अमरपुर का वह अनोखा गरीब ब्राह्मण

अमरपुर का वह अनोखा गरीब ब्राह्मण


गुरु इस पृथ्वी पर साक्षात ईश्वर है, सच्चे मित्र एवं विश्वास पात्र बन्धु है। हे भगवान! हे भगवान! मैं आपके आश्रय में आया हूँ मुझ पर दया करो, मुझे जन्म मृत्यु के सागर से बचाओ.. ऐसा कहकर शिष्य को अपने गुरु के चरण कमलों में दण्डवत प्रणाम करना चाहिए। जो अपने गुरु चरणों की पूजा निरपेक्ष भक्ति भाव पूर्वक करता है उसे गुरुकृपा सीधी प्राप्त होती है। तीव्र गुरुभक्ति के शक्तिशाली शस्त्र से मन को दूषित करने वाली आसक्ति को मूल सहित काट न दिया जाय तबतक विषयो का संग त्याग देना चाहिए।

एक घटित घटना – अक्कलकोट के स्वामी समर्थ एक सिद्ध पुरुष हो गए उनके बहुत से अनुयायी थे जिन पर वे सदा कृपा दृष्टि रखते थे।अमरपुर गाँव मे एक निर्धन ब्राहमण अपनी पत्नी के साथ रहता था।पति-पत्नी दोनों ही स्वामी समर्थ के भक्त थे। ब्राह्मण जीवन यापन के लिए प्रतिदिन गांवों में घूम-घूमकर भिक्षा माँगता था। भिक्षा में कम या अधिक जो कुछ भी मिलता उसी में दोनों पति-पत्नी गुजर बसर करते थे।

उस ब्राह्मण में एक विशेषता थी, वह अपने घर आये अतिथि का बहुत आदर सत्कार करता था। भिक्षा में प्राप्त अन्न से वह घर आने वाले हर अतिथि को भोजन अवश्य करवाता था। निर्धन ब्राह्मण की पत्नी भी बहुत सुशील थी घर आये किसी भी अतिथि को वह भूखे पेट कभी जाने नही देती थी। निर्धनता में भी पति-पत्नी अपनी गृहस्थी आनंदपूर्वक व्यतीत करते थे। वे अपना समय भक्ति में लीन ईश्वर के भजन गाते हुए बिता रहे थे।

एकबार स्वामी समर्थ कुछ दिनों के लिए अमरपुर गांव में आये वे भी भिक्षा के लिए घर-घर जाते थे और अपने सच्चे भक्तो को आशीर्वाद प्रदान करते थे। एकदिन स्वामी समर्थ इस गरीब ब्राह्मण के घर भीक्षा लेने पहुंचे उस समय ब्राह्मण स्वयं भीक्षा लेने के लिए गांव में गया हुआ था। घर मे अतिथि को आया देख ब्राह्मणी ने उन्हें बड़े आदर सत्कार के साथ बिठाया और उनकी पूजा अर्चना की किंतु घर मे अन्न का एक भी दाना न था इसलिए वह परेशान हो रही थी। वह यह संकोच में गड़ी जा रही थी कि गुरुदेव को क्या भोजन खिलाया जाय?

कुछ देर उलझन भरी अवस्था मे रहने के पश्चात उसे स्मरण हुआ कि घर के आंगन में घेवड़े (एक प्रकार की सब्जी है) का एक पौधा लगा हुआ है जिसमे बहुत सी फलियां लगी हुई है उसने तुरंत जाकर घेवड़े की कुछ फलिया तोड़ी और उसकी सब्जी बना ली।

स्वामी समर्थ को उसने भोजन में घेवड़े की सब्जी बड़े ही प्रेमपूर्वक परोस दी। स्वामी समर्थ सर्व ज्ञाता थे वे जानते थे कि ब्राह्मणी बड़े ही जतन से सब्जी बनाकर लाई है ऐसी भक्तिभावना देख कर गुरुदेव मन ही मन उसे सधा रहे थे।

भोजन के उपरांत ब्राह्मणी ने गुरुदेव से आशीर्वाद के लिए कहा, स्वामी समर्थ ने आंगन में लगे घेवड़े के पौधे को जड़ से उखाड़ दिया और कहा- यही तुम्हारे लिए आशीर्वाद है, अब तुम्हारी गरीबी मिट जाएगी।

निर्धन ब्राह्मणी पौधे को जड़ से उखड़ा देख बहुत दुखी हुई वह समझ नही पा रही थी कि आखिर गुरु जी ने पौधे को निकालकर फेंक क्यों दिया? कठिन समय मे उसे इसी पौधे का सहारा था। अपने हालात के बारे में सोच- सोचकर वह रोने लगी कुछ देर बाद जब ब्राह्मण घर लौटा तो उसने पत्नी को बहुत दुखी और उदास पाया जब उसने पत्नी से उदासी का कारण पूछा तब उसने सारी घटना ज्यो की त्यों सुना दी ।

ब्राह्मण ने पत्नी को सांत्वना देते हुए समझाया कि यदि गुरुदेव ने यह आशीर्वाद दिया है कि हमारी गरीबी अब जड़ से समाप्त हो जाएगी तो हमे उनके वचनों पर भरोसा करना चाहिए। जहां घेवड़े का पौधा गुरुदेव ने उखाड़ फेंका था वह स्थान अस्त-व्यस्त हो गया था, ब्राह्मण उस स्थान को साफ करने के लिए कुदाली से पौधे की बची-खुची जड़े काटने लगा।

खुदाई करते समय उसकी कुदाल एक मटके से जा टकराई ब्राह्मण ने मटका बाहर निकालकर देखा तो पाया वह तो हीरे-मोतियों से भरा हुआ था। ब्राह्मण पति-पत्नी यह देख आश्चर्यचकित रह गए।वे हीरे जवाहरात से भरे मटके को लेकर गुरुदेव के पास पहुंचे।

गुरुदेव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा- यही आशीर्वाद था कि अब तुम्हारी गरीबी बिल्कुल मिट जाएगी, लो मिट गई। तुमने गुरु वचनों पर भरोसा रखा इसलिए यह संभव हुआ। वर्षो से गरीबी में जीवन व्यापन करने वाले पति- पत्नी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गुरुजी को उन पर हुई कृपा के लिए अनंत धन्यवाद दिये।

यह प्रसंग हम सभी साधक, शिष्यो को एक विलक्षण सीख प्रदान करती है। गुरु सदैव ही हमारे बाह्य सहारे पर जिस पर हम स्वयं को निर्भर रखते है उसी पर कुठाराघात करते है, कुठाराघात करके उसकी ममता, आसक्ति, और मान्यताओं को चकनाचूर कर देते है और परम सहारे की ओर अग्रसर करते है, स्व की शुद्धता के लिए अग्रसर करते है परन्तु विचारणीय तो यह है कि क्या हम गुरु की इस शल्य क्रिया की प्रक्रिया के लिए तैयार भी है या नही?? यदि नही तो अभी से तैयारी शुरू होनी चाहिए।

गुरु समस्त माइक, मान्यताओं और आसक्तियों के घोर शत्रु होते है परन्तु कभी यह जीव अपनी बुद्धि की मलिनता के कारण सद्गुरु को स्वयं का शत्रु मान बैठता है जितना हम मन में, बुद्धि में अपने ही द्वारा निर्मित मान्यताओं में जीते है उतनी मात्रा में सद्गुरु हमे विरोधी लगते है इसी लिए तो कहते है कि- गुरु कृपा के लिए याचना की आवश्यकता नही, गुरु तो सदैव शास्वत दाता है। हम ही लेने के लिए तत्तपर नही। जितनी मात्रा में शिष्य का समर्पण गुरु के वाक्यो के प्रति, उनके वचनों के प्रति होती है उतनी ही मात्रा में सतशिष्य उनकी कॄपा को ग्रहण कर पाता है।

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