सच्चे शिष्य के लिए तो गुरुवचन माने कानून। गुरु का दास बनना माने ईश्वर का सेवक बनना। आयुर्वेद के जगत में श्री वागभट्टाचार्यजी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।
वाग्भट्ट की तमन्ना साधना के उच्च शिखरों को छूने और अंतरजगत के अनंत प्रकाश में खो जाने की थी। अपनी इस तमन्ना को पूरा करने के लिए वाग्भट्ट ने गुरु महर्षि चरक की शरणागति प्राप्त की। लेकिन जहां दीक्षा के समय कक्ष में उपस्थित बाकी सभी साधकों को बहुत से अनुभव हुए, वहीं वाग्भट्ट को मुश्किल से हल्के से प्रकाश की एक झलक दिखी और झट ही वह लुप्त भी हो गई। दीक्षा कक्ष से बाहर आकर वाग्भट्ट संशय में घिर गये और अपनी मुश्किल का हल पाने के लिए उन्होंने श्री गुरुदेव का किवाड़ खटखटाया।
गुरुदेव ने उसे समझाया कि अवश्य ही उसका कोई ऐसा भारी कर्मसंस्कार आगे आ गया है। जिस वजह से प्रकट प्रकाश भी उसे लुप्त सा प्रतीत हो रहा है। इसलिए उसे हताशा छोड़कर साधना में डट जाना चाहिए और उस अदृश्य प्रकाश को प्रकट करना चाहिए।
गुरु का निर्देश पाकर वाग्भट्ट साधना में जुट गये, परन्तु तब भी उनके हृदय में प्रकाश की एक किरण तक ना फूटी। अब तो वह घोर निराशा में आ गये और गुरु पर से उनका ऐसा विश्वास उठा कि एक दिन शाम को जब सभी साधक व गुरुदेव अपने-2 कक्षों में साधना में लीन थे, वह आश्रम छोड़कर चले गये। रास्ते में उनकी भेंट एक बड़े तांत्रिक से हो गई। जिसके बारे में विख्यात था कि वह समस्त रिद्धि-सिद्धियों का मालिक है। सिद्धियां पाने के लालच से वाग्भट्ट उस तांत्रिक का शिष्य बन गया। तांत्रिक ने वाग्भट्ट को एक ऐसा मंत्र दिया जिसे साधना बेहद कठिन था।
तांत्रिक ने कहा– तंत्रसाधना कोई बच्चों का खेल नहीं! घण्टो-2 एक मंत्र को जपना पड़ता है। शक्तियां हासिल करने में कई वर्ष तो क्या कई युग भी बीत जाया करते हैं। परन्तु मंत्र मिलते ही वाग्भट्ट ने एक गुफा में आसन लगाया और मंत्र का जप करना आरंभ कर दिया।
मंत्र जाप करते हुए वाग्भट्ट को अभी कुछ ही महीने बीते थे कि एक रात उसको एक विचित्र सी अनुभूति हुई। उसे लगा कि उसके पीछे कोई खड़ा है। इससे पहले की वह मुड़कर देखता पीछे से आवाज आई, “वाग्भट्ट! वरदान मांगो! हम तुमपर प्रसन्न हुए! मांगो जो मांगना है।”
वाग्भट्ट हैरान हुआ और उसने पूछा कि वे कौन है?
वे बोले कि हम सिद्धियां, हम सिद्धी की देवियां हैं। तुम्हें सिद्धियां प्रदान करने के लिए प्रकट हुई हैं।
वाग्भट्ट संशय में पड़ गए, क्योंकि उसे मंत्रसिद्ध का जो निश्चित समय बताया गया था, अभी तो उसका पांच टका भी नहीं बीता था। लेकिन यह मंत्र सिद्ध होने में तो वर्षों लगते हैं। आप सब इतनी जल्दी कैसे प्रसन्न हो गई?
देवियों ने कहा, निःसंदेह! तुम्हारी जगह कोई और होता तो वर्षों में भी शायद यह मंत्र सिद्ध न होता। लेकिन तुम्हारे तेज के कारण यह मंत्र शीघ्र ही सिद्ध हो गया है।
वाग्भट्ट सोच में पड़ गए कि महर्षि चरक तो कह रहे थे कि मेरे बुरे कर्मों का गठ्ठल भारी है और इन देवियों को मुझमें देवत्व दिखाई पड़ रहा है। जरा पूछूं तो आखिर इन्हें मुझमें ऐसा क्या दिखा?…और जब पूछा तो उसकी हैरानी और बढ़ गई…क्योंकि वे देवियां बोली कि, हे देवपुरुष! आपमें तो पहले से ही इतनी शक्ति है कि इस मंत्र से प्राप्त होनेवाली शक्तियां तो इस शक्ति के आगे अत्यंत गौण है।
वाग्भट्ट ने यह सुना,तो उसे लगा कि ये देवियां अवश्य ही झूठ बोल रही है और उनकी तपस्या भंग करने आई है। अब वाग्भट्ट जरा कठोर वाणी में बोले,”यदि आप मुझे वरदान देने आई हो, तो पीठ-पीछे क्यों खड़ी हो? सामने क्यों नहीं आती?”
नहीं देवपुरुष! हम आपके सामने नहीं आ सकती। आपके तेज के सामने हम टिक नहीं पायेंगी।
वाग्भट्ट झल्लाकर बोले, “हे भगवान! यह आप कैसी -2 बातें कर रही हो? कभी आपको मुझमें तेज दिखाई देता है, कभी अपार शक्ति! मुझे बताओ तो कि आखिर किस कारण मैं आपको देवतुल्य भासित हो रहा हूँ।”
देवियों ने कहा, “आपके पूर्ण सद्गुरु के कारण।”
क्या? पूर्ण सद्गुरु के कारण! वह गुरु जिसे मैं छोड़ आया हूँ।
हाँ, वाग्भट्ट! वहीं।
क्यों परिहास करती हो देवियों? वो गुरु मुझे क्या शक्ति देंगे, जिनमें खुद इतनी शक्ति नहीं की अपने शरणागत को प्रभु दर्शन करा दे। वो गुरु मुझे क्या तेज देंगे, जिनके ज्ञान में प्रभु के तेज को दिखाने तक का सामर्थ्य नही।
बचपन से ही मुझे ईश्वर दर्शन की चाह थी। मैंने शास्त्रों का अध्ययन किया और एक सार जो मेरी समझ में आया वह था कि ईश्वर दर्शन के लिए पूर्ण गुरु की आवश्यकता है। ब्रह्मज्ञानी, तत्ववेत्ता गुरु ही यह अलौकिक दर्शन करा सकते हैं। बस, इसी बात को पकड़ मैंने पूर्ण गुरु की खोज आरंभ की। काफी भटकने पर मुझे महर्षी चरक का पता चला। पूरी भावना के साथ मैंने उनके सामने ज्ञान के लिए झोली फैलाई। परन्तु विडंबना! मुझे ज्ञान तो मिला परन्तु आत्मप्रकाश नहीं, ईश्वर दर्शन नहीं।
देवियों ने कहा कि वाग्भट्ट! मिथ्या कथन क्यों करते हो? क्या आपको ज्ञान दीक्षा के समय ईश्वरीय आनंद की अनुभूति नहीं हुई?
हुई थी, परंतु क्षण भर के लिए हुई थी। इससे पहले कि मैं उसका आनंद उठा पाता वह आनंदाअनुभूति लुप्त हो गई। काफी वर्षों तक साधना-सुमिरन करने से भी कोई फायदा नहीं हुआ।
फायदा नहीं हुआ? आपने इतने वर्षों जो सद्गुरू के आश्रम में रहकर उनकी सेवा और साधना की, उसीसे आपमे यह अतुलनीय तेज व शक्ति प्रकट हो गयी है और इसीसे यह मंत्र इतने शीघ्र सिद्ध हो गया।
लेकिन मुझे तो कभी नहीं लगा कि मुझमे शक्तियां है।
यही तो सद्गुरु की महानता हुआ करती है वाग्भट्ट! शक्तियों के धान से आपमें अहंकार आ जाता तो आप मार्ग से भटक सकते थे।
यह क्या सिद्धांत हुआ? अरे! अगर शक्तियां दी है तो प्रयोग करने का अधिकार भी तो देना चाहिए ना।
देते हैं! गुरु यह अधिकार भी देते हैं। लेकिन उसका उचित अवसर भी तो आना चाहिए वाग्भट्ट! जैसे श्री हनुमानजी जन्म से ही दिव्य शक्तियों से संपन्न थे, परन्तु शक्तियों का दुरुपयोग होने के कारण ऋषियों ने उन्हें श्राप दे डाला – “जाओ! अपनी समस्त शक्तियों को भूल जाओ। ये तभी तुम्हें स्मरण आयेगी जब कोई संत स्मरण कराये और तब तुम उन शक्तियों का परमार्थ के लिए ही प्रयोग करना।”
इस प्रकार हे देवपुरुष! शायद आपमें विद्यमान शक्तियों के प्रयोग का उचित समय अभी न आया हो, इसलिए गुरु ने आपको नहीं बताया इनके बारे में।
चलो मान लेता हूँ कि शक्तियों के प्रयोग का उचित समय नहीं आया था, इसलिए गुरुदेव ने वे प्रकट नहीं किये। लेकिन ईश्वर दर्शन का तो मेरा अधिकार था ना फिर वह मुझे क्यूँ नहीं प्राप्त हुआ। क्या इसका आप कोई ठोस कारण बता सकती हैं?…जिससे मुझे सन्तुष्टी हो जाय।
देवियों ने कहा कि गुरु किसीका अधिकार नहीं रखते। यदि आप उसके अधिकारी हो गए होते तो आपको जरूर दर्शन होते। शायद आप भूल गए कि आपके गुरुदेव ने आपको बताया था कि आपकी कर्मसंस्कारों का गठ्ठर इतना भारी है कि उसे दूर किये बिना उस अलौकिक अग्नि का प्रज्वलित रूप देख पाना कठिन है। परन्तु आपको तो प्रमाण चाहिए, ताकि आपको सन्तुष्टी हो जाय। तो ठीक है! आप अपनी भृकुटी पर ध्यान लगाओ और गुरुमंत्र का जप शुरू करो। आपको अभी प्रमाण मिल जायेगा।
वाग्भट्ट ने ऐसे ही किया। उसने देखा कि 5 बड़े-बड़े पहाड़ हैं। अचानक वे सभी जलने लगे। देखते ही देखते उनमें से 4 पहाड़ पूरी तरह जल गये। राख का ढेर बन गये। लेकिन 5 वा अभी बाकी था। इससे पहले की वाग्भट्ट कुछ समझ पाते, उन देवियों की वाणी गूँजी – हे वाग्भट्ट! ये पांचों आपके जन्मजन्मांतरो से इकठ्ठे हुये कर्मों के पहाड़ थे। इन्हीं के चलते आपको प्रकाश की अनुभूति नहीं हो पा रही थी। परन्तु जब गुरुज्ञान की अग्नि भीतर प्रकट हुई और आपने साधना द्वारा उसे प्रबल किया तो ये पहाड़ जलने लगे। आपकी साधना के ईंधन से 4 पहाड़ पूरी तरह जल चुके थे। बस मात्र 1 बचा था, लेकिन दुर्भाग्य आप उसके जलने से पहले ही अधीर , व्याकुल हो गये। आपने आपके गुरु का सान्निध्य त्याग दिया और यह पहाड़ बीच में ही रह गया।
देवियों की बात सुनकर वाग्भट्ट पश्चाताप से भर गये।
देवियों ने आगे कहा– वाग्भट्ट! मांगो, जो भी वरदान मांगना है मांग लो ताकि हम जा सके।
वाग्भट्ट अश्रु बहाते हुये बोले कि, हे देवीयों! अब आपसे और क्या वरदान मांगना? क्या यह अपने आप में वरदान से कम है कि आज मेरा अपने गुरु के श्रीचरणों में विश्वास पुनः लौट आया। मेरे श्रीगुरुदेव तोउ ब्रह्मांड के नायक हैं। जो कृपा कर मुझ पापी का उद्धार कर रहे थे। लेकिन मैं ही बेसब्रा होकर उन्हें त्याग बैठा और देखो ! उन्होंने मुझे फिर भी नहीं त्यागा। तभी तो मुझे मार्ग दिखाने के लिए आप तीनों को मेरे पास भेज दिया। अब मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। आप जा सकती हो। मैं तो पुनः अब अपने गुरु के श्रीचरणों में जाऊँगा। अब मैं और पागलपन नहीं करनेवाला। अखिल ब्रह्मांड के सूर्य को छोड़कर किसी जुगनू के पीछे नहीं भागनेवाला।
वाग्भट्ट ने फिर आव देखा न ताव। आसन से उठा, गुफा से बाहर निकला और चल पड़ा सीधा गुरु के आश्रम की ओर। मीलों का सफर तय किया बिना रुके, बिना थमे। अब थमा तो सीधा गुरु के चरणों में पहुँचकर। गुरुदेव भी तो जैसे उसी के इंतजार में पलकें बिछाये अपने प्यार लुटाने को आतुर बैठे थे।
मुझे क्षमा कर दो गुरुदेव! क्षमा कर दो। मैं आपको पहचानने में धोखा खा गया। मुझे पुनः अपनी शरण में ले लो। हे दाता! मैं रास्ता भटक गया था।
गुरुदेव मुस्कुराये और अपने दिव्य हस्तकमलों का आसरा देकर वाग्भट्ट को उठाया, आशीर्वाद देते हुए उसका सिर सहलाया।
समय बीतता गया। वाग्भट्ट ने कड़ी साधना व सेवा कर कर्म का वह आखिरी पहाड़ तो जलाया ही अपितु गुरुदेव की असीम कृपा व प्रसन्नता को भी पाया।
गुरुदेव ने एक दिन वाग्भट्ट के पास जाकर उससे पूछा, “क्यों वाग्भट्ट! साधना ठीक तो चल रही है ना?”
जी गुरुदेव! आपकी अनन्य कृपा है।
फिर ठीक है। हमें तो चिंता हो गई थी कि कही तुम फिर से हमें छोड़कर न चले जाओ।
वाग्भट्ट गुरुचरणों से लिपट गया। सिसकियां भरते हुए बोला, “गुरुदेव! ऐसा दिन आने से पहले आप मुझे अब मृत्यु दे देना। मैं भूत तो नहीं बदल सकता, परन्तु भविष्य में ऐसी सोच भी कभी न आये इसके लिए हरपल आपसे प्रार्थना करता हूँ। यदि मुझसे कही भूल हो गई है…भूल तो हुई है… कृपा कर आप मुझे क्षमा करें।”
अरे वाग्भट्ट! हम तो तुमसे ठिठोली कर रहे थे। हम तो तुमसे बेहद प्रसन्न है। बोलो तुम्हें क्या चाहिए?
गुरुदेव आज तक मैंने स्वार्थभरी मांग ही की है। परन्तु अब, अब नहीं। गुरुदेव! अब तो बस यही कामना है कि मेरे हाथों से समाज कल्याण हेतू कुछ सेवाकार्य हो जाये। लेकिन मुझे इसका श्रेय नहीं चाहिए। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी प्रशंसा करें।
गुरुदेव ने कहा, यह तो असंभव है। नेक कार्यों के पीछे प्रशंसा तो छाया की तरह आती है।
तो ठीक है गुरुदेव! फिर वह पीछे ही रहे। मेरे समक्ष कभी ना आये। मतलब कि मेरे कार्य मेरे जीते जी प्रकट न हो बल्कि मेरे देह त्यागने के बाद ही समाज उन्हें जाने।
जैसी तुम्हारी इच्छा। तब श्रीगुरुदेवजी की आज्ञा से वाग्भट्ट वृंदावन में गये। वहां कुछ काल तक गहन साधना की गुरु के निर्देशानुसार। ऐसा करने पर गुरुदेव की अनंत कृपा से उसमें एक अद्भुत शक्ति का उदय हुआ। अब वह जिस भी पेड़-पौधे के पास जाकर बैठते, वह वनस्पति स्वयं ही अपने औषधीय गुणों का बखान करने लगती और वाग्भट्ट उन्हें काग़जपर लिखते जाते।
इसप्रकार उन्होंने आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ रच डाले। परन्तु ये सभी प्रकाश में उनके देहत्याग के बाद ही आये। इनमें से ‘अष्टांग संग्रह ‘ व ‘अष्टांग हृदयम’ तो आयुर्वेद की अमूल्य निधि मानी जाती है। यह सब गुरु की कृपा का ही फल था।