सत्य के साधक को मन एवं इंद्रियों पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरु की निगरानी में शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। शिष्य को चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और आचार्य की पूजा करनी चाहिए। शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य को साक्षात ईश्वर के रूप में माने, मनुष्य के रूप में कदापि नहीं। शिष्य को सब सुख वैभव का विष की तरह त्याग कर देना चाहिए और अपना शरीर गुरु की सेवा में सौंप देना चाहिए।
शास्त्रों ने, ऋषियों ने शिष्य के लक्षण बताते हुए कहे कि ,
*अलुब्ध स्थिरग्रात्रश्च आज्ञाकारी जितेंद्रियः।*
पहला लक्षण आदर्श शिष्य का ‘अलुब्ध’ अर्थात आदर्श शिष्य वह है जो अलुब्ध हो,जो लोभी न हो, जिसको गुरु से कोई लोभ नहीं। गुरु मुक्ति प्रदान कर दे वह भी लोभ नहीं। गुरु भक्ति दे दे वह भी लोभ नहीं। ‘अलुब्ध’– किसी भी प्रकार का लोभ नहीं। गुरु के पास गये हुए शिष्य के मन में कोई लोभ न हो। केवल एक ही बात कि मेरे गुरु मुझे एकबार कह दे कि “बेटा ! तू मेरा है।” बस! हो गई बात और कुछ नहीं चाहिए।
गोस्वामी जी कहते हैं कि एक बार राघव मुझे कह दे कि तुलसीदास मेरो है। अलुब्ध! लोग आज गुरु के पास जाते हैं तो प्रतिष्ठा के लोभ से जाते हैं। अपनी सेवा दिखाने के लिए जाते हैं। लोग खुद को प्रदर्शित करने के लिए जाते हैं।
गुरु तो पारसमणी हैं, लोहे को कंचन बना देंगे। लेकिन जो लोहा है, वह यदि कवच पहनकर जायेगा तो पारसमणी क्या करेगा? लोहे को यदि कपड़े में बांधकर पारस के पास रखो तो कुछ ना होगा। संसार में बहुधा लोग गुरुजनों के पास ऐसे ही जाते हैं। कई लोग तो गुरुजनों के पास गुरु बनने के लिए जाते हैं। कई लोग तो गुरु के पास जाने के बाद समाज में प्रसिद्ध हो जाते हैं और फिर ऐसी चर्चा करने लगते हैं कि इन गुरु महाराज को हमने ऊपर उठाया तब दुनिया उनको जानने लगी। रावण यही काम करता था– कैलाश को उठाकर दुनिया को कहता कि ये शंकर कोई बड़े नही थे। वह तो मैंने कैलाश को उठाया और दुनिया ने देखा फिर प्रसिद्ध हुए।
‘अलुब्ध’–जिसको कोई लोभ नहीं। शिष्य की शरणागति तो मिट्टी की शरणागति की तरह है। कुम्हार ने मिट्टी खोदी तब मिट्टी ने कुछ नहीं कहा। गधे पर रखी वह कुछ ना बोली। कुम्हार अपने आँगन में मिट्टी को ले आया, पानी डालकर पैरों से रौंदने लगा मिट्टी कुछ ना बोली। पिंड बनाया, चाकपर चढ़ाया,उसे घुमाया परन्तु मिट्टी कुछ ना बोली। न कहा कि तू मुझे लोटा बना, घड़ा बना अथवा तो कुछ और बना …नहीं, मिट्टी कुछ ना बोली। जो कुम्हार ने चाहा वह बना दिया, कुम्हार की मौज! उसको चाक से उतार दिया, मिट्टी कुछ ना बोली। धूप में तपाया, सुखाने के लिए अग्नि में डालकर उसको पकाया मिट्टी कुछ ना बोली। घड़े को कुम्हार ने बाजार में डालकर निलाम कर दिया।
खरीदने वाले टकोर मारकर ले जाते, मिट्टी कुछ ना बोली। कुम्हार ने 5 रुपयों में मिट्टी का घड़ा निलाम कर दिया, मिट्टी ने एक लब्ज तक नहीं उच्चारा।
जिसके घर घड़ा गया उस गृहिणी ने घड़े के गले में रस्सी का फंदा डाला, पनघट पर जाकर पानी भरने के लिए मिट्टी के घड़े को कुएँ में उतारा परन्तु मिट्टी कुछ ना बोली। इधर-उधर हिलाया, डुबोया, ऐसे किया और घड़े को बाहर लायी। कुएँ की दीवारों से टकराता-2 घड़ा बाहर आया, परन्तु फिर भी मिट्टी कुछ ना बोली। गृहिणी ने सिर पर रखा, पानी छलका न छलका घर ले आयी। एक-दो महीने में घड़ा फूट गया फिर भी मिट्टी कुछ ना बोली। कचरे में डाल दिया, फिर वह मिट्टी मिट्टी में मिल गई, परन्तु मिट्टी कुछ न बोली। ऐसी शरणागति शिष्य की होनी चाहिए।
*तदविज्ञानार्थं गुरुमेवा भिगच्छेत।*
*समित्पानि क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम।।*
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हाथ में समिध लेकर शिष्य गुरु के पास जाता था। गुरु यज्ञ करते थे और शिष्य हाथ में लकड़ियाँ लेकर उनके पास जाता था। गुरु के पास पुष्प ले जाना अच्छी बात है, ले जाना चाहिए। प्रसाद ले जाना अच्छी बात है। लेकिन भारतवर्ष का सिद्धांत कहता है कि, शिष्य गुरु के पास हाथ में लकड़ियां ले जाता था। यह हमारी परंपरा है।
उपनिषद् के ऋषि के पास जब ज्ञान अर्जित करने के लिए शिष्य जाता है तो समिध लेकर जाता है, क्यो?…मानो वह गुरु को यह कहता है कि, गुरुदेव! जैसे यह समिध अग्नि में डालकर आप स्वाहा कर देते हैं, वैसे हमें भी स्वाहा कर दो। हमारे अहंकार को स्वाहा कर दो। हमारी वासनाभरी भीगी ही लकड़ी क्यों न हो, जो हैं आप अग्नि में डालकर उसे स्वाहा कर दो।
*समित्पानि क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम।*
यह जो शरणागति का भाव है, वह शिष्य में होना चाहिए। कोई लोभ नहीं, कोई प्रलोभन नहीं। और ध्यान देना जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सबकुछ मिलता है और जिसको सबकुछ चाहिए उसको कुछ नहीं मिलता। इसलिए शिष्य का पहला लक्षण ‘अलुब्ध’ –अलोभी होना चाहिए।