आखिर क्या था उस जापानी संत बोकोजो के पास ऐसा जो उन्हें रात भर सोने नहीं देता था…

आखिर क्या था उस जापानी संत बोकोजो के पास ऐसा जो उन्हें रात भर सोने नहीं देता था…


गुरुकृपा से ही मनुष्य को जीवन का सही उद्देश्य समझ में आता है और आत्मसाक्षात्कार करने की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होती है। यदि कोई मनुष्य गुरु के साथ अखण्ड और अविछिन्न संबंध बांध लें तो जितनी सरलता से एक घट में से दूसरे घट में पानी बहता है उतनी ही सरलता से गुरुकृपा बहने लगती है।

संत कबीरजी कहते हैं– *झीनी- झीनी बिनी चदरिया।*

जुलाहे को कभी बुनते देखा हो या कभी तुमने अगर चरखा काता हो तो एक बात ख्याल में आयेगी कि जितना बारीक तुम्हें धागा निकालना हो चरखे से या तकली से उतना ही होश रखना पड़ेगा। जितना मोटा धागा निकालना हो उतनी बेहोशी चल जायेगी। अगर बहुत महीन सूत निकालना हो तो उतने ही जतन से, उतने ही होश से निकालना पड़ेगा। क्योंकि जरा सी बेहोशी और धागा टूट जायेगा।

कबीरजी कह रहे हैं, *झीनी- झीनी बिनी चदरिया।* झीनी अर्थात महीन, बारीक। इतनी झीनी चादर बिनी। उसका अर्थ ही है कि बड़े जतन से बिनी, होश से बिनी। साधक को बड़ी झीनी चादर बिननी पड़ती है। उसे एक-एक पैर संभाल के रखना पड़ता है। एक-एक श्वास संभाल के लेनी पड़ती है। जीवन बड़ा नाजुक है और बड़ा बहुमूल्य है। साधक शराबी की तरह नहीं चल सकता।

कबीरजी कहते हैं, वह ऐसा चलता है जैसे गर्भवती स्त्री चलती है संभालकर, जतन से। भीतर एक नया जीवन है और गर्भवती के भीतर जो जीवन है वह तो शारीरिक ही है, परन्तु साधक के भीतर… साधक के भीतर साधु के भीतर जो जीवन का अंकुर फल रहा है वह तो परमात्मा का अंकुर है। पैर का मुड़ जाना और गिर जाना और सदियों का श्रम व्यर्थ हो सकता है।

जैसे-जैसे मंजिल करीब आती है, वैसे-वैसे ज्यादा होश की जरूरत है। क्योंकि मंजिल से दूर थे तब भटकने का कोई डर ही न था। क्योंकि भटकते तो और क्या, भटके हुए ही तो थे परन्तु मंजिल करीब आती है तो और होश की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि अब भटक सकते हो।

सूफ़ी संत कहते हैं कि सांसारिक को क्या डर? डर तो साधक को है। सांसारिक के पास खोने को क्या है? खोने को तो साधक के पास है और सांसारिक चाहे तो कैसा भी चले, मिटने को कुछ है ही नहीं। लेकिन साधक कैसे भी नहीं चल सकते, क्योंकि उनके पास बड़ी संपदा है। जो मिलते-मिलते खो सकती है, जो हाथ में आते-आते वंचित हो सकती है। जिसपर पहुंचने को थे और मंजिल खो सकती है। जितनी ऊंचाई पर तुम हो गिरोगे तो उतनी ही निचाई में उतर जाओगे। इसलिए बहुत ख्याल से चलना है, जतन से चलना है। जो व्यक्ति खाई में सरक रहा है, उसको क्या डर? लेकिन जो गौरीशंकर के शिखर पर खड़ा है डर उसको है। लेकिन यह डर भय नहीं है, यह डर एक सचेतता है।

300 वर्ष पहले की बात है, जापान में एक फकीर हुए जिनका नाम था बोकोजो। बोकोजो टोकियो में रहते थे। टोकियो का सम्राट रात को जैसे पुराने सम्राट निकला करते थे घोड़े पर निकलता था। छिपे हुए वेश में नगर को देखने के लिए। कहा क्या हो रहा है? सारा नगर सोया रहता, परन्तु यह फकीर वृक्ष के नीचे जागा रहता। अक्सर तो खड़ा रहता, बैठता भी तो आंखे खुली रखता।

आखिर सम्राट की उत्सुकता बढ़ी। पूरी रात किसी भी समय कभी भी जाता मगर बोकोजो नाम का फकीर उसको जागा हुआ ही पाता। कभी टहलता, कभी बैठता, कभी खड़ा होता, लेकिन जगा ही रहता। सम्राट उसे सोया हुआ कभी न पा सका। महीनें बीत गए। सम्राट की उत्सुकता घनी होने लगी।

आखिर एक दिन सम्राट से न रहा गया। उसने फकीर से पूछ लिया कि किसलिए जागते रहते हो रातभर?

फकीर ने कहा, मेरे पास संपदा है। उसकी सुरक्षा के लिए जागता हूँ।

सम्राट और हैरान हो गया। उसने कहा, संपदा दिखाई नहीं पड़ती। ये टूटे-फूटे ठीकरे पड़े हैं, तुम्हारा भिक्षापात्र, ये तुम्हारे चिथड़े, इनको तुम संपदा कहते हो? दिमाग ठीक है या नहीं…और इनको कौन चुरा ले जायेगा?

फकीर ने कहा, जिस संपदा की बात मैं कर रहा हूँ वह तुम्हारी समझ में न आ सकेगी राजन! तुम्हें ठीकरे ही दिखाई पड़ सकते हैं और ये गंदे वस्त्र! वस्त्र गंदे हो या सुंदर, क्या फर्क पड़ता है? वस्त्र ही है। ठीकरे टूटे-फूटे हो या मिट्टी के हो या स्वर्ण के ठीकरे ही है। इनकी बात कौन कर रहा है। मेरे पास एक और संपदा है। जिसकी मुझे रक्षा करनी है।

सम्राट ने कहा, संपदा तो मेरे पास भी कुछ कम नहीं, परन्तु मैं तो मजे से सोता हूँ।

फकीर ने कहा, तुम्हारे पास जो संपदा है, तुम मजे से सो सकते हो, क्योंकि वह खो भी जाय तो भी कुछ न खोआ। मेरे पास जो हैं वह अगर खो गया तो सबकुछ खो जायेगा।

राजा ने कहा, ऐसा कौनसा धन है तुम्हारे पास?

राजन! मेरे पास मेरे गुरु का दिया हुआ धन है।

यह कौनसा धन है?

राजन! यह ऐसा धन है कि जो जल्दी किसीको प्राप्त नहीं हो पाता और जिनको प्राप्त हो जाता है, वे उसे संजो नहीं पाते, संभाल नहीं पाते। ये सद्गुरु का धन ऐसा है कि रंक को भी राजा बना देगा। मैं इसीकी निगरानी करता हूँ। अर्थात जो मेरे गुरु ने मुझे बताया है, जो मुझे ज्ञानधन दिया है मैं उसका अभ्यास करता हूँ। हाथ में आयी-2 बात है, चूक गया तो पता नहीं कितने जन्म लगेंगे? मैं अपने गुरु की बात को अपनी बात बनाना चाहता हूँ। इसलिए मैं एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाकर, एक श्वास भी व्यर्थ न गंवाकर राते जागकर बिताता हूँ, दिन को होश में बिताता हूँ और एक-एक कदम जतन से रखता हूँ, ताकि मेरा खजाना सुरक्षित रहें।

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