एक सनिष्ठ शिष्य अपने आचार्य की सेवा में अपने सम्पूर्ण मन एवं हृदय को लगा देता है । तत्तपर शिष्य किसी भी परिस्थिति में अपने गुरु की सेवा करने का साधन खोज लेता है ।अपने गुरु की सेवा करते हुए जो साधक सब आपत्तियों को सह लेता है वह अपने प्राकृत स्वभाव को जीत सकता है । शांति का मार्ग दिखाने वाले गुरु के प्रति शिष्य को सदैव कृतज्ञ रहना चाहिए । अगर आप को नल से पानी पीना हो तो आप को स्वयं नीचे झुकना पड़ेगा । इसी प्रकार अगर आप को गुरु की पवित्र मुख से बहते हुए पावन अमृत का पान करना हो तो आप को विनम्रता का प्रतीक बनाना पड़ेगा ।जो मनुष्य वफादार एवं बिल्कुल नम्र बनते है उनके उपर ही गुरु
की कृपा उतरती है ।
गुरु के चरण कमलों की पूजा के लिए नम्रता के पुष्प के अलावा और कोई श्रेष्ठ पुष्प नहीं है । शिष्य अधिक विद्वान न हो लेकिन वह मूर्तिमंत नम्रता का स्वरूप हो तो उसके गुरु को उसपर अत्यंत प्रेम होता है । आप महान विद्वान एवं धनवान हो फिर भी गुरु एवं महात्माओ के समक्ष आप को बहुत ही नम्र होना चाहिए ।
शिष्य ने महात्मा से पूछा गुरुदेव रावण ने जीवन पर्यन्त आसुरी वृत्ती के वशी भूत होकर कर्म किए। साधु संतों को कष्ट दिया । माँ जानकी का हरण किया ।परंतु कहा जाता है कि प्रभु श्री राम के हाथों मृत्यु होने के कारण वह मुक्ति को प्राप्त हुआ । क्या यह सत्य है ??
महात्मा ने कहा कदाचित नही । शास्त्रों में वर्णन है कि रावण का पुनर्जन्म हुआ शिशुपाल के रूप में । यदि रावण मुक्त हो गया होता तो उसका दोबारा जन्म क्यों होता ?? गुरु नानक देवजी ने इस सत्य को स्पष्ट वाणी में कहा कि , “लंका लूटी शीश समेत गर्भ गया बिन सतगुरु हेत।” अर्थात रावण को दोबारा गर्भाग्नि सहने को विवश होना ही पड़ा क्योंकि उसके पास कोई सदगुरु न थे ।
माना कि रावण प्रकांड विद्वान था । उसने शास्त्रों और वेदों का अध्ययन किया हुआ था । वह भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त भी था । उसने मंत्र बल से तपस्या के द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न कर अनेक वरदान भी प्राप्त कर लिए थे ।परंतु उसके जीवन की सब से बड़ी चूक थी कि उसने कभी किसी पूर्ण सदगुरु की शरणागति प्राप्त न की थी ।यही कारण है कि वह विद्वान होते हुए भी अज्ञानी ही रह गया । दिशाहीन जीवन व्यतीत किया उसने ।यदि उसके जीवन में कोई पूर्ण गुरु का प्रदार्पण हुआ होता तो उसने उनसे ज्ञान दीक्षा की प्राप्ती की होती ।तो उसका मन निरंकुश न हुआ होता ।उसे अपनी कामनाओ व वासनाओं पर अंकुश लगाना सदगुरु की बताई गई दिशा अनुसार उसे भली प्रकार आता होता ।गुरुदेव उसके जीवन को पल प्रतिपल सही दिशा देते ।उसे कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते ।वह केवल शास्त्रज्ञ या विद्वान न रहकर अनुभवी ज्ञानवान बन पाता ।
इसलिए नानक देव जी कहते हैं कि , “गर्भ गया बिनु सदगुरु हेत” चौरासी के चक्कर से छूटने का भव सागर पार करने का गर्भाग्नि से बचने का मुक्ति का मात्र एक ही उपाय है – सदगुरु की शरणागति । यदि हम रावण के जीवन को रूपक के रूप में देखे, तो लंका में दस शीश वाले रावण का निवास है ।यह शरीर ही स्वर्ण मयी लंका है । उसमें अहं का निवास है। जो सीता अर्थात भक्ति को राम अर्थात ब्रह्म तक पहुँचने नहीं देता ।
रावण को शास्त्रज्ञों ने अहंकार का प्रतीक बताया । दस शीश अर्थात अहं की अत्यधिकता । साधक के जीवन में जब सदगुरु उसके अहं का मर्दन करते हैं, तब साधक के दस शीश और उभर आते है। अर्थात तर्क कुतर्क के चकरो में वह स्वयं को फसा लेता है। बुद्धि उसकी अनेक प्रकार से सोचने लगती है कि मैने तो ऐसा कुछ किया ही नहीं फिर भी गुरु द्वारा या फिर गुरु भाइयों द्वारा ऐसा व्यवहार मेरे साथ क्यों हो रहा है ?
जब भी अपने मन की ना हो परिस्थितियां विपरित हो तो यह विचारणीय है कि सदगुरु रुपी राम द्वारा हमारे क्लोषित मन का अहं का शीश कट रहा है ।फिर भी एक एक शीश काटने से रावण का मर्दन संभव नहीं ।
रावण का वध करने में तो रामजी के भी पसीने छूट गए ।फिर उनको विभीषण ने भेद बताया — रावण वध भेद । यहां विभीषण शरणागति का प्रतीक है ।अर्थात जब तक शिष्य की सम्पूर्ण शरणागति नही होती अपने सदगुरु के प्रति तब तक सदगुरु रुपी राम को बहुत परिश्रम करना पड़ता है । शीश के अहं रुपी रावण को मारने के लिए ।
जिस दिन शिष्य का सदगुरु को सम्पूर्ण शरणागति का संग प्राप्त हुआ उस दिन देर न लगेगी । एक ही बाण से काम बन जायेगा ।तत्त्वमसि !! यहि नाभि भेदन है परंतु आवश्कता है सच्चे शरणागति की ।तो हम सभी मे जो अहंकार और विकार रुपी रावण बैठा है उसका वध अत्याधिक आवश्यक है ।नही तो हमारे जीवन मे विजयदशमी कभी न आ पायेगी । इस अहं औऱ विकार रुपी रावण का वध हेतु सम्पूर्ण शरणागति की आवश्यकता है सदगुरु के चरणों में ।