी शिक्षा दी कि शक्ति का प्रयोग भक्ति बढ़ाने के लिए हो, जन-कल्याण के लिए हो, स्वार्थपूर्ति और व्यक्तिगत महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए न हो वरना लोग जरा सी शक्ति पाकर उसका दुरूपयोग करने लगते हैं, अपने लाभ के लिए तो बहुत छोटी बात है मगर वे उनका दूसरों के नुकसान के लिए भी प्रयोग कर डालते हैं ।

शक्ति मिलने पर लोग अहंकारी, स्वार्थी और असहनशील भी हो जाते हैं जबकि ज्ञान और शक्ति का प्रयोग सत्यप्राप्ति एवम् लोक-कल्याण के लिए ही होना चाहिए । संत ज्ञानेश्वर और उनके छोटे संघ ने सदैव ऐसा ही किया और लोगों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा दी । यहां पर देखा जाए तो दोनों ही सदगुरु और संसार, दोनों ही अपने सिद्धांतों से एक-दूसरे के विपरीत हैं जहां सदगुरु का सिद्धांत स्व से पर कल्याण है वहीं संसार का सिद्धांत पर से स्वार्थ की पूर्ति है ।

प्रबुद्ध ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु कभी भी चमत्कार दिखाकर या योगसिद्धि का प्रयोग कर लोगों को आकर्षित या भ्रमित नहीं करते, परन्तु यहीं संसार की धारणा क्या है कि वह चमत्कार को ही नमस्कार करना चाहती है हम अपने ही प्यारे गुरुदेव के जीवन पर दृष्टि डालें तो हम सभी ने देखा है कि पूज्यश्री शक्तियों के स्वामी होते हुए भी उन्होंने कभी भी उनका प्रदर्शन किसी को प्रभावित करने के लिए नहीं किया।

अपितु हम सभी साधकों के कल्याण के लिए ही किया है फिर चाहें वो ध्यानयोग शिविर में एक-साथ लाखों लोगों को उस महामाया की अधरामृत चखाने के लिए किया हो या फिर हम प्रत्येक साधक को संरक्षित करने के लिए किया हो । ऋद्धि-सिद्धि उसकी दासी, यदि वह संकल्प चलाए मुर्दा भी जीवित हो जाए, मृत गाय दिया जीवन दाना, सबका योग क्षेम वे रखते यह सभी बातें बापूजी के जीवन में मात्र परहित के लिए हैं,

यह हमारे पूज्य पुराण पुरुष हमारे गुरुदेव इन सिद्धियों का उपयोग तो स्व के लिए करने से भी परहेज रखते हैं क्यूं ! क्योंकि मेरे बापू का हृदय ही ऐसा है कि उन्होंने अपना सर्वस्व हमें ही समर्पित कर रखा है, उनके पास जो कुछ है वह सब उन्होंने हम साधकों को दे रखा है, हम साधकों के लिए सुरक्षित कर रखा है ।

कैसा अनौखा समर्पण होता है सदगुरु का अपने शिष्यों के लिए, कई बार हम सभी ने सुना है, पढ़ा भी है कि जैसे नाई अपने बाल स्वयं नहीं काटता, डॉक्टर अपना इलाज स्वयं नहीं करता वकील अपना केस स्वयं नहीं लड़ता, वैसे ही मैं भी अपने प्यारे साधकों के संकल्प से ही बाहर आऊंगा । इस वाक्य में स्वार्थ की दूषित गंध नहीं, परहित की पोषित सुगंध है । कहां तो समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी परन्तु आज अपने जीवन से पूज्य श्री हम सभी को यह सीख दिए जा रहे हैं कि औरों के लिए जियो सबके लिए जियो और अपने जीवन को सार्थक करो ।

बड़ा ही सुन्दर सूत्र है कि सबका मंगल सबका भला ।

इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों का बदल जाने वाला था (भाग-2)


कल हमने सुना कि साधु स्वभाव के माता-पिता के देहांत के बाद संत ज्ञानेश्वर के मन में कई सवाल उठने लगे, तब उनके गुरुदेव श्री निवृतिनाथ ने उन्हें प्रेरित किया कि यह दोष समाज का नहीं समाज की अज्ञानता का है । समाज को अज्ञानता और कुरीतियों से मुक्त करना है, तो उन्हें उन्हीं की सरल भाषा सीख अर्थात शास्त्र ज्ञान देना होगा । विट्ठल और रुक्मणि के देहांत प्रायश्चित के बाद भी समाज चारों बच्चों को किसी भी तरह का सहयोग करने के लिए तैयार नहीं था ।

जिस शुद्धिकरण और जनेऊ-संस्कार के लिये उनके माता-पिता ने अपना जीवन त्याग दिया, निवृति नाथ को उसकी जरूरत ही नहीं महसूस होती थी । वह अपने अनुभवों से यह स्पष्ट देख पा रहे थे कि वह तो पहले से ही शुद्ध हैं और उन्हें किसी के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता ही नहीं, लेकिन सभी की सोच थी कि इस शुद्धि-पत्र से ही वे चारों इस समाज में लोगों के साथ मिलकर लोक-कल्याण का कार्य कर पायेंगे । निवृतिनाथ ने नियति की इच्छा पूरी करने हेतु आलंदी के ब्राह्मणों के पास जाकर उनसे शुद्धि-पत्र देने के लिए अनुरोध किया ।

ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि शास्त्रों से आगे जाकर हम कोई भी निर्णय नहीं दे सकते, क्योंकि यह हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है लेकिन पैठण की धर्म-पीठ के पास यह अधिकार है वहां धर्म से संबंधित गलत आचरण पर विचार करके उस पर स्वतंत्र निर्णय दिया जा सकता है, अतः तुम पैठण जाकर वहां के धर्म-पीठ से शुद्धि-पत्र के लिए अनुरोध करो । ब्राह्मणों के इस सुझाव को स्वीकार करते हुये ज्ञानदेव और निवृतिनाथ ने उनसे निवेदन पत्र लिया और पैठण की ओर रवाना हो गये ।

जब चारों भाई-बहन वहां पहुंचे तो जो धर्म संकट आलंदी के ब्राह्मणों के सामने आया था, वही पैठण की धर्म-पीठ के सामने भी आकर खड़ा हो गया । उन्होंने भी इस विषय पर काफी चर्चा की, अंत में निर्णय हुआ, क्योंकि यह चारों बच्चे बड़े तेजस्वी और ज्ञानी हैं एवम् इनके माता-पिता देहांत प्रायश्चित भी कर चुके हैं, अतः इनसे कुछ प्रतिज्ञायें करवाकर इन्हें ब्राह्मण समाज में शामिल कर लिया जाये । धर्म-पीठ ने बच्चों से कुछ प्रतिज्ञायें करने के लिये कहा, जैसे वे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलेंगे आदि-2 ।

इन प्रतिज्ञाओं को बच्चों ने सहर्ष मंजूर कर लिया, प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे समाज के जातिवाद के नियमों का सम्मान करेंगे । ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य किसी को भी वेद-शास्त्र आदि ज्ञान नहीं सिखायेंगे, मगर संत ज्ञानेश्वर को यह प्रतिज्ञा मंजूर नहीं थी, इसी बात पर उनकी अन्य ब्राह्मणों से बहस हो गई । संत ज्ञानेश्वर का कहना था कि प्रत्येक जीव में उसी गुरूतत्व, उसी परम-चैतन्य ईश्वर का वास है, सभी समान हैं इंसानों में तो भेद की बात छोड़िये, जानवर एवम् किसी अन्य जीव में भी कोई भेद नहीं है ।

यह बात सुनकर वहां उपस्थित सभी ब्राह्मण आग-बबूला हो गये और उनका घोर विरोध करने लगे, तभी वहां से एक भैंसा जा रहा था ब्राह्मणों ने संत ज्ञानेश्वर को चुनौती दी कि यदि इस भैंसे की और तेरी आत्मा एक ही है तो इससे भी अपनी तरह बुलवा कर दिखा ।

इस पर संत ज्ञानेश्वर ने चुनौती को स्वीकार करते हुए भैंसे के आगे वेद-मंत्र बोलने शुरू किये, सबकी आंखें उस समय खुली की खुली रह गईं, जब भैंसे ने भी उन मंत्रों को दोहराना शुरू कर दिया ।

यह चमत्कार देखकर वहां उपस्थित सभी लोग बालक ज्ञानदेव के आगे नतमस्तक हो गये । कुछ जगहों पर यह कथा भी सुनने को मिलती है कि उस भैंसे को चाबुक से मारा गया और उसके निशान संत ज्ञानेश्वर के शरीर पर दिखाई दिये । इस घटना से सभी ब्राह्मणों का अहंकार चूर-2 हो गया, वहां उपस्थित कई ब्राह्मणों को अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और वे सभी ज्ञानदेव के सामने समर्पित हो गये । इस तरह कुछ ही क्षणों में पूरा माहौल प्रेम और भक्तिभाव से भर गया, इसके बाद सभी ब्राह्मणों ने चारों बच्चों को आसन देकर आदरपूर्वक उन्हें शुद्धि-पत्र भी दिया ।

इस घटना की कीर्ति चारों ओर फैल गई, उन बच्चों को न केवल समाज में मान्यता मिली, बल्कि सम्मान भी मिलने लगा, इसके बाद बालक ज्ञानदेव संत ज्ञानेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गए । संत ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों की कीर्ति हवा से भी तेज गति से फैल रही थी, चारों दिशाओं से कई लोग इन चार विद्वान बालकों को देखने के लिए आ रहे थे । इतनी कम आयु में उनका ज्ञान और विद्वता देखकर सभी बहुत प्रभावित हुये, वे सरल और लोक-भाषा में जन-सामान्य को सत्य का श्रवण करा रहे थे , जिससे हर वर्ग और जाति का इंसान उनसे सहजता से जुड़ पा रहा था ।

हर कोई उनसे एक ही निवेदन कर रहा था कि वे उन्हें कुछ मार्गदर्शन दें, उपदेश दें कि संसार के बंधनों से मुक्ति कैसे संभव है मोक्ष प्राप्ति का मार्ग क्या है, लोग उनके संदेशों को सुनने भी लगे । अपनी बातों से वे ना सिर्फ ज्ञान और भक्ति का प्रचार, प्रसार करने लगे बल्कि समाज में फैले अज्ञान, भेदभाव, गलत मान्यताओं का भी डटकर विरोध करने लगे । इस तरह उन्होंने समाज के जागरण का जो उत्तम लक्ष्य ठाना था उसकी शुरुआत हो चुकी थी ।

यह महापुरुषों की करुणा ही होती है कि पतित समाज में पदार्पण कर वे उन्हें पतितपावन करते हैं, इसलिए स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि जिसने गुरू प्राप्त किये हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमृत्व के द्वार खुलते हैं । जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किये हैं ऐसे गुरू का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है ।

तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरू का संग श्रेष्ठ है, गुरू का सत्संग शिष्य का पुनर्जन्म करने वाला मुख्य तत्व है, वह उसे दिव्य प्रकाश देता है और उसके लिए स्वर्ग के द्वार खोल देता है ।

साधकों को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमृत्व नहीं मिलता, उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरू कृपा से ही प्राप्त हो सकता है केवल बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में एक व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं है उसे वास्तविकता का ज्ञान नहीं है किन्तु जब वह व्यक्ति गुरू के संपर्क में आता है तब उसमें सच्चा ज्ञान, सच्ची शक्ति और सच्चा आनंद प्रकट होता है वे गुरू भी ऐसे हों, जिन्होंने परमात्मा के साथ तादात्मय स्थापित किया हो ।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

इस घटना के बाद अब सब कुछ उन नन्हें योगियों के बदल जाने वाला था (भाग-1)


गुरुभक्तियोग दिव्य सुख के द्वार खोलने के लिए गुरू चाबी है, गुरुभक्तियोग के अभ्यास से सर्वोच्च शांति के राजमार्ग का प्रारम्भ होता है । सदगुरु के पवित्र चरणों में आत्म-समर्पण करना ही गुरुभक्ति की नींव है, गुरू की संपूर्णताः शरणागति लेना गुरुभक्ति की अनिवार्य शर्त है जो गुरू मुक्तात्मा हैं, उनके कार्य को अश्रद्धा से या संदेह से नहीं देखना चाहिए ।

ईश्वर, मनुष्य एवम् ब्रह्माण्ड के विषय में सच्चा ज्ञान गुरू से लिया जाता है । भक्तिमति रुक्मणि और उनके पति विट्ठलपंत दोनों के जीवन में सत्य और भक्ति के अलावा किसी दूसरी चीज का महत्व ना था इसलिए समाज से बाहर निकाले जाने पर उन्हें ज्यादा फर्क नहीं पड़ा । विट्ठलपंत अपनी चारों संतानों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर बहुत प्रसन्न होते थे ।

निवृतिनाथ ने तो गुरू गहनीनाथ द्वारा ईश्वर साक्षात्कार कर लिया था और अब वही ज्ञान ज्ञानदेव को भी दे रहे थे, लेकिन उनकी संतानों को भी उनके कारण सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा था, जिसकी चिंता विट्ठलपंत और रुक्मणि को सता रही थी, इस कारण से बच्चों का जनेऊ-संस्कार यज्ञोपवीत नहीं हो पा रहा था ।

उस समय की मान्यता के अनुसार एक ब्राह्मण के लिए जनेऊ-संस्कार अति आवश्यक कर्म था जैसे एक सैनिक हथियार के बिना अधूरा समझा जाता है, ऐसे ही एक ब्राह्मण जनेऊ-संस्कार के बिना अधूरा समझा जाता था । अपने बच्चों के भविष्य की चिंता करते हुये विट्ठल ने बार-2 ब्राह्मण वर्ग से अनुरोध किया कि वे कम से कम बच्चों के ऊपर से सामाजिक बहिष्कार हटा दें और उनका जनेऊ-संस्कार होने दें, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी ब्राह्मणों का दिल नहीं पिघला ।

उन्होंने हर बार यही जवाब दिया कि शास्त्रों में तुम्हारे अपराध के लिए कोई क्षमा प्रायश्चित ही नहीं है, इसका दंड तो पूरे परिवार को ही भुगतना पड़ेगा । तुम्हारे बच्चे सन्यासी के बच्चे हैं, उनकी हमारे समाज में कोई जगह नहीं, बार-2 ना सुनने पर भी विट्ठलपंत ने अपने प्रयास नहीं छोड़े । एक दिन फिर से वह ब्राह्मण समाज से इसी बारे में याचना कर रहे थे कि क्या किसी प्रकार उनके इस अपराध का प्रायश्चित संभव है इस बार समाज के प्रतिष्ठित, मगर अहंकारी ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि इस कलंक का प्रायश्चित तो बस देहांत प्रायश्चित ही है ।

विट्ठल ने सोचा यदि उन्होंने देहांत प्रायश्चित नहीं किया तो उनकी चारों संतानों का भविष्य अंधकार-मय हो जायेगा, ब्राह्मण उन्हें कभी स्वीकार नहीं करेंगे और उनका जनेऊ-संस्कार नहीं होगा । उनके बच्चों को भी पूरा जीवन बहिष्कृत होकर ना जीना पड़े, इसलिए विट्ठल ने देहांत प्रायश्चित करने का निर्णय ले लिया, उनके इस निर्णय में रुक्मणि भी सहभागी बनी ।

एक रात उन दोनो ने अपनी संतानों को उस असीम परमात्मा के हाथों में सौंप कर नदी में जल-समाधि लेकर अपने प्राण त्याग दिए । देहांत प्रायश्चित के साथ विट्ठल, रुक्मणि की संसार रूपी रंगमंच पर खेली जाने वाली भूमिका पूरी हुई और उन्होंने रंगमंच से विदा ले ली । दोनों ने संत संतानों के अभिभावक की भूमिका पूरी तरह निभाई, उन्होंने अपनी संतानों के साथ जितना समय बिताया, उसमें बहुत बड़ा कार्य संपन्न किया ।

उन्होंने इन महान विभूतियों को जन्म देकर बचपन से ही सच्चे अध्यात्म का सार समझाया और दुख में भी खुश रहने की कला सिखाई । उस समय चारों बच्चों की आयु बड़ी ही छोटी थी, इस आयु में जब बच्चों को मां-बाप की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है वे चारों बच्चे अनाथ हो गए, मगर ऐसा प्रायश्चित करवाकर भी निर्दयी समाज को अनाथ बच्चों पर दया नहीं आयी ।

बच्चों को समाज में सम्मान तो नहीं मिला, उल्टा उनके सिर से अपने मां-बाप का साया भी हट गया । हम कल्पना कर सकते हैं कि वह समय कितने अभाव और कष्टों से गुजारा होगा । अपने संत स्वभाव के माता-पिता के इस तरह अकारण ही देहांत प्रायश्चित करने से बालक ज्ञानदेव के मन में अनेक सवाल खड़े हुए कि आखिर उनकी गलती क्या थी उन्हें किस बात का प्रायश्चित करना पड़ा, इन सवालों को धीरे-2 उनके गुरुदेव श्री निवृति नाथ जी ने सुलझाया ।

विट्ठल नाथ से गुरू के साथ महा कपट करने का अपराध हुआ था जिसका फल उनके सामने देहांत प्रायश्चित के रूप में आया । हर कर्म बंधन बांधता है अच्छा है तो अच्छा फल, बुरा कर्म है तो बुरा फल, ये कुदरत के स्वचलित नियम हैं जैसे इंसान के विचार होते हैं, जैसे उसके कर्म होते हैं वैसे ही उसके जीवन में आगे की घटनाएं आती रहती हैं कुदरत में यह सब कुछ स्वचलित और स्वघटित होता जाता है ।

विट्ठल के कपट के कारण देहांत प्रायश्चित की घटना सामने आयी और देहांत प्रायश्चित की घटना से चारों बच्चों के जीवन को नया मोड़ मिला । आध्यात्मिक और सज्जन होते हुए भी माता-पिता के देहांत प्रायश्चित के कारण ज्ञानदेव के मन में अनेकों सवाल खड़े हुये, इन सवालों से उनके मन में मानव समाज को ज्ञान की आंख देकर उनकी चेतना बढ़ाने के भाव बीज पड़े और उस महान कार्य को करने की ऊर्जा और राह मिली उनके गुरुदेव के द्वारा जिसे करने के लिए पृथ्वी पर आए थे ।

इस तरह समाज के उद्धार में अपना उच्चतम योगदान देकर विट्ठल, रुक्मणि ने संसार से विदा ली । अब ज्ञानदेव और उनके भाई, बहन की दिव्य योजना का अगला चरण शुरू हुआ, जिनमे उन्हें अपने जीवन से लोगों के सामने सवाल खड़े करने थे कि जब ये बच्चे इतने अभावों के साथ भी सत्य के मार्ग पर चल सकते हैं तो हम क्यूं नहीं चल सकते ।

जब लोगों को सत्य की राह पर चलने के लिए कहा जाता है तो उनके पास बहानों की लंबी सूची होती है, अभी तो इन बातों के लिए छोटी उम्र है, अभी कहां ये सब बड़ी बातें समझ में आएंगी, पहले यह तो हो जाए, वह हो जाए उसके बाद ही संभव है ऐसे बहानों के सामने संत ज्ञानेश्वर जैसे उदाहरण खड़े किए जा सकते हैं कि यह बच्चे कर गए तो हम भी कर सकते हैं अपने माता-पिता की मृत्यु देखकर बालक ज्ञानदेव व्याकुल हो उठे ।

उनके मन में सदैव यही प्रश्न रहता कि ईश्वर की भक्ति में लीन रहते थे माता-पिता तो फिर समाज द्वारा उनको ऐसा कठिन दंड क्यूं दिया गया । ज्ञानदेव की सवाल उठने और जवाब देने की पात्रता तैयार हुई तो उन्हें जवाब देने वाले सदगुरु, निवृतिनाथ जी के रूप में, घर में ही उपलब्ध हो गए । गुरुदेव ने ज्ञानदेव को समझाया कि दोष समाज का नहीं बल्कि समाज के अज्ञान का है, समाज के पास वह ज्ञान ही नहीं पहुंच पा रहा जो उसकी गलत मान्यताओं और सोच को हटा सके।

जो उसे सत्य का दर्शन करा सके, ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि ज्ञान की किताबें जिस भाषा, संस्कृत भाषा में हैं वह जनसामान्य की भाषा नहीं है । जनसामान्य उस ज्ञान को समझ नहीं पा रहा है जो कुछ चुनिंदा लोग समझ पा रहे हैं वे उसे अपने जीवन में उतार नहीं पा रहे । कई लोग उस ज्ञान को अपने फायदे के लिए भोली-भाली आम जनता तक नहीं पहुंचने दे रहे, उन्होंने इस ज्ञान को अपनी दुकान चलाने का जरिया बना लिया है।

और उसे अपनी सुविधा अनुसार तोड़-मरोड़कर समाज के आगे प्रस्तुत किया है इसलिए उन्होंने ऐसे नियम भी बना दिए कि ब्राह्मणों के अलावा कोई और वेद पाठ नहीं कर सकता, स्त्रियां वेद पाठ नहीं कर सकती, बिना जनेऊ-संस्कार के कोई ज्ञान पाने और बांटने का अधिकारी नहीं । जब समाज को उसी की भाषा में ज्ञान मिलेगा तो वह ज्ञान उनके जीवन में उतरेगा, जीवन में उतरेगा तो उसकी गलत मान्यतायें टूटेंगी, जिससे व्यक्ति को सही गलत में फर्क पता चलने लगेगा, उसकी चेतना बढ़ेगी और फिर वह स्वयं ही सही उत्तर खोज लेगा कि बेहतर क्या है।

ऐसे ही अनादिकाल से हम देखते सुनते आ रहे हैं कि सदगुरु सदैव अपने सतशिष्य को कोई-ना-कोई निमित्त बना कर जनसाधारण में भेजते ही आये हैं ताकि अन्य पतित जनों का भी कल्याण हो, जैसे ज्ञानदेव को उनके सदगुरु निवृति नाथ जी ने प्रेरित किया, स्वामी विवेकानंद को उनके सदगुरु रामकृष्ण जी ने प्रेरित किया, छत्रपति शिवाजी को उनके गुरुदेव समर्थ स्वामी ने प्रेरित किया, साईं लीलाशाह महाराज जी को स्वामी केशवानंद जी ने प्रेरित किया और हमारे पुज्यश्री को जैसे हमारे दादागुरु ने प्रेरित किया ।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी…..