मनुष्य एक ऐसी भूल में है कि भगवान ने तो दुनिया बनायी लेकिन ‘हम सुधारक हैं’, कुछ सुधार कर लें ।’ अगर सुधार करना है तो सीधा गणित है कि आप परमात्मा के राज्य में आओ फिर आपके द्वारा सही सुधार होगा, प्रकृति के राज्य में रहकर आप क्या सुधार करोगे ? जैसे सपने में कितना भी सुधार किया वह जाग्रत में नहीं आयेगा, ऐसे ही इस दुनिया को सत्य मानकर आपने कितना भी सुधार किया, आखिर मृत्यु के समय आपको संतोष नहीं रहेगा । दुनिया तो ऐसी-की-ऐसी रहेगी । त्रेता में श्रीरामजी आये, सुधार किया…. सुधार किया…. खूब सुधार किया, पद-पद पर सच्चाई से जीवन-यापन, कार्य-व्यवहार होने लगा और राम जी गये तो फिर द्वापर आया । क्या सुधार टिका ? फिर द्वापर में श्रीकृष्ण आये और सुधार चला, चला, चला…. फिर कृष्ण गये और कलियुग आया । श्रीकृष्ण ने जो सुधार किया था वह नहीं टिका । यह तो प्रकृति में चलता ही रहेगा । सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग….।
बाहर के जगत में आप सुधार करना चाहते हैं या सुखी होना चाहते हैं तो थोड़ा सा अन्तरात्मा परमात्मा की ओर आओ तो बाहर भी सफलता होगी क्योंकि सारी असफलताओं की कुंजी और सारी सत्ताओं का मूल तो वही चैतन्य है, परमात्मा है ।
विदेशों में लोग बाह्य सफलता को जी जीवन का लक्ष्य मानकर प्रकृति के राज्य में दौड़-धूप कर रहे हैं तो उतने ही अशांत हो गये । अब भी भारत में थोड़ी सुख-शांति या अच्छी-अच्छी ऊँची आत्माएँ हैं तो यह सब यश ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को जाता है । समाज में जो थोड़ी रौनक और सच्चाई या सज्जनता है उसका यश समाज और संत के बीच सेतु बनने वाले धार्मिक, सज्जन लोगों को जाता है । वे चाहे कोई समितियाँ हों, मंडल हों, संस्थाएँ हों, उनको यश जाता है ।
सुधार तीन तरह से होते हैं-
पहलाः डंडे, तलवार, आतंक, कत्ल के बल से ।
दूसराः कानून के बल से । उससे समाज का इतना कोई होता ही नहीं ।
तीसराः परस्परं भावयन्तु… सब एक-दूसरे को पोषित कर दूसरे के अधिकार की रक्षा करें और अपना कर्तव्य पालें । इसी में समाज का, विश्व का, प्राणिमात्र का मंगल समाया हुआ है । इसी दैवी सिद्धान्त के बस से सच्चा सुधार होता है । सच्चे सुधार जो भी होते हैं वे आध्यात्मिक ऊँचे व्यक्तियों में होते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 332
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