इससे सारी कुंजियाँ हाथ लगती जायेंगी – पूज्य बापू जी

इससे सारी कुंजियाँ हाथ लगती जायेंगी – पूज्य बापू जी


सुबह उठो तो ऐसा चिंतन करते-करते ईश्वर में मन लगाओ कि ‘गोविन्दाय नमः । गो माने इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के द्वारा जो विचरण करेगा, अभी स्फुरित हुआ है, उसको मैं नमन करता हूँ । गोपालाय नमः । इन्द्रियाँ थक जायेंगी और रात को आ के उसमें डूबेंगी इसलिए गोपाल उसी का नाम है ।’ ऐसा करो फिर देखो, सब कुछ कैसा सुन्दर, सुहावना होता है ! फिर दोपहर को थोड़ी देर ऐसी संध्या कर लो । एक-एक, दो-दो घंटे में ऐसे ईश्वर में मन लगाने की संधि – संध्या कर लो । तुम्हारा व्यवहार भी मस्त हो जायेगा और काम धंधा, पढ़ाई-लिखाई भी मस्त हो जायेगी । एक-एक, दो-दो घंटे में थोड़ी देर ईश्वर में मन लगाओ फिर काम करो । क्या ख्याल है ! तो काम बिगड़ेगा ? नापास हो जायेंगे ? अरे, नापास (विफलता) को नापास (विफल) कर देंगे ! सूझबूझ के धनी हो जायेंगे और ऐहिक पढ़ाई तो क्या, आत्म-परमात्मप्राप्ति की पढ़ाई में भी पास हो जायेंगे । स्वयं तर जायेंगे और औरों को तार देंगे । स तरति लोकांस्तारयति ।

जब हम पढ़ते थे तो कक्षा-प्रतिनिधि रहते थे कक्षा के । उस विद्यालय में 1000 गुजराती बच्चे थे, मैं ही एक सिंधी था लेकिन विद्यालय में मेरा प्रभाव था, मेरे को बहुत मान मिलता था । विद्यालय के मालिक मेहता साहब और उनकी पत्नी मनोरमा बहन मुझे बहुत स्नेह करते थे । वे ब्राह्मण थे, किसी का कुछ लेते नहीं थे पर मुझे खास बुलाकर पूछतेः “तुम क्या लाये ?” मेरे टिफिन में से ले लेते थे । मैं तो बच्चा था तब भी मेरा बड़ा सम्मान करते थे । ईश्वर में मन लगाओ, बस हो गया !

आप ईश्वर को चाहोगे तो आपको सब चाहेंगे क्योंकि ईश्वर तो आकर्षण का केन्द्र है, आनन्द का केन्द्र है, करुणा का पुंज है, स्नेह की सरिता है । जो भी सदगुण हैं वे ईश्वर में ही आये हैं और दुर्गुण हैं वे वासना से पैदा हुए हैं । दोनों मिश्रित होकर संसार की गाड़ी चल रही है ।

तो वासना कहाँ से आ गयी ? देह को ‘मैं’ माना  और संसार को सच्चा माना तो मन इन्द्रियों में वासना आ गयी और उन्हें सत्ता ईश्वर की मिली तो गाड़ी चल रही है । और देह को मिथ्या माना, संसार को सपना माना और ईश्वर को अपना माना तो वासना की जगह पर भक्ति महारानी आ जायेगी । भगवत्प्रीति, भगवद्शांति आ जायेगी, भगवद् रस आ जायेगा । इसीलिए भगवान के भक्त धक्का-धुक्की में मान-अपमान की परवाह नहीं करते, सुख-दुःख की, अनुकूलता-प्रतिकूलता की परवाह नहीं करते । जिनको थोड़ा भी सत्संग मिल गया न, वे कहीं भी जायेंगे तो सेट हो जायेंगे, यह कैसा सद्गुण है ! थोड़ा भी मन भगवान में लगेगा न, ‘घर’ में ऐसा था, ऐसा था…. यह था…. वह था….’ याद ही नहीं रहेगा । सोचोगे, ‘ठीक है, अच्छा है !’ अगर जीवन में सत्संग ही नहीं तो भीड़-भाड़ में जरा-सा भी धक्का लगेगा तो बोलेगाः ‘ऐ ऐ ! इंसल्ट हो गया, यह अच्छा नहीं लगा !’ लेकिन थोड़ा सत्संगी हो जायेगा तो धक्का-धुक्की, मान-अपमान सब पचा लेगा, आनंद में रहेगा । सत्संग में, ईश्वर में मन लगने से व्यक्ति अनाग्रही (परिस्थिति के अनुसार ढलने वाला) हो जाता हैः ‘चलता है…. कोई बात नहीं ।’ डिसिप्लिन, डिसिप्लिन, डिसिप्लिन…. अनुशासन अपनी जगह पर है, होना चाहिए, ठीक है पर कहीं अनुशासन न हो तो हम परेशान हो जायें क्या ?

नारायण हरि, ॐ माधवाय नमः, ॐ केशवाय नमः, ॐ… हो गया, ईश्वर में आ गया मन और क्या ! ऐसा नहीं कि कहीं ईश्वर है, हम जायेंगे और उठा के मन उसमें चिपकायेंगे, ऐसा भी नहीं है । ईश्वर तो है ही है ! तो ईश्वर के होने से दुःख नहीं मिटते हैं । उसकी तो सत्ता मिलती है लेकिन दुःख नहीं मिटते हैं । उसकी स्मृति, उसमें प्रीति, उसका ज्ञान, उसमें विश्रांति… कभी उसकी स्मृति, कभी उसकी प्रीति, कभी उसका ज्ञान, कभी उसके नाम का कीर्तन, कभी उसमें चुप, बस, हो गया काम !

(हास्य प्रयोग करके) यह कठिन है ? क्या घाटा हुआ ? कोई घाटा नहीं । क्या खर्च हुआ ? कोई खर्च नहीं । क्या बुरा हुआ ? कोई बुरा नहीं । अच्छा है, बढ़िया है, बस ! अब यह बापू का माल नहीं है, आपका हो गया । आपका अधिकार है ।

तो प्रीतिपूर्वक किया करोः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । वासुदेवाय, प्रीतिदेवाय, माधुर्यदेवाय, मम देवाय, आत्मदेवाय, गुरुदेवाय, प्रभुदेवाय !

यह कठिन है क्या ? इसमे कोई परिश्रम लगेगा ? इसमें कोई ज्यादा सीखना पड़ेगा क्या ? सिखाई की सारी कुंजियाँ हाथ लगती जायेंगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 334

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