सच्ची गुरू पूजा

सच्ची गुरू पूजा


गुरुदेव आपने एकबार कहा था कि एकलव्य ने अपने गुरु की मूर्ति का उचित रीति से पूजन किया था तो पूजा की उचित विधियाँ क्या है? गुरु ने कहा कि- एकलव्य को गुरुमूर्ति का ध्यान करना था इसलिए गुरु की मूर्ति बनाकर ये मेरे प्यारे गुरु है ऐसा मानकर उसने सच्चे गुरु को इस मूर्ति में देखा था।

श्रद्धा युक्त प्रेम ही पूजा की सर्वोपरि विधि है और सर्वोत्तम विधि भी वही है अन्य विधियाँ कुछ इतना काम देने वाली नही है और वे जल्दी फलती भी नही है श्रद्धा युक्त प्रेम ही जल्दी फलता है ।

एक मन्त्र है कि *श्रद्धया अग्नि स्मिद्यते* श्रद्धा से ही अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, ऋषि लोग केवल मन्त्र के द्वारा काष्ट में अग्नि प्रज्ज्वलित कर देते थे,  दियासलाई से नहीं ।

दो लकड़ियों के घर्षण से अग्नि को तैयार कर लेते थे तो गुरु की श्रद्धा और भक्ति से अंदर से प्रार्थना करने पर गुरु के श्री चित्र में भी गुरु जग जाते है मूर्ति में ही जग जाते है कही भी जग जाने में वे समर्थ है उनके लिए कुछ भी कठिन नही कामयुक्त,रागयुक्त, ईर्ष्यायुक्त,आडम्बरयुक्त मत्सरयुक्त,दृष्टतायुक्त भक्ति से यह काम नही हो सकता जो काम एकलव्य ने अपने निर्दोष भक्ति से कर दिखाया।

भक्ति दो प्रकार की होती है- एक खास गुरु को प्रसन्न करने के लिए और दूसरी लोक आडम्बर के लिए लोकाडम्बर से लोक की ही प्राप्ति होगी गुरु की प्राप्ति नही,गुरु प्रसन्नता नही,खास अंतर से पछजन करने वाले को ही अन्तरशक्ति की प्राप्ति होती है।


शिष्य की सच्ची पूजा से ही गुरु जग जाते है।ईश्वर प्राप्ति गुरु के प्रति उच्च श्रद्धा से ही सम्भव है गुरु की भक्ति में पूरा समर्पण होना चाहिए।एकलव्य की गुरुभक्ति कैसी है यह उसकी कथा पढ़ने से मालूम होगा।

जब कुत्ते के मुख से कोई भी बाण निकाल नही सका तब एकलव्य ने एक और बाण मारा और बाण निकाल दिया सब बुद्धिमान धनुर्विद्या प्राप्त बड़ी डिग्री वाले देखते रह गए गुरु को भी अच्छा लगा कि ये राज पुत्र मिज़ाजी अपने को बहुत बड़ा समझते थे इनका मान खण्डन हुआ। एक अंत्येज्य भील पुत्र ने दूर रहकर ऐसा पुरुषार्थ किया वस्तुतः श्रेष्ठ में श्रेष्ठपने का गर्व होता है निम्न में भक्त की भक्ति भावना और समर्पण शीलता होती है इसलिए गुरु के प्रति एक निम्न दास होकर रहना चाहिए वे बड़ों की तरह गर्वी नही होते इसलिए निःशांत होकर गुरु को पूर्ण अर्पित हो जाना चाहिए।

एकलव्य गुरु में ऐसा सन्देह नहीं करते कि- हमको अंदर क्यों नही लिया उनको ही क्यों लिया,हमसे क्यों नही बोले उनसे क्यों बोले।छोटे में सिर्फ भक्ति होती है ऐसा भक्त अपने माँस को अपने शरीर को ज्यादा कीमत नही देता वह गुरुभक्ति को ही महत्व देता है राजपुत्रों को प्रत्यक्ष सिखाते हुए भी जो विद्या प्राप्त नही हुई वह एकलव्य को बाहर निकाल देने पर भी प्राप्त हो गई यह गुरु के प्रति अपनी निम्नता रखकर उनको समर्पण का भाव है।दक्षिणा देने का प्राचीन भारतीय नियम है विद्या पूरी होने के बाद शिष्य गुरु को दक्षिणा स्वरूप कुछ देता है ।

द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कुछ दक्षिणा मांगी झोपड़ी में रहने वाले एकलव्य ने ऐसा नही कहा कि- इतने बड़े गुरु होकर ये कुछ मांगते है। एकलव्य के पास कुछ नही था फिर भी बोला- गुरुदेव! मांगिये, क्या देगा? जो भी आप मांगोगे वह सबकुछ…

अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर दो… उसने बात पूरी होने से पहले तुरन्त अंगूठा काटकर दे दिया तब सबको समझ आई कि एकलव्य ही इस विद्या को लेने लायक है ।  उसको अपने शरीर की कीमत नही है। बाकी सब गुरु को लूटने आते है गुरु को लुटाने कोई नही आता ।

दाएँ हाथ का अंगूठा तुमने काटकर दे दिया तुमको कुछ समझ है अंगूठे के बिना तुम धनुर्विद्या का उपयोग नही कर सकते हो -ऐसे द्रोणाचार्य ने कहा।

एकलव्य ने हाथ जोड़कर गुरु से कहा कि- गुरुदेव मैंने तो आपको पूरा शरीर दे दिया है, आपने तो केवल एक टुकड़ा ही मांगा- दो इंच अंगूठा। गुरु के प्रति श्रद्धा और भक्ति अपने आप में पूरी पूजा विधि है।

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