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यात्रा की कुशलता व दुःस्वप्न-नाश का वैदिक उपाय


जातवेदसे सुनवाम सोमरातीयतो न दहाति वेदः ।

स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिंधुं दुरितात्यग्निः ।।

‘जिस उत्पन्न हुए चराचर जगत को जानने वाले और उत्पन्न हुए सर्व पदार्थों में विद्यमान जगदीश्वर के लिए हम लोग समस्त ऐश्वर्ययुक्त सांसारिक पदार्थों का निचोड़ करते हैं अर्थात् यथायोग्य सबको बरतते हैं और जो अधर्मियों के समान बर्ताव रखने वाले दुष्ट जन के धन को निरंतर नष्ट करता है वह अनुभवस्वरूप जगदीश्वर जैसे मल्लाह नौका से नदी या समुद्र के पार पहुँचाता है, वैसे हम लोगों को अत्यंत दुर्गति और अतीव दुःख देने वाले समस्त पापाचरणों के पार करता है । वही इस जगत में खोजने के योग्य है ।’ (ऋग्वेदः मंडल 1, सूक्त 99, मंत्र 1)

यात्री उपरोक्त मंगलमयी ऋचा का मार्ग में जप करे तो वह समस्त भयों से छूट जाता है और कुशलपूर्वक घर लौट आता है । प्रभातकाल में इसका जप करने से दुःस्वप्न का नाश होता है ।

(वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने में कठिनाई होती हो तो लौकिक भाषा में केवल इनके अर्थ का चिंतन या उच्चारण करके लाभ उठा सकते हैं ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 33 अंक 335

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जपमाला में 108 दाने क्यों ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “शास्त्र में मिल जाता है कि माला में 108 दाने ही क्यों ? 109 नहीं, 112 नहीं… 108 ही क्यों ? कुछ लोग 27 दाने की माला घुमाते हैं, कोई 54 दाने की माला घुमाते हैं और कोई 108 दाने की घुमाते हैं । इसका अपना-अपना हिसाब है ।

शास्त्रकारों ने जो कुछ विधि-विधान बनाया है वह योग विज्ञान से, मानवीय विज्ञान से, नक्षत्र विज्ञान से, आत्म-उद्धार विज्ञान से – सब ढंग से सोच-विचार के, सूक्ष्म अध्ययन करके बनाया है ।

कई आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं । कोई कहते हैं कि ‘100 दाने अपने लिए और 8 दाने गुरु या जिन्होंने मार्ग दिखाया उनके लिए, इस प्रकार 108 दाने जपे जाते हैं ।’

योगचूड़ामणि उपनिषद् (मंत्र 32) में कहा गया हैः

षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः ।

एतत्सङ्ख्यान्वितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा ।।

‘जीव 21600 की संख्या में (श्वासोच्छ्वास) में दिन रात निरंतर मंत्रजप करता है ।’

हम 24 घंटों में 21600 श्वास लेते हैं । तो 21600 बार परमेश्वर का नाम जपना चाहिए । माला में 108 दाने रखने से 200 माला जपे तो 21600 मंत्रजप हो जाता है इसलिए माला में 108 दाने रखने से 200 माला जपे तो 21600 मंत्रजप हो जाता है इसलिए माला में 108 दाना होते हैं । परंतु 12 घंटे दिनचर्या में चले जाते हैं, 12 घंटे साधना के लिए बचते तो 21600 का आधा कर दो तो 10800 श्वास लगाने चाहिए । अधिक न कर सकें तो कम-से-कम श्वासोच्छवास में 108 जप करें । मनुस्मृति में और उपासना के ग्रंथों में लिखा है कि श्वासोच्छवास का उपांशु जप करो तो एक जप का 100 गुना फल होता है । 108 को 100 से गुना कर दो तो 10800 हो जायेगा । परंतु माला द्वारा साधक को प्रतिदिन कम-से-कम 10 माला गुरुमंत्र जपने का नियम रखना ही चाहिए । इससे उसका आध्यात्मिक पतन नहीं होगा । (शिव पुराण, वायवीय संहिता, उत्तर खंडः 14.16-17 में आता है कि गुरु से मंत्र और आज्ञा पाकर शिष्य एकाग्रचित्त हो संकल्प करके पुरश्चरणपूर्वक (अनुष्ठानपूर्वक) प्रतिदिन जीवनपर्यन्त अनन्यभाव से तत्परतापूर्वक 1008 मंत्रों का जप करे तो परम गति को प्राप्त होता है ।)

दूसरे ढंग से देखा जाय तो आपके जो शरीर व मन हैं वे ग्रह और नक्षत्रों से जुड़े हैं । आपका शरीर सूर्य से जुड़ा है, मन नक्षत्रों से जुड़ा । ज्योतिष शास्त्र में 27 नक्षत्र माने गये हैं । तो 27 नक्षत्रों की माला सुमेरु के सहारे घूमती है । प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण हैं, जैसे अश्विनी के ‘चू, चे, चो, ला’, ऐसे ही अन्य नक्षत्रों के भी 4-4 चरण होते हैं । अब 27 को 4 से गुणा करो तो 108 होते हैं ।

तो हमारे प्राणों के हिसाब से, नक्षत्रों के हिसाब से, हमारी उन्नति के हिसाब से 108 दानों की माला ही उपयुक्त है ।”

कुछ अन्य तथ्य

ऐसी भी मान्यता है कि एक वर्ष में सूर्य 2,16,000 कलाएँ बदलता है । सूर्य हर 6—6 महीने उत्तरायण और दक्षिणायन में रहता है । इस प्रकार 6 महीने में सूर्य की कुल कलाएँ 1,08,000 होती है । अंतिम तीन शून्य हटाने पर 108 की संख्या मिलती है । अतः जपमाला में 108 दाने सूर्य की कलाओं के प्रतीक हैं ।

ज्योतिष शास्त्रानुसार 12 राशियों और 9 ग्रहों का गुणनफल 108 अंक सम्पूर्ण जगत की गति का प्रतिनिधित्व करता है ।

शिव पुराण (वायवीय संहिता, उत्तर खंडः 14.40) में आता हैः

अष्टोत्तरशतं माला तत्र स्यादुत्तमोत्तमा ।

‘108 दानों की माला सर्वोत्तम होती है ।’

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सत्संग की ऐसी समझ से होता निश्चिंत व निर्दुःख जीवन – पूज्य बापू जी


ठाकुर मेघसिंह बड़े जागीरदार थे । साथ ही वे बड़े सत्संगी भी थे । सत्संग के प्रभाव से वे जानते थे कि ‘जो कुछ होता है, मंगलमय विधान से होता है, हमारे विकास के लिए होता है ।’ वे कोई वायदा करते तो जल्दबाजी में नहीं करते, विचार करके ‘हाँ’ बोलते और बोली हुई ‘हाँ’ को निभाते । अथवा तो कभी ऐसा अवसर आता तो बोलतेः ‘अच्छा, जो ईश्वर की मर्जी होगी, प्रयत्न करेंगे…’ ताकि झूठ न बोलना पड़े और अपना वचन झूठा न पड़े । मंगलमय विधान में विश्वास होने के कारण कोई भी परिस्थिति उन्हें डाँवाडोल नहीं कर सकती थी ।

मेघसिंह का एक सेवक था भैरूँदान चारण । सेवा बड़ी तत्परता से करता था और स्वामी का विश्वास भी पा लिया था लेकिन कुसंग के कारण उसके मन में जागीरदार के प्रति द्वेष पैदा हो गया था । एक रात्रि को मेघसिंह रनिवास (रानियों के रहने का स्थान या महल) की तरफ जा रहे थे । स्वामी पर पीछे से वार करने के लिए भैरूँदान ने खंजन निकाला । एकाएक पीछे देखा तो सेवक के हाथ में खंजर ! सामने नज़र डाली तो साँड भागा आ रहा है । आगे-पीछे का सोचे इतनी देर में तो साँड ने जोरों से भैरूँदान की छाती में सींग घोंप दिया । वह धड़ाक् से गिरा और हाथ ऐसा घूमा कि खंजर से उसी की नाक कट गयी ।

करमी (कर्म) आपो आपणी के नेड़ै (निकट) के दूरि ।।

यह मंगलमय विधान है । साँड का प्रेरक कौन है ? स्वामी आगे हैं, स्वामी को साँड छूता नहीं है और सेवक के अंदर गद्दारी है तो सेवक को वह छोड़ता नहीं है, कैसी मंगलमय व्यवस्था है ! अगर स्वामी का आयुष्य इसी ढंग से पूरा होने वाला होता तो ऐसा भी हो सकता था ।

मेघसिंह ने सेवकों को बुलाया, स्वयं भी लगे और भैरूँदान को उठाकर अपने महल में ले गये । पत्नी ने देखा, चीखी । बोलीः “आपके सेवक के हाथ में इतना जोरों से पकड़ा हुआ खंजर ! मालूम होता है कि इसने आपकी हत्या करने की नीच वृत्ति ठानी और भगवान ने आपको बचाया ।”

बोलेः “तू ऐसा क्यों सोचती है ? हम उस पर संदेह क्यों करें ?”

लेकिन अनुमान और वार्तालाप से पत्नी को तो सब बात समझ में आ गयी थी और पति पहले ही समझे  थे । सेवक की सेवा-चाकरी करा के स्वस्थ किया, उसे होश आया पर आँख नहीं खुली थी । तब पति-पत्नी आपस में जो बात कर रहे थे वह चारण ने सुनी । वह सोचने लगा, ‘स्वामी ने मेरे को देखा भी था और पत्नी को भी समझा रहे हैं कि ऐसा तो मैंने भी देखा था लेकिन हो सकता है कि मेरी रक्षा के लिए इसने कटार पकड़ी हो । तुम कभी भी इस पर संदेह नहीं करना । भैरूँदान मेरा ईमानदार, वफादार सेवक है । वह मुझे खंजर मारे यह सम्भव नहीं । अगर मारे तब भी ऐसा कोई विधान होगा ।’

इन उदार तथा ईश्वर के विधान में आस्था रखने वाले वचनों से भैरूँदान का मन बदल गया । वह फूट-फूटकर रोया कि “मुझ अभागे ने आपको नहीं पहचाना । मैं आपका यश देखकर जलता था । मैंने .सचमुच में आपकी हत्या करने के लिए खंजर पकड़ा था लेकिन मेरे को मेरी करनी का फल मिला । अब मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ और साथ ही दंड भी चाहता हूँ । नहीं तो    मेरा आत्मा मुझे कोसेगा ।”

मेघसिंह बोलेः “चारण ! तुझे दंड दूँ ? बिना दंड के नहीं मानोगे तो मैं 3 प्रकार के दंड देता हूँ – 1. आज से शरीर से किसी का बुरा नहीं करना । 2. मन से किसी का बुरा न सोचना, बुरा न मानना, किसी के प्रति दुर्भाव न रखना और 3. वाणी से कभी कठोर तथा निंदनीय शब्दों  का उच्चारण न करना । ये त्रिदंड साधेगा तो तू जन्म-कर्म की दिव्यता को जान लेगा ।”

ऐसी उदार वाणी सुनकर भैरूँदान तो चरणों में गिर पड़ा । मेघसिंह ने स्नेह से उसे उठाया, प्रोत्साहित किया ।

ऐसे पुरुषों के जीवन में केवल एक बार ही ऐसी कोई घटना आकर चुप हो जाय ऐसी बात नहीं है, सभी के जीवन की तरह सभी प्रकार की घटनाएँ ऐसे पुरुषों के जीवन में घटती रहती हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020 पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 335

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