Monthly Archives: July 2020

बहुत सरल है ह्रास को रोक के विकास करना ! – पूज्य बापू जी


1. व्यर्थ का चिंतनः व्यर्थ का चिंतन त्याग दें । व्यर्थ चिंतन हटाने के लिए बीच-बीच में ॐकार का उच्चारण, सुमिरन करें । व्यर्थ के चिंतन में शक्ति का ह्रास होता है । व्यर्थ की उधेड़बुन होती रहती है, उसमें बहुत सारी शक्ति खत्म होती है । भगवद्-उच्चारण, भगवत्सुमिरन से व्यर्थ के चिंतन का अंत हो जाता है ।

2. व्यर्थ बोलनाः व्यर्थ का भाषण, व्यर्थ की बात… 10 शब्द बोलने हों तो 6 में निपटाओ तो आपका बोलना प्रभावशाली रहेगा । जो 10 की जगह पर 50 शब्द बोलते हैं उनकी कोई सुनता भी नहीं । 10 की जगह पर 10-12 तो चल जाय, 20 बोलेगा तो भी लोग ऊबेंगे । कट-टू-कट बोलना चाहिए । फोन पर भी कट-टू-कट बात करनी चाहिए । व्यर्थ के भाषण से बचना हो तो भगवत्सुमिरन, भगवत्शांति में गोता खाते रहो, व्यर्थ की बड़बड़ाहट से बच जाओगे ।

3. व्यर्थ का दर्शनः यह देखो, वह देखो… इससे तो भगवान को और सद्गुरु को ही देखने की आदत डाल दो । व्यर्थ का देखना बंद हो जायेगा, कम हो जायेगा ।

4. व्यर्थ का सुननाः व्यर्थ का सुनने की आदत होती है । टी.वी. में व्यर्थ का देखते हैं, व्यर्थ का सुनते हैं, जिससे गड़बड़ संस्कार पड़ जाते हैं । इसकी अपेक्षा भगवान को देखो और भगवत्कथा-सत्संग सुनो ।

5. व्यर्थ का घूमनाः इधर गये, उधर गये…. इससे तो फिर सत्संग में जाओ और सेवा के लिए घूमो तो व्यर्थ का घूमना बंद हो जायेगा ।

तो व्यर्थ का सोचना, बोलना, देखना, सुनना और घूमना – इनमें शक्ति का ह्रास होता है इसलिए उन्हें सार्थक में ले आओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक 331

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विषमता हो तो ऐसी – पूज्य बापू जी


आचार्य विनोबा भावे के पिता का नाम था नरहरि भावे और उनकी माँ का नाम था रखुमाई । रखुमाई और नरहरि भावे मानते थे कि ‘अपनी कमाई के कुछ हिस्से का दान पुण्य करना चाहिए’ तो एक गरीब विद्यार्थी को लाकर घर में रख देते थे । जब विनोबा विद्यार्थी थे तो नकी माँ उनको धर्म की बातें सुनाती थीं- “बेटा ! ध्यान करने से यह लाभ होता है । भगवान का नाम लेना चाहिए, गरीब-गुरबे की मदद करनी चाहिए, मौन रहना चाहिए । बेटा ! सबमें ईश्वर है तो सबमें समानता रखनी चाहिए ।”

एक दिन विनोबा भावे ने अपनी माँ से ही सवाल पूछ लियाः “माँ ! मेरे को एक शंका होती है कि यह जो मोहताज, गरीब कुटुम्ब का विद्यार्थी अपने घर में रखते हैं तो तुम गर्म-गर्म रोटी तो उसको खिलाती हो और कभी बासी रोटी बच जाती है तो मेरे को खिलाती हो । कभी खिचड़ी या चावल बच जाते हैं बासी तो तुम मेरे को देती हो और उसके लिए ताजा बनाती हो । माँ ! तुम्हीं बोलती हो कि ‘सबसे समता का व्यवहार करना चाहिए’ और तुम्हीं विषमता का व्यवहार करती हो । मेरी माँ होकर अपने बेटे को तो बासी रोटी देती हो और उस गरीब-अनाथ को तुम ताजी रोटी देती हो । तो यह भी तो विषमता है !”

तो भारत की नारी ने क्या सुंदर जवाब दिया है ! रखुमाई को धन्यवाद हो ! ऐसी देवियों की कोख से ही तो संत-हृदय महापुरुष पैदा होते हैं ।

रखुमाई ने कहाः “बेटा ! मेरे मन में अभी विषमता है । उस गरीब विद्यार्थी में तु मुझे भगवान दिखते हैं । वह तो अतिथि है, भगवान का रूप है किंतु तेरे में मेरा अभी पुत्रभाव है । अपने पुत्र को तो कभी बासी-वासी भी खिलाया जा सकता है लेकिन वह भगवान का रूप है तो उसको बासी क्यों खिलाऊँ ? जब तू भी भगवान का रूप दिखेगा और संत बन जायेगा तो तुझे भी ताजा-ताजा खिलाऊँगी ।”

बोलेः “माँ ! मैं संत बन के दिखाऊँगा ।”

प्रण कर लिया और आचार्य विनोबा भावे सच्चे संत बनकर दिखे, दुनिया जानती है । तो ऐसी-ऐसी माताएँ हो गयीं ! ऐसी माताएँ, शिक्षक बंधु बच्चों में अच्छे-अच्छे संस्कार भर देते हैं ।

ऐहिक पढ़ाई के साथ-साथ भक्ति की पढ़ाई, मानवता की पढ़ाई, योग की पढ़ाई, आत्मविद्या की पढ़ाई पढ़ने वाले विद्यार्थी भी धनभागी हैं और उनके माता-पिता, शिक्षक बंधु भी धनभागी हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2020, पृष्ठ संख्या 18 अंक 331

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तुमको वह खजाना कब चाहिए ? – पूज्य बापू जी


कितनी भी सिद्धियाँ हासिल कर लो, इन्द्रपद पा लो लेकिन यदि संयम जीवन में नहीं है तो कोई लाभ नहीं, आत्मसाक्षात्कार नहीं होगा । संयम जीवन में बहुत आवश्यक है ।

ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा और 84 लाख योनियों में करोड़ों वर्ष भटकना पड़ता है । थोड़ी-सी असावधानी और करोड़ों वर्ष का गर्भवास का दंड….! और गर्भ मिले हर समय यह जरूरी नहीं । तुमको तो गर्भ मिला लेकिन तुम्हारे कई भाई बहन नाली में बह गये – इस बात को समझने में देर नहीं लगेगी । ऐसे यह तो मनुष्य योनि है, बिल्ला, कुत्ता, गधा, घोड़ा आदि और भी 84 लाख योनियों में कई बार गर्भ नहीं मिला तो छटपटा के जमीन पर तड़प कर मर गये, इस प्रकृति के चक्र में चले । थोड़ी सी असावधानी से कितनी तबाही है !

मुफ्त में ब्रह्मज्ञानी गुरु का सान्निध्य मिला है न, तो मूर्ख लोग यह लाभ नहीं उठा सकते जो गुरु देना चाहते हैं ।

अब मनुष्य जन्म पाकर भी अगर मन के गुलाम बने रहे तो 84 का चक्कर चालू…. इसलिए भगवान वसिष्ठजी कहते हैं श्री रामजी को कि “बलपूर्वक वासना को मिटाना चाहिए, मन की चंचलता को मिटाना चाहिए और चित्त के अज्ञान को मिटाना चाहिए ।”

चित्त का अज्ञान मिटने से वासनाक्षय और मनोनाश स्वाभाविक हो जाता है । ये तीनों चीजें बहुत ऊँची हैं । योगवासिष्ठ में हैं ये वासनाक्षय, मनोनाश और तत्त्वज्ञान । तत्त्वज्ञान चित्त में आया तो वासनाक्षय और मनोनाश हो जायेगा । और तत्त्वज्ञान आयेगा गुरु की कृपा से ।

वासनाक्षय, मनोनाश और ‘दुःख-पीड़ा शरीर में है, हम तक नहीं हैं’ – ऐसा ज्ञान… किसी को भगवान श्रीकृष्ण जी का, श्रीरामजी का, देव का दर्शन हो जाय फिर भी ये तीन चीजें नहीं हैं तो वह निर्दुःख नहीं हो सकता और ये तीन चीजें हैं तो कितना कुप्रचार, कितनी कुसुविधा, शरीर में कितनी गड़बड़ है फिर भी…. ‘हम हैं अपने-आप, हर परिस्थिति के बाप !’

ईश्वर तो मिल जाता है लेकिन ईश्वर जिनको दुर्लभ नहीं दिखता ऐसे ब्रह्मज्ञानी गुरु की छत्रछाया मिलना बड़ा कठिन है, दुर्लभ है । ईश्वर तो पूरे अयोध्यावालों को मिले थे, पूरे द्वारकावालों के बीच में थे, अर्जुन के साथ थे फिर भी ये तीन चीजें अर्जुन के पास नहीं थीं तो वे भयभीत हो गये, किंकर्तव्यविमूढ़ (कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ) हो गये । दुःख से नहीं छूटे । जब श्रीकृष्ण ने कृपा करके ब्रह्मज्ञानी गुरु का पद सँभाला और अर्जुन को ब्रह्मज्ञान दिया तो अर्जुन बोलते हैं- ‘नष्टो मोहः स्मृतिलब्धा…. शरीर मैं हूँ और संसार सच्चा है – यह नासमझी है, मोह है और वह नष्ट हो गया तुम्हारी कृपा से ।’

ऐसे ही लीलाशाह प्रभु की कृपा से हमको वह खजाना मिल गया । अब तुमको वह खजाना कब चाहिए ? कब पचाओगे, पता नहीं ! बहुत ऊँची बात है… चाहिए ? इसका विचार करना सभी, औरों को भी समझाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 331

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